न शूद्र-राज्ये निवसेत् … – मनुस्मृति में शूद्र-“अस्पृश्यता”

मनुस्मृति धर्मकर्म या रिति-रिवाजों से संबंधित एक विवादास्पद ग्रन्थ है। इस ग्रंथ में बहुत-सी बातें हैं जिन पर आपत्ति नहीं की जा सकती है, बल्कि उन्हें स्वस्थ-सभ्य समाज के अनुरूप माना जायेगा। मनुस्मृति का “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते … “ कथन लोगों के मुख से अक्सर सुन्ने को मिलते हैं। निःसंदेह इस कथन में अनुकरणीय सलाह निहित है। किंतु इसी ग्रंथ में स्त्रियों के लिए कर्तव्याकर्तव्य की ऐसी अनेक बातें भी कही गई हैं जिसे महिला संगठन अमान्य कहेंगे। मैंने अपने वर्तमान ब्लॉग में मनुस्मृति पर आधारित तीन आलेख पहले कभी लिखे थे। देखें नारी संबंधी (2009-09-11), शुचिता संबंधी (2011-01-18), एवं शासकीय दंड संबंधी (2011-05-14) ब्लॉग प्रविष्टियां ।

https://vichaarsankalan.wordpress.com/2009/09/11/

https://vichaarsankalan.wordpress.com/2011/01/18/

https://vichaarsankalan.wordpress.com/2011/05/14/

मैं मौजूदा इस आलेख में हिन्दुओं में प्रचलित वर्ण-व्यवस्था के चतुर्थ वर्ण – “शूद्र” नाम से संबोधित – के बारे में मनुस्मृति के दो-चार श्लोकों का उद्धरण प्रस्तुत कर रहा हूं जिनमें नकारात्मक और “कदाचित्” आपत्तिजनक विचार व्यक्त किए गए हैं:

न शूद्रराज्ये निवसेन्नाधार्मिकजनावृते ।

न पाषण्डिगणाक्रान्ते नोपसृष्टेऽन्त्यजैर्नृभिः ॥

(मनुस्मृति, अध्याय 4, श्लोक 61)

(न शूद्र-राज्ये, न अधार्मिक-जन-आवृते, न पाषण्डि-गण-आक्रान्ते, न अन्त्यजैः नृभिः उपसृष्टे निवसेत्।)

अर्थ – (व्यक्ति को) शूद्र से शासित राज्य में, धर्मकर्म से विरत जनसमूह के मध्य, पाखंडी लोगों से व्याप्त स्थान में, और अन्त्यजों के निवासस्थल में नहीं वास नहीं करना चाहिए।

यहां व्यक्ति से तात्पर्य होना चाहिए उस व्यक्ति से जो वर्ण के अनुसार शूद्र से भिन्न हो, अर्थात वह जिसे आम तौर पर सवर्ण कहा जाता है (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य)। धर्मकर्म से विरत उनको कहा जायेगा जो सवर्ण होते हुए धर्मानुकूल आचरण नहीं करते हैं। पाखंडी और धर्म-विमुख जनों में मुझे कोई अंतर नहीं दिखता। अंत्यज के अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं हैं। मेरी समझ के अनुसार इस वर्ग में विधर्मी जनों को गिना जायेगा और उन्हें भी जो वर्णव्यवस्था को नकार कर अपनी स्वतंत्र व्यवस्था के अनुसार रहते हों। “चांडाल” को भी इसमें गिना जाता है, किंतु मैं चांडाल किसे कहा जाता है यह आज तक नहीं जान पाया! अस्तु।

आज के विशुद्ध भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति का जीवनोद्येश्य एक ही है: किसी भी व्यवसाय से धनोपार्जन करना। कर्म के अनुसार देखा जाये तो किसी भी व्यक्ति का कोई वर्ण नहीं रह गया। वर्ण का अर्थ जातिसूचक शब्द रह गया है और धर्म स्वयं में दिखावा मात्र।

न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम्।

न चास्योपदिशेद्धर्मं न चास्य व्रतमादिशेत्॥

(मनुस्मृति, अध्याय 4, श्लोक 80)

(शूद्राय मतिम् न दद्यात्, न उच्छिष्टम्, न हविष्कृतम्, न च अस्य धर्मम् उपदिशेत्, न च अस्य व्रतम् आदिशेत्।)

अर्थ – किसी प्रयोजन की सिद्धि को ध्यान में रखते हुए दिया जाने वाला उपदेश शूद्र को न दिया जाये। उसे जूठा यानी बचा हुआ भोजन न दे और न यज्ञकर्म से बचा हविष्य प्रदान करे। उसे न तो धार्मिक उपदेश दिया जाये और न ही उससे व्रत रखने की बात की जाये।

जूठा का मतलब उस खाने से है जो किसी के लिए परोसा गया हो और छोड़ दिया गया हो। जूठे से तात्पर्य उस भोजन से नहीं लिया जाना चाहिए जो खाते-खाते थाली में बच जाये। यज्ञकर्म हेतु अग्निकुंड में जिस पदार्थ की आहुति दी जाती है उसे  हविष्य कहा जाता है। यह घी या मक्खन हो सकता है, पर्वों पर बने पकवान हो सकते हैं, अथवा तिल, घी, चंदन-चूर्ण आदि का मिश्रण हो सकता है। व्रत से तात्पर्य है पापकर्मों से मुक्ति के निमित्त उपवास, दान, आदि के रूप में किए जाने वाला प्रायश्चित्त।

नाद्याच्छूद्रस्य पक्वान्नं विद्वानश्राद्धिनो द्विजः ।

आददीताममेवास्मादवृत्तावेकरात्रिकम्॥

(मनुस्मृति, अध्याय 4, श्लोक 223)

(विद्वान् द्विजः अश्राद्धिनः अस्य पक्व-अन्नम् न अद्यात्, अवृत्तौ अस्मात् एक-रात्रिकम्  अमम्  एव आददीत ।)

अर्थ – विद्वान्‍ द्विज अश्राद्धिन्‍ शूद्र द्वारा पकाया हुआ भोजन न खावे। परंतु तात्कालिक आर्थिक व्यवस्था न कर पाने की स्थिति में उससे एक रात्रि भर का कच्चा भोजन ग्रहण कर ले।

द्विज शब्द शूद्रेतर तीनों वर्णों के संस्कारित जन के लिए प्रयुक्त होता है। संस्कारित वह है जिसका उपनयन संस्कार हुआ हो। इस संस्कार के अंतर्गत व्यक्ति गुरु से शिक्षित होता है और ऐसा होना द्वितीय जन्म के तुल्य होता है। संस्कार के अभाव में व्यक्ति को पूर्व काल में शूद्र के तुल्य समझा जाता था। आज के युग में उपनयन की प्रथा बहुत कम प्रचलन में रह गयी है। ब्राह्मण जाति में भी यह परंपरा टूट रही है। इस दृष्टि से प्रायः सभी शूद्र हैं। अश्राद्धिन वह व्यक्ति है जो श्राद्ध आदि कर्म न करता हो; शूद्रों के लिए ये कार्य वर्जित कहे गये हैं। कच्चा भोजन वह है जिसे आग से न पकाया गया हो। आटा-दाल-चावल पकाये जाने से पहले कच्चे कहे जायेंगे।

न विप्रं स्वेषु तिष्ठत्सु मृतं शूद्रेण नाययेत्।

अस्वर्ग्या ह्याहुतिः सा स्याच्छूद्रसंस्पर्शदूषिता ॥

(मनुस्मृति, अध्याय 5, श्लोक 104)

(मृतम् विप्रंम्  स्वेषु तिष्ठत्सु शूद्रेण न नाययेत्, सा शूद्र-संस्पर्श-दूषिता आहुतिः अस्वर्ग्या हि स्यात्।)

अर्थ – बंधु-बांधओं के उपलब्ध रहते हुए मृत ब्राह्मण का शरीर शूद्र के द्वारा बाहर न निकलवाए। शरीर के शूद्र के स्पर्श से दूषित होना ब्राह्मण के स्वर्गप्राप्ति में बाधक होती है।

यहां आहुति का क्या अर्थ है मैं समझ नहीं पाया। इन श्लोकों में शूद्र को खुलकर अस्पृश्य नहीं कहा गया है, किंतु जो कुछ कहा गया वह स्पष्ट करता है कि शूद्र कहे जाने वाले को शेष समाज हेय दृष्टि से देखता आ रहा है। सवर्णों का यह व्यवहार परंपरा के रूप में कब स्थापित हुआ होगा कहना मुश्किल है। कई “पंडित” जन ऋग्वेद के “ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू …” (ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12) एवं मनुस्मृति के “लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं …” (मनुस्मृति, अध्याय 1, श्लोक 31) का उल्लेख करते हुए शूद्रों की हीनता को सिद्ध करते हैं। मैंने एक आलेख में ऋग्वेद के उक्त श्लोक की व्याख्या अपने प्रकार से की है (देखें ब्लॉग-प्रविष्टि 2013-9-26)

जो प्रचलित व्याख्या से पूर्णतः भिन्न है। मनुस्मृति के उपर्युक्त एवं अन्य कुछ कथन प्रचलित व्याख्या के पक्ष में जाते हैं। किंतु मेरा मत है कि वैदिक काल में स्थिति एकदम भिन्न रही होगी और पौराणिक काल से वर्ण-व्यवस्था में शनैःशनिः विकार आना शुरू हुआ होगा।

अस्तु, पाठक स्वविवेक से अपना मत नियत कर सकते हैं। -योगेन्द्र जोशी

मनुस्मृति में वर्णित पंचपाप एवं पंचमहायज्ञ (भाग – 2)

अपनी पिछली ब्लाग-प्रविष्टि में मैंने पंचपापों की चर्चा की थी । मेरी उस चर्चा का आधार मनुस्मृति था । उक्त स्मृति के अनुसार मनुष्य अपने दैनिक जीवन में तरह-तरह के छोटे-मोटे पापकर्म करता रहता है । मनुस्मृति का मत है कि जीवनधारण के लिए चूल्हा-चक्की जैसे आवश्यक कार्यों को संपन्न करते समय मनुष्य प्राणिहिंसा या तद्सदृश अन्य कर्मों से नहीं बच पाता है । इन सबमें लगा व्यक्ति पापों का भागीदार बन जाता है । प्रौद्योगिकी-प्रधान आधुनिक युग में लोगों की दैनिक चर्या प्राचीन काल की जैसी नहीं रही । फिर भी चलते-फिरते या मशीनों के प्रयोग में वह कुछ न कुछ अनिष्टप्रद कर ही बैठता है । मनुस्मृति कहती है कि उनसे जुड़े पापों के दोषों की भरपाई वह सत्कर्मों के संपादन से कर सकता है । स्मृतिकार ने इन सत्कर्मों को पंच महायज्ञ कहा है । उक्त स्मृति के अधोलिखित श्लोकों में इनका विवरण यों उपलब्ध है:

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञो‍ऽतिथिपूजनम् ।।

(मनुस्मृति, 3, 70)

(अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः, तर्पणम् तु पितृयज्ञः, होमः दैवः, बलिः भौतः, अतिथि-पूजनम् नृयज्ञः ।)

अर्थ – अध्यापन-कार्य ब्रह्मयज्ञ, पितरों का तर्पण पितृयज्ञ, होमकार्य दैवयज्ञ, बलिप्रदान भूतयज्ञ, एवं अतिथि-सत्कार नृयज्ञ हैं ।    

यज्ञ का अर्थ सामान्यतः देवताओं की वैदिक मंत्रों के साथ की जाने वाली स्तुति से लिया जाता है, जिसे हवनकुण्ड में प्रज्वलित अग्नि में हव्य (घी, तिल आदि) की आहुति देकर मंत्रोच्चार से साथ संपन्न किया जाता है । यज्ञ का यह अर्थ रूढ़ि एवं आम प्रचलन में है, परंतु कई अवसरों पर यज्ञ इससे अधिक व्यापक अर्थ रखता है । यज्ञ शब्द उक्त श्लोक में मनुष्य से अपेक्षित अन्य कर्मों को इंगित करता है ।

यहां पांच यज्ञों का उल्लेख किया गया है जिनमें प्रथम  (ब्रह्मयज्ञहै अध्यापन जिसका तात्पर्य है अन्य लोगों को ज्ञान बांटना, उनमें उचितानुचित का विवेक जगाना, उन्हें आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करना आदि । प्राचीन वैदिक काल की वर्ण-व्यवस्था में यह कार्य औपचारिक तौर पर ब्राह्मणों के जिम्मे हुआ करता था । पर मैं समझता हूं कि तब भी किसी व्यक्ति से यह अपेक्षा रहती होगी कि वह अनौपचारिक रूप से अपनी संतान एवं अन्य जनों को अपने सीमित ज्ञान से संस्कारित करे ।

अगला यज्ञ है पितृयज्ञ जिसे उक्त ग्रंथ में तर्पण द्वारा संपन्न करने की बात कही है । तर्पण का अर्थ है तृप्त करना । धर्मशास्त्रों के अनुसार स्नानादि के समय पितरों के नाम पर जल चढ़ाकर तर्पण किया जाता है । मैं तर्पण को अधिक व्यापक अर्थ देता हूं । वे सभी कार्य – जैसे दान – जो पितरों के नाम पर किए जाएं तर्पण माने जा सकते हैं । रोजमर्रा के जीवन में उनका स्मरण करना, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना, आदि तर्पण समझे जा सकते हैं ।

प्रज्वलित अग्नि में मंत्रोच्चार के साथ हव्यसामग्री सोंपना देवयज्ञ कहा जाता है । वैदिक मान्यता के अनुसार प्रकृति के विविध निष्प्राण भौतिक घटकों पर किसी एक या दूसरे देवता का नियंत्रण या स्वामित्व रहता है किसे अधिष्ठाता देवता कहा जाता है । मान्यता रही है कि हवन की अग्नि को समर्पित हव्य सामग्री उसके माध्यम से उन देवताओं को प्राप्त होती है । यज्ञ सामान्यतः इस विधि से देवताओं के प्रति की गई स्तुति है ।

वैदिक लोकव्यवहार मनुष्य से यह अपेक्षा करता है कि वह भोजन की व्यवस्था केवल अपने लिए ही न करे बल्कि अन्य जीवधारियों के नाम पर भी उसका एक अंश छोड़ दे जिसे बलि कहा गया है । मुझे याद है जब मेरे ग्राम्य समाज में भोजन-काल में उसका एक अंश अलग करने के बाद खाना आरंभ करते थे । उस बलि को भोजनांतर बाहर खुले में डाल देते थे जिसे कुत्ते-बिल्ली, कौवे या चिड़िया खा लेते थे । किसी न किसी बहाने पशुपक्षियों को भोजन खिलाने-पिलाने का व्रत कई लोग लिए रहते हैं । यह सब करना भूतयज्ञ के नाम से जाना गया है । भूत का अर्थ है भौतिक देहधारी प्राणी ।

अंत में नृयज्ञ, जिसका तात्पर्य अतिथि-सत्कार से है । समाज में किसी भी अन्य व्यक्ति, चाहे वह अनजान ही क्यों न हो, की सहायता करना, उसके प्रति सदाशयता दिखाना, सद्व्यवहार करना अतिथि सत्कार है । भूखे या रोगग्रस्त व्यक्ति के घर के प्रवेशद्वार पर आकर भोजन अथवा औषधि की याचना करने पर उसकी यथासंभव मदद करना अतिथि सत्कार कहा जाएगा । इसी प्रकार रात्रिविश्राम की मांग करने वाले के लिए समुचित व्यवथा करना अतिथि सत्कार के अंतर्गत माना जाएगा । अतिथि का मतलब है ऐसा व्यक्ति जिसका साक्षात्कार अप्रत्याशित रूप से हो जाए । दशकों पहले तक अपने समाज में अतिथि-सत्कार की प्रथा रही है (अतिथिदेवो भव) । लेकिन आज के ‘सभ्य’ समाज में लोग सामाजिक संवेदनाओं से दूर एवं परस्पर शंकालु होते जा रहे हैं और तदनुसार एक-दूसरे से बचते हैं ।

उक्त प्रकार के यज्ञसंज्ञात्मक कर्मों के निष्पादन के विषय में आगे यह कहा गया है:

पञ्चैतान्यो महायज्ञान्न हापयति शक्तितः ।

स गृहे‍ऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते ।।

(मनुस्मृति, 3, 71)

(एतान्यः पञ्च महायज्ञान् शक्तितः न हापयति सः नित्यं गृहे वसन् अपि सूना-दोषैः न लिप्यते ।)

अर्थ – यहां कथित इन पांच महायज्ञों को जो यथासामर्थ्य नहीं छोड़ता वह घर में रहते हुए भी पूर्वचर्चित पापकमों के दोषों से नहीं लिप्त होता है ।

घर में रहते हुए का तात्पर्य है गृहस्थ जीवन निभाते हुए । गृहस्थाश्रम मानवसमाज का सबसे अहम आश्रम है क्योंकि इसी पर अन्य आश्रमों का अस्तित्व टिका रहता है । इसी आश्रम के लोग दूसरों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । लेकिन गृहस्थाश्रम के तमाम दैनिक कार्यों को संपन्न करते हुए मनुष्य जाने-अनजाने पापकर्म कर बैठता है जिनके दोषों से वह मुक्त हो जाता है अन्य परोपकर्मों को करने पर । पापों की भरपाई पुण्यकर्मों से संभव है यही संदेश मनुस्मृति के इन वचनों में निहित है ।

पंचपापों एवं पंचमहायज्ञों को मैं शाब्दिक अर्थ में नहीं लेता, प्रत्युत इनको मैं प्रतीकात्मक समझता हूं । छोटे-मोटे सभी कर्म पाप के स्रोत हो सकते हैं और देवताओं-पितरों के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति एवं समाज तथा अन्य प्राणियों के प्रति उपकार-भावना उन पापों का प्रतिकार है । – योगेन्द्र जोशी

मनुस्मृति में वर्णित पंचपाप एवं पंचमहायज्ञ (१)

प्रचीन भारतीय दर्शन में पाप एवं पुण्य को बहुत महत्त्व दिया गया है । इन्हें क्रमशः नर्क तथा स्वर्ग लोकों का मार्ग बताया गया है । सत्कमों को पुण्यदायक एवं कदाचारण-दुराचरण को पापों का जनक माना जाता रहा है । भारतभूमि में प्रचलित सभी धर्म पापकर्मों से बचने की शिक्षा देते हैं ताकि मनुष्य को मरणोपरांत नर्कलोक की यातना न भुगतना पड़े । भारतीय दार्शनिक चिंतन में मनुष्य मात्र देही नहीं होता है । देह तो उसके भीतर निवासस्थ आत्मा द्वारा धारण किया हुआ भौतिक कलेवर होता है । मान्यतानुसार आत्मा कभी मरती नहीं बल्कि इस भूलोक के अलावा स्वर्ग-नर्क आदि लोकों का अपने कर्मों के अनुसार भोग करती है । यद्यपि बौद्ध तथा जैन धर्म में आत्मा संबंधी मान्यताएं किंचित भिन्न हैं, तथापि पाप-पुण्य की महत्ता वहां कम नहीं है ।

कहने का तात्पर्य है कि अपने देश में पाप से बचने की बातें आम जीवन में प्रायः होती रहती हैं । किंतु यह भी सच है कि जीवन-यापन हेतु किए जाने वाले दैनिक कर्मों के दौरान जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे, मनुष्य पाप कर बैठता है, या उससे पापकर्म होते रहते हैं । मनुस्मृति में उन कर्मों का जिक्र मिलता है जिन्हें जीवन-धारण हेतु प्रायः प्रतिदिन किया जाता है और जो मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं । आज के प्रौद्योगिकी आधारित जीवन में वे कर्म बेमानी कहे जा सकते हैं, फिर भी कुछ लोगों के दैनिक जीवन का वे आज भी हिस्सा होते हैं । अस्तु्, उक्त स्मृति में पंचपाप संबंधी ये श्लोक देखने को मिलता है:

पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः ।

कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।

(मनुस्मृति 3, 68)

(चुल्ली पेषणी उपस्करः कण्डनी च उदकुम्भः च गृहस्थस्य पञ्च सूनाः याः तु वाहयन् बध्यते ।)

          अर्थ –  चुल्ली (चूल्हा), चक्की, झाड़ू-पोछे के साधन, सिलबट्टा तथा पानी का घड़ा, ये पांच पाप के कारण हैं जिनका व्यवहार करते हुए मनुष्य पापों से बधता है ।

अर्थात् चूल्हा-चक्की, झाड़ू-पोंछा आदि का प्रयोग करते समय कुछ न कुछ पापकर्म हो ही जाता है, जैसे घुन-कीड़े जैसे जीवों की हत्या हो ही जाती है । भारतीय धार्मिक मान्यताओं के अनुसार किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । लेकिन जीवन-धारण के कार्य में ऐसे पापों से बचना संभव नहीं है । मनुस्मृति में इनके दोषों के निवारण का भी मार्ग बतलाया हैः

 

तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः ।

पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।

(मनुस्मृति 3, 69)

(तासां सर्वासां क्रमेण निष्कृति-अर्थं महर्षिभिः गृह-मेधिनाम् प्रति अहं पञ्च महा-यज्ञाः क्लृप्ता ।)

          अर्थ – इन सबसे क्रमानुसार निवृत्ति हेतु महर्षियों ने गृहस्थाश्रमियों के लिए प्रतिदिन पांच महायज्ञों का विधान सुझाया है ।

मनुस्मृति के अनुसार किसी पापकर्म के दोष से मुक्त होने के लिए हमें उसके बदले समुचित सत्कर्म करने चाहिए । अर्थात पुण्यकार्य करके हम पापकर्मजनित हानि की भरपाई कर सकते हैं । दानपुण्य, देवोपासना, सदुपदेश, मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों का हितसाधन आदि कर्म इस श्रेणी में आते हैं । ऐसा करना एक प्रकार का प्रायश्चित्त करना है । प्रायः सभी धर्मों में प्रायश्चित्त की बातें कही जाती हैं । जिन महायज्ञों का उल्लेख मनुस्मृति में मिलता है वे हैं ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ एवं नृयज्ञ । इनकी चर्चा किंचित विस्तार से अगली बलॉग-प्रविष्टि में की जाएगी ।

चुल्हा-चौकी जैसे कार्य आज के मशीनी युग में कुछ हद तक बेमानी हो चुके हैं । मैं इन्हें प्रतीकात्मक मानता हूं । तदनुसार रोजमर्रा के जीवन में उठने-बैठने, खाने-पीने, चलने-फिरने आदि जैसे कार्य करते समय जाने-अनजाने व्यक्ति को पाप का दोष लगता रहता है । भले ही मशीनों का प्रयोग हो रहा हो, वे व्यक्ति पाप के परोक्षतः भागी होंगे ही जिनके हेतु मशीनें कार्यरत हों । उन दोषों के निवारण के लिए सत्कर्मों को दरशाने वाले कर्म उसे करना चाहिए यही मंतव्य उक्त कथनों का निहितार्थ होना चाहिए ऐसा मेरा मानना है । – योगेन्द्र जोशी

मनुस्मृति के अनुसार विवाह के आठ प्रकार – ब्राह्म, दैव, आर्ष आदि (3)

अपनी पिछली पोस्टों (14 जनवरी तथा 28 जनवरीधर्म एवं कर्मकांड संबंधी हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथ मनुस्मृति में वर्णित विवाह के आठ प्रकारों – ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस, और पैशाच – का उल्लेख किया था । इनमें से प्रथम पांच की व्याख्या उपर्युक्त पोस्टों में की गई । अंतिम तीन (गान्धर्व, राक्षस, एवं पैशाच) के बारे में आगे अपना कथ्य प्रस्तुत कर रहा हूं । गांधर्व विवाह के बारे में मनुस्मृति का कथन यों है:

इच्छयाऽअन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च ।

गांधर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः ॥32॥

(मनुस्मृति, अध्याय तीन)

(कन्यायाः च वरस्य च इच्छया अन्योन्य-संयोगः काम-सम्भवः मैथुन्यः स तु गांधर्वः विज्ञेयः ।)

अर्थ – कन्या एवं वर की इच्छा और परस्पर सहमति से स्थापित संबंध, जो शारीरिक संसर्ग तक पहुंच सकते हैं, की परिणति के रूप में हुए विवाह को ‘गांधर्व’ विवाह की संज्ञा दी गई है ।

गांधर्व विवाह का एक उल्लेख्य उदाहरण मुझे शकुंतला-दुष्यंत की पौराणिक कथा में मिलता है । उस कथा में आखेट के लिए गए राजा दुष्यंत की दृष्टि वन में मेनका-विश्वामित्र की पुत्री और कण्व ऋषि के आश्रम में पल रही युवा शकुंतला पर पड़ती है । वे उसके प्रति आकर्षित होते हैं, दोनों के बीच वार्तालाप होता है, निकटता बढ़ती है, जिसकी परिणति शारीरिक संबंध स्थापना में होती है । वे दोनों परस्पर विवाह-संबध में बंध जाते हैं, जिसे कण्व ऋषि की स्वीकृति मिलती है । उसी संबंध से राजा भरत का जन्म होता है । मेरे मत में गांधर्व विवाह वस्तुतः प्रेम विवाह है, जो वर्तमान काल में युवक-युवतियों के बीच लोकप्रिय होता जा रहा है । दरअसल आज के युवाओं को पढ़ाई एवं तत्पश्चात नौकरी-पेशे के समय परस्पर मिलने-जुलने एवं घूमने-फिरने की अधिक स्वतंत्रता मिलने लगी है । माता-पिताओं ने भी वैचारिक खुलापन अपनाना आरंभ कर दिया है । अतः प्रेम-प्रसंग एवं तज्जन्य विवाह सामान्य होते जा रहे हैं ।

राक्षस विवाह को यों परिभाषित किया गया है:

हत्वा छित्वा च भित्वा च क्रोशन्तीं रुदन्तीं गृहात् ।

प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते ॥33॥

(यथा पूर्वोक्त)

(हत्वा छित्वा च भित्वा च प्रसह्य गृहात् क्रोशन्तीम् रुदन्तीम् कन्या-हरणम् राक्षसः विधिः उच्यते ।)

अर्थ – कन्यापक्ष के निकट संबंधियों, मित्रों, सुहृदों आदि को डरा-धमका करके, आहत करके, अथवा उनकी हत्या करके रोती-चीखती-चिल्लाती कन्या घर से जबरन उठाकर ले जाना और विवाह करना राक्षस विधि का विवाह कहलाता है ।

पौराणिक कथाओं में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे हैं । प्राचीन काल में राजा-महाराजा जब किसी युवती के प्रति आकर्षित होते थे तो उसे विवाह के लिए प्रेरित करते थे; न मानने पर जोर-जबरदस्ती उठा ले जाते थे । आज भी कई युवक एक-तरफा प्रेम में पड़कर इस विधि से युवतियों के साथ दांपत्य-संबंध बना लेते हैं ।

सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति ।

सः पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमो९धमः ॥34॥

(यथा पूर्वोक्त)

(यत्र सुप्ताम् मत्ताम् प्रमत्ताम् वा रहः उप-गच्छति सः विवाहानाम् अष्टमः पापिष्ठः अधमः पैशाचः च ।)

अर्थ – जब कोई कन्या सोई हो, भटकी हो, नशे की हालत में हो, अथवा सुरक्षा के प्रति असावधान हो, तब यदि कोई उसके साथ शारीरिक संबंध बनाकर अथवा अन्यथा विवाह कर ले तो उसे निकृष्टतम श्रेणी का ‘पैशाच’ विवाह कहा जाता है ।

पैशाच विवाह को निकृष्ट कोटि का कहा गया है । राक्षस विवाह में कन्यापक्ष के लोगों को डरा-धमकाकर या मार-पीटकर कन्या को विवाह के लिए विवश किया जाता है, किंतु उसके साथ दुष्कर्म से बचा जाता है । लेकिन पैशाच में कन्या के साथ धोखे से शारीरिक संबंध बनाकर उसे मजबूर किया जाता है । दूसरे शब्दों में यह वस्तुतः दुष्कर्म पर आधारित है । आजकल कभी-कभी ऐसे मामले प्रकाश आ जाते हैं, जिसमें दुष्कर्म कर चुका व्यक्ति भुक्तभोगी के साथ विवाह कर लेता है । वह कानून से बचने के लिए अथवा आत्मग्लानि के अधीन ऐसा कर सकता है । – योगेन्द्र जोशी

मनुस्मृति के अनुसार विवाह के आठ प्रकार – ब्राह्म, दैव, आर्ष आदि (2)

अपनी पिछली पोस्ट (14 जनवरी) में मैंने इस बात का उल्लेख किया था कि धार्मिक कर्मकांडों एवं सामाजिक दायित्वों से संबंधित हिंदू ग्रंथ, मनुस्मृति, में आठ प्रकार के विवाहों का जिक्र है: ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस, और पैशाच । इनमें से ब्राह्म तथा दैव के बारे में उक्त पोस्ट में ही संक्षिप्त टिप्पणी की गई थी । यहां अगले तीन प्रकारों, आर्ष, प्राजापत्य एवं आसुर, को परिभाषित किया जा रहा है:

एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः ।

कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः सः उच्यते ॥29॥

(मनुस्मृति, अध्याय तीन)

(एकम् गोमिथुनम् द्वे वा वरात् आदाय धर्मतः विधिवत् कन्या-प्रदानम् सः धर्मः आर्षः उच्यते ।)

अर्थ – गाय-बैल के एक जोड़े को अथवा दो गायों या बैलों को धार्मिक कृत्य के लिए वर से स्वीकारते हुए समुचित विधि से किए गए कन्यादान को धर्मयुक्त ‘आर्ष’ विवाह कहा जाता है ।

ब्राह्म तथा दैव विवाह में वर को पूजते हुए आभूषण आदि भेंट किये जाते हैं, किंतु उसके विपरीत आर्ष में कन्यापक्ष वर से भेंट-स्वरूप गाय-बैल ग्रहण करता है । हां, उसका पर्याप्त सम्मान करते हुए कन्या प्रदान की जाती है । यहां कहे गये ‘धार्मिक कृत्य के लिए’ शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं है, अंदाजा ही लगाया जा सकता है । ‘समुचित विधि’ के अर्थ कदाचित यह होंगे कि परंपराओं के अनुरूप पूजा-पाठ संपन्न करते हुए वर को सम्मानित किया जाए । कदाचित उसे भेंट भी दी जाती हो । प्राचीन काल में भारतीय समाज कृषि पर आधारित था, जिसमें गाय-बैलों की निर्विवाद उपयोगिता होती थी । वर्तमान काल में गाय-बैलों की वैसी उपयोगिता रह नहीं गई है । अतः ठीक-ठीक इस रूप में आर्ष विवाह देखने को नहीं मिल सकता है । वर पक्ष से धन या अन्य वस्तुएं स्वीकारते हुए कन्या अर्पित करने की प्रथा कहीं-कहीं प्रचलित है । उसको आधुनिक आर्ष विवाह कहा जा सकता है ।

प्राजापत्य विवाह के बारे में मनुस्मृति में यह श्लोक उपलब्ध हैः

सहोभौ चरतां धर्ममिति वाचाऽनुभाष्य च ।

कन्याप्रदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधि स्मृतः ॥30॥

(यथा पूर्वोक्त)

(सह उभौ धर्मम् चरताम् इति वाचा अनुभाष्य अभि-अर्च्य च कन्या-प्रदानम् प्राजापत्यः विधिः स्मृतः ।)

अर्थ – विवाहोत्सुक स्त्री-पुरुष को वर-कन्या के रूप में स्वीकार कर “तुम दोनों मिलकर साथ-साथ धर्माचरण करो” यह कहते हुए और उनका समुचित रूप से स्वागत-सत्कार करते हुए वर को कन्या प्रदान करना ‘प्राजापत्य’ विवाह कहलाता है ।

आजकल कई युवक-युवतियां स्वयं ही वैवाहिक जीवन हेतु  एक-दूसरे का चुनाव कर लेते हैं, और उस निर्णय को अपने-अपने माता-पिता के समक्ष रखकर उनकी सहमति पाने की हर संभव कोशिश करते हैं । माता-पिता इच्छया अनिच्छया वा विवाह का शेष कार्य परंपरानुरूप संपन्न कर देते हैं, यथासंभव स्वागत-सत्कार एवं उपहार भेंट करते हुए । ऐसे विवाह को आधुनिक काल का  प्राजापत्य विवाह माना जा सकता है ।

ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः ।

कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते ॥31॥

(यथा पूर्वोक्त)

(ज्ञातिभ्यो कन्यायै च शक्तितः द्रविणम् दत्त्वा एव कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यात् आसुरः धर्मः उच्यते ।)

अर्थ – कन्यापक्ष के बंधु-बांधवों और स्वयं कन्या को वरपक्ष द्वारा स्वेच्छया एवं अपनी सामर्थ्य के अनुसार धन दिए जाने के बाद किये जाने वाले कन्यादान को धर्मसम्मत ‘आसुर’ विवाह कहा जाता है ।

आसुर विवाह एक अर्थ में दैव विवाह का उल्टा माना जा सकता है । दैव विवाह में परपक्ष को धन-आभूषण दिये जाते हैं, उसके विपरीत आसुर विवाह में वरपक्ष कन्यापक्ष को धन आदि देता है । समाज के कुछ तबकों में कदाचित आज भी ऐसे अल्पप्रचलित विवाह देखने को मिलते हैं । इसे भी धर्मसम्मत विवाह ही समझा जाता है ।

विवाह-प्रकारों की इस चर्चा में अंतिम तीन – गान्धर्व, राक्षस, और पैशाच – की चर्चा आगामी पोस्ट में की जाएगी । – योगेन्द्र जोशी

मनुस्मृति के अनुसार विवाह के आठ प्रकार – ब्राह्म, दैव, आर्ष आदि (1)

‘मनुस्मृति’ हिंदुओं का एक चर्चित  धर्मग्रंथ है । किंतु यह पर्याप्त विवादास्पद भी है, क्योंकि कई हिंदू इसमें लिखी बातों से सहमत नहीं होते, अपितु उनकी आलोचना ही करते हैं । मेरे मत में उसकी सभी बातें अस्वीकार्य ही हों ऐसा नहीं है जैसा कि इस ब्लॉग की पूर्ववर्ती एक पोस्ट से स्पष्ट होता है । उस में बहुत-सी बातों को तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं का प्रतिबिंबन कहा जा सकता है । ग्रंथ में मुझे उस समय प्रचलित विवाह विधियों के प्रकार – धर्मवेत्ता ऋषि मनु के अनुसार आठ प्रकार – का विवरण पढ़ने को मिला हैं । उन्हीं को मैं आगे प्रस्तुत कर रहा हूं ।

इस संदंर्भ में मनुस्मृति का पहला श्लोक अधोलिखित है:

ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः ।

गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः ॥21॥

(मनुस्मृति, अध्याय तीन)

(ब्राह्मः दैवः तथा एव आर्षः प्राजापत्यः तथा आसुरः गान्धर्वः राक्षसः च एव अष्टमः च अधमः पैशाचः ।)

अर्थ – विवाह आठ प्रकार के होते हैं जो क्रमशः ये हैं: ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस, और आठवां निकृष्टतम श्रेणी का पैशाच ।)

इनमें से पहला, ब्राह्म, इस तरह परिभाषित किया गया है:

आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम् ।

आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः ॥27॥

(यथा पूर्वोक्त)

(स्वयम् आहूय आच्छाद्य च अर्चयित्वा च श्रुतिशीलवते कन्यायाः दानम् धर्मः ब्राह्मः प्रकीर्तितः ।)

अर्थ – वेदों-शास्त्रों का अध्ययन जिसने किया हो ऐसे वर को स्वयमेव आमंत्रित करके, उसे वस्त्र-आभूषण आदि अर्पित करके, और समुचित रूप से पूजते हुए कन्या का सोंपा जााना धर्मयुक्त  ‘ब्राह्म ’विवाह कहलाता है ।

आजकल वेदों-शास्त्रों के अध्येता तो न ढूढ़ा जाता है और न ही कोई मिलता है । कहीं यदि मिले तो अपवाद ही कहा जाएगा । इसलिए सही अर्थों में ब्राह्म विवाह अब कहीं देखने को नहीं मिलता है । अधिकांश मौकों पर आज भी सुशिक्षित वर खोजा जाता है जो बारात लेकर कन्यापक्ष के पास पहुंचता है । वेदमंत्रों के उच्चारण के साथ कन्यादान किया जाता है । उसे वस्त्रादि भी भेंट किये जाते हैं । उक्त विवरण में पूजने का अर्थ उसके स्थानीय परंपराओं के अनुरूप स्वागत-सत्कार से लिया जाना चाहिए । इस प्रकार संपन्न विवाह को ब्राह्म विवाह के निकट माना जा सकता है ।

यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते ।

अलङ्कृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते ॥28॥

(यथा पूर्वोक्त)

(यज्ञे तु सम्यक् वितते कर्म कुर्वते ऋत्विजे अलङ्कृत्य सुता-दानम् धर्मं दैवम् प्रचक्षते ।)

अर्थ – यज्ञ-कर्म चल रहा हो तो उसमें वेदमंत्रों के उच्चारण का कार्य कर रहे ऋत्विज को वर रूप में चुनते हुए और उसे आभूषण आदि से सुसज्जित करते हुए कन्या समर्पित करना  ‘दैव’ विवाह कहलाता है ।

प्राचीन काल में यज्ञकर्म आम प्रचलन में थे, जिसमें वेदज्ञ पंडितवृंद भाग लेते थे । यज्ञ करना-करवाना ब्राह्मणों के कर्म होते थे । वैदिक मंत्रों के साथ उसे संपादित करने वाले ऋत्विज कहलाते थे । उस काल में वर के तौर पर वे सुयोग्य समझे जाते होंगे । कन्या की अपेक्षा रखने वाला व्यक्ति ऐसे अवसरों पर वर के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते होंगे । वर की खोज कर रहे माता-पिता ऐसे वरों को कन्यादान करके अपनी पुत्रियों का विवाह संपन्न करते होंगे । दैव विवाह ब्राह्म विवाह से मिलता-जुलता माना जा सकता है, क्योंकि इसमें भी वेदों-शास्त्रों के अध्येता वर को चुना जाता है । शेष कार्य वैसा ही रहता होगा ।

आर्ष आदि अन्य प्रकार के विवाहों की चर्चा अगली पोस्ट में । – योगेन्द्र जोशी

दरिद्रता के (कु)परिणाम – संस्कृत नाट्य ‘मृच्छकटिकम्’ में चारुदत्त के नैराश्य की अभिव्यक्ति

‘मृच्छकटिकम्’ संस्कृत साहित्य की एक चर्चित नाट्य-रचना है, जिसके बारे में मैं पहले अन्यत्र लिख चुका हूं (देखें दिनांक 26-9-2010 एवं 11-2-2009 की प्रविष्ठियां) ।

उसका नायक अभिजात वर्ग का एक उदार एवं सरलहृदय ब्राह्मण है, जो अति दानशीलता के कारण अपनी संपन्नता खो बैठता है । नाटक में एक प्रसंग है जिसके अंतर्गत चारुदत्त को गरीबी पर अपने मित्र के साथ निराशाप्रद टिप्पणी करते हुए दिखाया गया है । अपने उद्गार को वह इस प्रकार प्रस्तुत करता हैः-

दारिद्र्यात् पुरुषस्य बान्धवजनो वाक्ये न सन्तिष्ठते ।
सुस्निग्धा विमुखीभवन्ति सुहदः स्फारीभवन्त्यापदः ।
सत्त्वं ह्रासमुपैति शीलशालिनः कान्तिः परिम्लायते ।
पापं कर्म च यत्परैरपि कृतं तत्तस्य संभाव्यते ॥36॥
(मृच्छकटिकम्, प्रथम अंक)
(दारिद्र्यात् पुरुषस्य बान्धव-जनः वाक्ये न सम्-तिष्ठते; सु-स्निग्धा विमुखी-भवन्ति सुहदः स्फारी-भवन्ति आपदः; सत्त्वं ह्रासम् उप-एति; शील-शालिनः कान्तिः परि-म्लायते; पापं कर्म च यत् परैः अपि कृतं तत् तस्य संभाव्यते ।)

अर्थ – आर्थिक हीनावस्था में पहुंचने पर उस गरीब की बात निकट संबंधी नहीं सुनता; जो हितैषी पहले सौहार्द भाव से पेश आते थे वे भी मुख मोड़ लेते हैं; विपत्तियां बढ़ जाती हैं; व्यक्ति की सामर्थ्य चुक जाती है; चरित्र एवं शालीनता की चमक फीकी पड़ जाती है; और दूसरों के हाथों घटित पापकर्म भी अब उसके द्वारा किये गये समझे जाने लगते हैं (उस पर संदेह किया जाता है) ।

सङ्गं नैव हि कश्चिदस्य कुरुते सम्भाषते नादरात् ।
सम्प्राप्तो गृहमुत्सवेषु धनिनां सावज्ञमालोक्यते ।
दूरादेव महाजनस्य विहरत्यल्पच्छदो लज्जया ।
मन्ये निर्धनता प्रकाममपरं षष्ठं महापातकम् ॥37॥
(यथा उपर्युक्त)
(सङ्गं न एव हि कश्चित् अस्य कुरुते सम्-भाषते न आदरात्; सम्-प्राप्तः गृहम् उत्सवेषु धनिनां स-अवज्ञम् आलोक्यते; दूरात् एव महाजनस्य विहरति अल्प-च्छदः लज्जया; मन्ये निर्धनता प्रकामम् अपरं षष्ठं महा-पातकम् ।)

अर्थ – आर्थिक विपन्नता झेल रहे व्यक्ति के सान्निध्य से लोग बचते हैं; कोई भी आदर के साथ बात नहीं करता है; उत्सव के अवसर पर किसी धनी के घर पहुंचा ऐसा व्यक्ति संपन्न जनों द्वारा तिरस्कार भाव से देखा जाता है; प्रतिष्ठासूचक परिधान के अभाव में लज्जा या संकोच से ग्रस्त ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ माने जाने वाले के पास से बचकर निकलता है । मैं मानता हूं कि निर्धनता गंभीर छठा महापातक है ।

मनुस्मृति में पांच महापातकों अर्थात् गंभीरतम पापों का उल्लेख किया गया है, जिनमें प्रथम चार हैं: 1. ब्रह्महत्या (ब्राह्ण की हत्या), 2. सुरापान (शराब पीना), 3. चोरी, एवं 4. गुरुपत्नी के साथ संबंध, और 5वां है इन चार प्रकार के पापकर्मों में लिप्त व्यक्ति के साथ अंतरंगता । मृच्छकटिकम् का नायक कहता है कि निर्धनता स्वयं में एक महापाप है जिसे छठा महापाप कहना चाहिए । (आजकल इन पापकर्मों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है, खास तौर पर पांचवे को । किसी अपराधी के साथ संबंधों की व्यक्ति-स्वातंत्र्य के नाम पर छूट आम बात है ।)

धन की महत्ता मानव समाज में सर्वत्र एवं सदैव ही रही है । रामायण-महाभारत ग्रंथों में भी धन की महत्ता की चर्चा पढ़ने को मिल जाती है । मृच्छकटिकम्, जिसका रचनाकाल अनुमानतः 5-6 ईसवी  समझा जाता है, तब की सामाजिक दिशा-दशा का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है । ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल में मनुष्य की आर्थिक संपन्नता उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा निर्धारित करती थी । मेरा मत है कि प्राचीन काल में व्यक्ति के गुणों की अनदेखी नहीं होती थी, और उसका सम्मान उसकी विद्वता, चरित्र एवं परोपकारशीलता पर अधिक निर्भर करता था । किंतु आज के युग में ये बातें गौण होती जा रही हैं । आज धनसंपदा महत्ता में सर्वोपरि है, भले ही हम अन्य बातों के महत्त्व को औपचारिकतावश स्वीकारने का ढोंग करते हों । आजकल ‘हाय पैसा, हाय पैसा’ की भावना के साथ अधिकाधिक पैसा कमाने की होड़ हमारी धनलिप्सा को ही प्रतिबिंबित करता है । जो अपेक्षया निर्धन हो उसको हम बराबरी का दर्जा नहीं देते; उससे दूरी बनाने की कोशिश करते हैं; अपने संबंध बराबर अथवा अपने से ऊपर के व्यक्ति से साथ स्थापित करने का प्रयास करते हैं । उपरिलिखित छंदों में चारुदत्त की तत्संबंधित पीड़ा ही झलकती है । – योगेन्द्र जोशी

‘सर्वो दण्डजितो लोको …’ – मनुस्मृति में वर्णित शासकीय दण्ड की महत्ता

मनुस्मृति हिंदू समाज का एक प्राचीन ग्रंथ है, जिसमें मनुष्य के कर्तव्यों का विवरण प्रस्तुत किया गया है । बहुत-से लोगों की दृष्टि में यह एक विवादास्पद ग्रंथ है, क्योंकि यह वर्ण-व्यवस्था का पक्षधर है और स्त्री को पुरुष के एकदम बराबर का दर्जा नहीं देता है, यद्यपि स्त्री को सम्मान का हकदार बताता है । समाज के प्रति मनुष्य के कर्तव्यों, शासकीय प्रबंधन और न्यायिक व्यवस्था के बाबत इस ग्रंथ में जो बातें लिखी गयी हैं वे तर्कसंगत एवं शाश्वत रूप से प्रासंगिक हैं । उक्त स्मृति की कुछ बातें भले ही लोगों के गले न उतरें, किंतु अधिकांश बातों का विरोध नहीं किया जा सकता है । उन्हें न स्वीकारना मेरे मत में दुराग्रह माना जाना चाहिए । अस्तु, अपराध को नियंत्रण में रखने के समुचित दण्ड का प्रयोग अत्यावश्यक है इस बात पर इस ग्रंथ में जोर दिया गया है । न्याय संबंधी बहुत सी बातें ग्रंथ के अध्याय 7 में पढ़ने को मिलती हैं । दण्ड की महत्ता को प्रतिपादित करने वाले चुने हुए 5 श्लोकों का मैं इस स्थल पर उल्लेख कर रहा हूं:

(सभी श्लोक मनुस्मृति, अध्याय ७ से उद्धृत)

यदि न प्रणयेद्राजा दण्डं दण्ड्येष्वतन्द्रितः ।
शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः ॥२०॥
(यदि न प्रणयेत् राजा दण्डम् दण्ड्येषु अतन्द्रितः शूले मत्स्यान् इव अपक्ष्यन् दुर्बलान् बलवत्तराः ।)
भावार्थः यदि राजा दण्डित किए जाने योग्य दुर्जनों के ऊपर दण्ड का प्रयोग नहीं करता है, तो बलशाली व्यक्ति दुर्बल लोगों को वैसे ही पकाऐंगे जैसे शूल अथवा सींक की मदद से मछली पकाई जाती है ।

कहने का तात्पर्य है कि समुचित सजा का कार्यान्वयन न होने पर  बलहीन लोगों पर बलशाली जन अत्याचार करेंगे । ध्यान रहे कि अत्याचार करने वाले शक्तिशाली होते हैं; वे धनबल, बाहुबल, शासकीय पहुंच आदि के सहारे अपनी मर्जी से चलने वाले होते हैं, और निर्बलों को कच्चा चबा जाने की नीयत रखते हैं । आज के सामाजिक माहौल में ऐसा सब हो रहा है यह हम सभी देख रहे हैं । दण्डित होने का भय दुर्जनों को रोकता है । नीति कहती है कि राजा का कर्तव्य है कि अपराधी को दण्ड देने में उसे रियायत तथा विलंब नहीं करना चाहिए । दुर्भाग्य से अपने देश में दण्ड देने की प्रक्रिया कमोबेश निष्प्रभावी है, कम के कम रसूखदार लोग तो दण्डित हो ही नहीं रहे है, और उनका मनोबल चरम पर है ।

आज के लोकतांत्रिक युग में पारंपरिक अर्थ में राजा नहीं रहे । उनका स्थान शासकवर्ग न ले लिया है । एक से अधिक व्यक्तियों का समूह राजा का स्थान ले चुका है । सिद्धांततः राजा के अधिकार उन्हें मिल चुके हैं, और राजा के कर्तव्यों का निर्वाह भी उन्हीं के जिम्मे है । अधिकारों के मामले में तो वे काफी आगे हैं, किंतु दायित्वों के क्षेत्र में उनका कार्य चिंताजनक है । उन्होंने दण्ड की प्रक्रिया को पेचीदा, समयासाध्य, अपराधी के प्रति नरमी वाला बना डाला है, इसलिए दिन प्रतिदिन अपराध बढ़ रहे हैं ।

सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः ।
दण्डस्य हि भयात्सर्वं जगद्भोगाय कल्पते ॥२२॥
(सर्वः दण्डजितः लोकः दुर्लभः हि शुचिः नरः दण्डस्य हि भयात् सर्वम् जगद् भोगाय कल्पते ।)
भावार्थः यह संसार दण्ड के द्वारा ही जीते जाने योग्य है, अर्थात् दण्ड के द्वारा ही इसे नियंत्रण में रखा जा सकता है । ऐसा व्यक्ति दुर्लभ है जो स्वभाव से ही साफ-सुथरा एवं सच्चरित्र हो, न कि दण्ड के भय से । दण्ड के भय से ही वह व्यवस्था बन पाती है जिसमें लोग अपनी संपदा का भोग कर पाते हैं ।

मतलब यह है कि अधिकतर लोग दण्डित होने के भय से ही अपराध या अनुचित कार्यों से विरत रहते हैं । अगर दण्डित होने का भय समाज में न हो तो चारों ओर दुर्व्यवस्था फैल जाए, लूटपाट मचने लगेगी, और अपनी ही संपदा का भोग लोग नहीं कर पायेंगे; दूसरे उस पर कब्जा कर लेंगे ।

यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा ।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति ॥२५॥
(यत्र श्यामः लोहिताक्षः दण्डः चरति पापहा प्रजाः तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधु पश्यति ।)
भावार्थः जहां श्याम वर्ण एवं लाल नेत्रों वाला और पापों (पापियों?) का नाश करने वाला ‘दण्ड’ विचरण करता है, और जहां शासन का निर्वाह करने वाला उचितानुचित का विचार कर दण्ड देता है वहां प्रजा उद्विग्न या व्याकुल नहीं होती ।

दण्ड कोई मूर्तिमन्त वस्तु नहीं है, यह तो एक भाव है, अमूर्त अवधारणा है । किंतु शास्त्रों में उसका वर्णन काले (डरावने) और लाल-लाल आंखों वाली भौतिक जीवंत सत्ता के तौर पर किया गया है । यह दण्ड के भयकारक स्वरूप को प्रस्तुत करने का तरीका है, जिसे शब्दशः ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है । कहने का प्रयोजन मात्र यह है कि दण्ड वैसा ही भयजनक है जैसे कोई मतिमान् डरावना पशु आपके समक्ष खड़ा हो जाए । यानी दण्ड का विचार व्यक्ति को भयभीत कर सके, इसलिए ऐसा वर्णन प्रस्तुत है । जहां नेता अपराधी को ऐसे दण्ड का भय दिखाए वहां शेष प्रजा निडर रह सकती है ।

तस्याहुः सम्प्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम् ।
समीक्ष्यकारिणं प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम् ॥२६॥
(तस्य आहुः सम्प्रणेतारम् राजानम् सत्य-वादिनम् समीक्ष्य-कारिणम् प्राज्ञम् धर्म-काम-अर्थ-कोविदम् ।)
भावार्थः दुर्जनों पर ऐसे दण्ड का प्रयोग करने वाले राजा को सत्यवादी, सोच-विचारकर कार्य करने वाला, बुद्धिमान्, और धर्म, काम एवं अर्थ की समझ रखने वाला कहा गया है ।

धर्म, काम एवं अर्थ को शास्त्रों में ‘त्रिवर्ग’ की संज्ञा दी गयी है । सांसारिक जीवन इन तीनों के चारों ओर केंद्रित रहता है । ‘अर्थ’ से तात्पर्य है धनसंपदा जिसके बल पर ‘काम’ अर्थात् भौतिक कामनाओं एवं सुखसुविधाओं का भोग व्यक्ति द्वारा किया जाता है, और जिससे दान, पुण्य, जनसेवा आदि जैसे ‘धर्म’ के कार्य संपन्न किए जाते है । इन तीनों में संतुलन बनाए रखकर जीवन यापन करना सामान्य व्यक्ति का कर्तव्य माना गया है । उक्त श्लोक के अनुसार न्यायप्रिय राजा त्रिवर्ग को ठीक-से समझने वाला कहा जाएगा ।

तं राजा प्रणयन्सम्यक् त्रिवर्गेणाभिवर्धते ।
कामात्मा विषमः क्षुद्रो दण्डेनैव निहन्यते ॥२७॥
(तम् राजा प्रणयन् सम्यक् त्रिवर्गेण अभिवर्धते काम-आत्मा विषमः क्षुद्रः दण्डेन एव निहन्यते ।)
भावार्थः उस दण्ड का समुचित प्रयोग करने वाला राजा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) की दृष्टि से समृद्ध होता है । अर्थात् न्याय के मार्ग पर चलने वाले राजा को आर्थिक संपन्नता के साथ सुखभोग और धर्म-संपादन में सफलता मिलती है । इसके विपरीत जो राजा भोगविलास या सत्तासुख में डूबा रहता है, जो लोगों के प्रति असमान या गैरबराबरी (अन्यायपूर्ण) का बरताव करता हो, और जो नीच स्वभाव का हो, वह उसी दण्ड के द्वारा मारा जाता है ।

कहने का तात्पर्य यह है कि जो राजा दण्ड के योग्य व्यक्तियों को दण्डित नहीं करता है वह कालांतर में उन्हीं दुर्जनों के कारण सत्ताच्युति का भागीदार बनता है । वर्तमान परिप्रेक्ष में राजा के माने हैं शासकीय व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे लोग जो राजकाज चलाते हैं । उनका आचरण ही न्याय की दिशा निर्धारित करता है ।

यह अपने देश का दुर्भाग्य है कि इसकी न्यायिक व्यवस्था प्रायः विफल हो चुकी है । लोगों के मन से दण्डित होन का भय समाप्त होता जा रहा है । वे आश्वस्त होते जा रहे हैं कि अपराध करने के बावजूद वे दण्ड से बचे रहेंगे ।योगेन्द्र जोशी

“यः अर्थे शुचिः हि सः शुचिः … ” – मनुस्मृति में स्वच्छता-शुद्धता-शुचिता संबंधी वचन

मनुस्मृति नामक ग्रंथ में मनुष्य के आचरण के संबंध में बहुत सी बातें कही गयी हैं, सामाजिक जीवन में जिनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है । ग्रंथ के पांचवें अध्याय में शुचितापूर्ण आचरण का अर्थ स्पष्ट किया गया है । ग्रंथकार के अनुसार बाह्य दिखावटी स्वच्छता से कहीं अधिक महत्त्व आंतरिक अर्थात् मन और बुद्धि के स्तर की स्वच्छता का है । अध्याय के 4 श्लोक मुझे विशेष रूप से अर्थपूर्ण लगे । मैं अधोलिखित उन श्लोकों का उल्लेख कर रहा हूं । (मनुस्मृति, पञ्चम अध्याय, श्लोक 106-9)

सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् ।

योऽर्थे शुचिर्हि सः शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः ॥106॥

(सर्वेषाम् एव शौचानाम् अर्थ-शौचं परं स्मृतम्, यः अर्थे शुचिः हि सः शुचिः न मृद्-वारि-शुचिः शुचिः ।)

सभी शौचों, शुचिताओं, यानी शुद्धियों में धन से संबद्ध शुचिता ही वास्तविक शुद्धि है । मात्र मृदा-जल (मिट्टी एवं पानी) के माध्यम से शुद्धि प्राप्त कर लेने से कोई वास्तविक अर्थ में शुद्ध नहीं हो जाता ।

मनुष्य की अशुद्धि के कई पहलू होते हैं । एक तो सामान्य दैहिक स्तर की गंदगी होती है, जिसे हम मिट्टी, राख, अथवा साबुन जैसे पदार्थों एवं पानी द्वारा स्वच्छ करते हैं । उक्त नीति वचन का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की शुचिता केवल सतही है । ऐसी शुद्धि अवश्य वांछित है किंतु इससे अधिक महत्त्व की बात है धन संबंधी शुचिता । वही व्यक्ति वस्तुतः शुद्धिप्राप्त है जिसने धनार्जन में शुचिता बरती हो । अर्थात् जिसने औरों को धोखा देकर, उन्हें लूटकर, उनसे घूस लेकर अथवा ऐसे ही उल्टे-सीधे तरीके से धनसंग्रह न किया हो ।

क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः ।

प्रछन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः ॥107॥

(क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसः दानेन अकार्य-कारिणः प्रछन्न-पापा जप्येन तपसा वेद-वित्तमाः ।)

विद्वज्जन क्षमा से और अकरणीय कार्य कर चुके व्यक्ति दान से शुद्ध होते हैं । छिपे तौर पर पापकर्म कर चुके व्यक्ति की शुद्धि मंत्रों के जप से एवं वेदाध्ययनरतों का तप से संभव होती है ।

मुझे लगता है कि इस वचन के अनुसार क्रोध एवं द्वेष जैसे मनोभाव विद्वानों की शुचिता समाप्त कर देते हैं । इनसे मुक्त होने पर ही विद्वद्गण की शुद्धि कही जाएगी । क्षमादान जैसे गुणों को अपनाकर वे शुद्धि प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार अनुचित कार्य करने पर दान करके व्यक्ति अपने को शुद्ध करता है । धर्म की दृष्टि से पाप समझे जाने वाले कर्म करने वाले के लिए शास्त्रों में वर्णित मंत्रों का जाप शुद्धि के साधन होते हैं और वेदपाठ जैसे कार्य में लगे व्यक्ति के दोषों के मुक्ति का मार्ग तप में निहित रहता है । इन सब बातों में प्रायश्चित्त की भावना का होना आवश्यक है । ऐसे कार्यों का संपादन मात्र सतही तौर पर किया जाना शुद्धि नहीं दे सकता है ऐसा मेरा मत है । मन में स्वयं को दोषमुक्त करने का संकल्प ही शुद्धि प्रदान करेगा ।

मृत्तोयैः शुद्ध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुद्ध्यति ।

रजसा स्त्री मनोदुष्टा सन्न्यासेन द्विजोत्तमः ॥108॥

(मृत्-तोयैः शुद्ध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुद्ध्यति रजसा स्त्री मनः-दुष्टा सन्न्यासेन द्विज-उत्तमः ।)

पदार्थगत भौतिक अस्वच्छता स्वच्छ मिट्टी एवं जल के प्रयोग से दूर होती है और नदी अपने प्रवाह से ही शुद्ध हो जाती है । मन में कुविचार रखने वाली स्त्री की शुद्धि रजस्राव में निहित रहती है तो ब्राह्मण की शुद्धि संन्यास में निहित रहती है ।

पदार्थगत गंदगी (यथा भोजन की जूठन, कीचड़, विष्टा आदि) को मिट्टी (स्वच्छ मिट्टी, राख, साबुन आदि) एवं जल के माध्यम से साफ की जाती है । नदी की गंदगी उसके प्रवाह से स्वयं ही साफ हो जाती है । उसकी शुद्धि के लिए उसके प्रवाह को न रोकना ही पर्याप्त है । उसका थमा हुआ जल यथावत् अस्वच्छ बना रहता है । मन में परपुरुषों से संबंध पालने वाली दूषित विचारों वाली स्त्री की शुद्धि उसके मासिक रजस्राव के साथ होती है यह मान्यता यहां पर उल्लिखित है । इस वचन का ठीक-ठीक तात्पर्य मेरे समझ में नहीं आ सका है । कुछ भी हो इसी प्रकार की बात पुरुषों के मामले में भी होनी चाहिए । और अंत में यह कहा गया है कि उत्तम ब्राह्मण संन्यास के माध्यम से शुचिता प्राप्त करता है । शास्त्रीय मत के अनुसार संन्यासव्रत ब्राह्मण के जीवन का अंतिम कर्तव्य है । मेरे मत में संन्यास का अर्थ भगवा वस्त्र धारण करना नहीं है, बल्कि लोभ-लालच एवं संग्रह की भावना को त्यागना है । व्यक्ति को अपने घर-परिवार के दायित्व को पूर्ण करने के बाद त्याग का संकल्प ले लेना चाहिए; उसी में उसका शौच निहित है ।

अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।

विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति ॥109॥

(अद्भिः गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति विद्या-तपोभ्यां भूत-आत्मा बुद्धिः ज्ञानेन शुद्ध्यति ।)

शरीर की शुद्धि जल से होती है । मन की शुद्धि सत्य भाषण से होती है । जीवात्मा की शुचिता के मार्ग विद्या और तप हैं । और बुद्धि की स्वच्छता ज्ञानार्जन से होती है ।

शारीरिक गंदगी साबुन-शैंपू प्रयोग में लेते हुए जल से धोकर छुड़ाई जाती है । इस स्वच्छता को पाने के लिए सभी लोग यत्नशील रहते हैं । किंतु यह पर्याप्त नहीं है । मन में सद्विचार पालने और सत्य का उद्घाटन करके मनुष्य मानसिक शुचिता प्राप्त करता है । सफल परलोक पाने के लिए जीवात्मा को शौचशील होना चाहिए और उसकी शुचिता विद्यार्जन एवं तपश्चर्या से संभव होती है । (मान्यता यह है कि देहावसान पर प्राणी स्थूल शरीर छोड़ता है और उसका सूक्ष्म शरीर प्रेतात्मा के रूप में विचरण करता रहता है । यही प्रेतात्मा कालांतर में नया देह धारण करता है ।) और मनुष्य की बुद्धि का शोधन ज्ञान से होती है । व्यक्ति की बुद्धि उचित अथवा अनुचित, दोनों ही, मार्गों पर अग्रसर हो सकती है । समुचित ज्ञान द्वारा मनुष्य सही दिशा में अपनी बुद्धि लगा सकता है । यही उसकी शुचिता का अर्थ लिया जाना चाहिए है । – योगेन्द्र जोशी