संस्कृत छंदों के उल्लेख करने में त्रुटियां – एक दृष्टांत: “मंगलम् भगवान …”

हिंदू परिवारों के धार्मिक कर्मकांडों के निमंत्रणपत्रों पर अक्सर देव-वंदना के छंद मुद्रित देखने को मिलते हैं । कम से कम उत्तर भारतीयों में तो यह परंपरा प्रचलित है ही । चूंकि शुभकार्यों का आरंभ गणेश-पूजन से होता है, अतः गणेश-वंदना के छंदों का प्रयोग सर्वाधिक मिलता है । कतिपय छंदों के उल्लेख के साथ इस विषय की चर्चा मैंने अपने हाल के ब्लाग-प्रविष्टियों (क्लिक करें) में की है । मुझे मिलने वाले निमंत्रणपत्रों पर यदाकदा विष्णु-वंदना के श्लोक भी पढ़ने को मिलते हैं । एक श्लोक, जिसका उल्लेख संभवतः सर्वाधिक किया जाता है, को इस लेख के आंरभ में चित्र में दिया गया है, जिसे मैंने किसी निमंत्रणपत्र से ही स्कैन किया है । मैं इसको दुबारा सामान्य पाठ के रूप में यथावत् (प्रस्तुत चित्र में जैसा है) आगे लिख रहा हूं:

मंगलम् भगवान विष्णुः, मंगलम् गरूणध्वजः ।

मंगलम् पुण्डरी काक्षः, मंगलाय तनो हरिः ॥

इस स्थल पर मेरा मुख्य उद्येश्य इस छंद की व्याख्या करना अथवा इसकी उपयोगिता/अर्थवत्ता स्पष्ट करना नहीं है । मैं यह बताना चाहता हूं कि कई बार लोग संस्कृत मंत्रों/छंदों का दोषपूर्ण पाठ लिखते हैं और वैसा ही दोषपूर्ण उच्चारण करते हैं । आगे कुछ कहूं इसके पहले इस श्लोक को लिखने में कौन-कौन-सी त्रुटियां मेरी दृष्टि में आई हैं उन्हें बता दूं । एक त्रुटि तो यह है कि गरुण शब्द के बदले गरुड होना चाहिए । इसे मैं टाइप करने में गलती मान लेता हूं । इसके अतिरिक्त मैं दो प्रकार की त्रुटियां देखता हूं: पहले वे जो गंभीर हैं और अर्थ का अनर्थ कर सकती हैं, या श्लोक को निरर्थक बना देती हैं । दूसरे वे जो संस्कृत के छंदों को लिपिबद्ध करने के नियमों अथवा परंपराओं के अनुसार नहीं हैं ।

पहले प्रकार के दोष स्पष्ट कर दूं । उक्त श्लोक के तीसरे चरण में ‘पुण्डरी काक्षः’ लिख गया है । ऐसा लगता है कि मानो ‘पुण्डरी’ एवं ‘काक्षः’ दो शब्द हैं । क्या अर्थ हैं इन शब्दों के ? सही शब्द (वस्तुतः पदबंध) ‘पुण्डरीकाक्षः’ है, जो दरअसल दो शब्दों के संयोग और संधि (दीर्घसंधि) से बना है:

पुण्डरीकाक्षः = पुण्डरीक+अक्षः

‘पुण्डरीक’ का अर्थ है ‘श्वेत कमल’ और अक्ष का अर्थ है इंद्रिय; यह बहुधा नेत्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है । बहुब्रीहि समास के अंतर्गत रचे गये इस संयुक्त शब्द का अर्थ है ‘श्वेत कमल के समान नेत्र वाला’ । संस्कृत साहित्य में उपमा देने के अपने तरीके हैं । कमलनयन या कमलनेत्र जैसे शब्दों का प्रयोग सौंदर्य-वर्णन में आम रहा है । वही यहां पर किया गया है । लेकिन अगर आप ‘पुण्डरी काक्षः’ लिखते हैं, तो ये शब्द अर्थहीन हो जाते हैं ।

दूसरा दोष है ‘मंगलाय तनो’ में । यह शब्द भी वस्तुतः एक सामासिक संयुक्त पदबंध है । वस्तुतः यह ‘मंगलायतनः’ है जिसका ‘नः’ संधि के नियमों के तहत श्लोक में आगे ‘हरिः’ शब्द की मौजूदगी के कारण ‘नो’ लिखा जाता है । अतः ‘नो’ लिखा जाना तो सही है, किंतु इसे दो हिस्सों में तोड़ कर नहीं लिखा जा सकता है । कहने का अर्थ यह है कि ‘मंगलायतनो’ के स्थान पर ‘मंगलाय’ + ‘तनो’ लिखने पर उसका वांछित अर्थ समाप्त हो जाता है । अगर इसे टुकड़ों में लिखा ही जाना हो (जिसकी श्लोक-लेखन में अनुमति नहीं) तब इसे ‘मंगल आयतनो’ लिखा जा सकता था । वास्तव में

मंगलायतनः = मंगल+आयतनः

मंगल का अर्थ है शुभ फल और आयतन का अर्थ है आश्रय, शरणस्थली अथवा रहने का स्थान, आदि । अतः ‘मंगलायतनः’ का तात्पर्य है शुभ फलों का घर, भंडार या प्राप्तिस्थल

अब मैं उक्त श्लोक में विद्यमान उन त्रुटियों की ओर इशारा करता हूं जो श्लोक के अर्थ को प्रभावित तो नहीं करते, परंतु संस्कृत छंदों के लेखन में प्रचलित नियमों के अनुरूप नहीं हैं । संस्कृत के ज्ञाता इस प्रकार की त्रुटियों से बचने का प्रयास अवश्य करते होंगे । मेरी नजर में आई त्रुटियां ये हैं:

1. श्लोक में सर्वत्र ‘मंगल’ के स्थान पर ‘मङ्गल’ लिखा जाना चाहिए । संस्कृत में किसी शब्द के अंतर्गत वर्णमाला के कवर्ग से पवर्ग तक के वर्णों (अर्थात् ‘क’ से ‘म’ तक के वर्ण) के पूर्व अनुस्वार नहीं लिखा जाता है, बल्कि उसके स्थान पर संबंधित वर्ग का पांचवां वर्ण लिखा जाता है, जैसे कङ्कण (कड़ा या चूड़ी), कञ्चन (स्वर्ण), कण्टक (कांटा), कन्दर (गुफा), कम्पन (कांपना), आदि । शब्दों के अंतर्गत अनुस्वार का प्रयोग य से ह तक के वर्णों के पूर्व किया जाता है, यथा कंस, दंश, संयम, आदि ।

2. यद्यपि ‘मङ्गलम्’ स्वयं में सही है और गद्य में इसे लिखा भी जाता है, किंतु संस्कृत व्याकरण के संधि के नियमों के अनुसार उक्त श्लोक में इसे ‘मङ्गलं’ लिखा जाना चाहिए । नियम यह है कि यदि छंदों के किसी पद के अंत में ‘म्’ हो और उसके पश्चात् व्यंजन से आरंभ होने वाला पद हो तो ‘म्’ को अनुस्वार लिख जाना चाहिए । और यदि इसके पश्चात् स्वर वर्ण हो तो ‘म्’ ही लिखा जाना चाहिए । ध्यान दें कि उक्त श्लोक में ‘म्’ के आगे तीनों स्थलों पर क्रमशः ‘भ’, ‘ग’, एवं ‘पु’ (व्यंजन) विद्यमान हैं ।

3. संस्कृत में ‘भगवान्’ (हलंत ‘न’) शब्द है न कि ‘भगवान’ । यह संज्ञाशब्द ‘भगवत्’ का प्रथमा विभक्ति (कर्ता कारक, nominative case) का एकबचन में विभक्ति रूप है । अतः श्लोक में यही लिखा होना चाहिए ।

4. अंत में यह भी बताना भी आवश्यक है कि संस्कृत में विरामचिह्न कॉमा के प्रयोग की परंपरा नहीं है । अब कुछ लोग उसका प्रयोग करने लगे हैं । स्पष्टता के लिए गद्य-लेखन में इसका प्रयोग अब होने लगा है । लेकिन प्राचीन रचनाओं की मौलिकता को यथासंभव बनाए रखा जाना चाहिए । तदनुसार उक्त श्लोक में इसका प्रयोग न करना समीचीन होगा ।

ये चार त्रुटियां गंभीर नहीं हैं, किंतु छंद की शुद्धता के लिए इनसे बचा जाना चाहिए । किंतु पहले जिन त्रुटियों की बात की है, वे निःसंदेह गंभीर एवं अक्षम्य हैं । इन बातों को ध्यान में रखते हुए श्लोक यों लिखा जाना चाहिए:

मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरूडध्वजः ।

मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मंगलायतनो हरिः ॥

(भगवान् विष्णु मंगल हैं, गरुड़ वाहन वाले मंगल हैं, कमल के समान नेत्र वाले मंगल हैं, हरि मंगल के भंडार हैं । मंगल अर्थात् जो मंगलमय हैं, शुभ हैं, कल्याणप्रद हैं,  जैसे समझ लें ।)

अपनी बात समाप्त करने से पहले एक टिप्पणी करनी है । लोगों का संस्कृत-ज्ञान आम तौर पर शून्य या कम रहता है । ज्ञान न होना कोई अनुचित बात नहीं है । किंतु जब किसी अवसर पर संस्कृत का प्रयोग किया जा रहा हो तो इतना जानने की उत्कंठा तो होनी ही चाहिए कि लिखित पाठ का अर्थ क्या है और वह शुद्ध लिखा जा रहा है कि नहीं । मुझे लगता है कि लोग इस मामले में लापरवाह होते हैं । अधिक चिंताजनक पक्ष यह है कि पुरोहितगण भी इन बातों पर गौर नहीं करते है । मुझे तो इस बात की शंका रहती है कि उन लोगों को संस्कृत का समुचित ज्ञान होता भी है कि नहीं । बहुत संभव है कि उनमें से अधिकतर रट-रटाकर और स्थापित पुरोहितों की नकल करके इस कार्य में जुटते हैं । अवश्य ही सही सीखने में मेहनत तथा वक्त लगते हैं, कोई सीखा-सिखासा पैदा नहीं होता है । फिर भी उस दिशा में आगे बढ़ने का विचार तो मन में उठना ही चाहिए । – योगेन्द्र जोशी

बाद में जोड़ा गया –

एक पाठक महोदय की “कर्मकाण्ड” शब्द के प्रयोग पर व्यक्त आपत्ति के प्रत्युत्तर में इस शब्द के शबदकोशीय अर्थ प्रस्तुत हैं –

Untitled १

33 टिप्पणियां (+add yours?)

  1. Aditya Ranjan Pathak
    अप्रैल 14, 2011 @ 16:44:37

    मान्यवर,
    मैं आपकी हर बात से पूर्णतया सहमत हूँ | सिर्फ एक बात खटकी – “गरुड़” की जगह “गरुण” का प्रयोग बारम्बार क्यों किया गया है ?

    प्रत्युत्तर में –
    अवश्य ही गरुण के स्थान पर गरुड होना चाहिए था । आरंभिक त्रुटिपूर्ण श्लोक में गरुण था, जो सही नहीं था, और उसी की कापी का प्रयोग बाद के पाठ में किया गया, अतः उसी के कारण कदाचित्‌ यह त्रुटि रह गयी, जिसे अब ठीक कर दिया है । ध्यान दिला दूं कि संस्कृत में केवल ड है ड़ (नुक्ते के साथ ड) नहीं । – योगेन्द्र जोशी

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  2. Himwant
    जनवरी 15, 2017 @ 15:54:50

    गरुड़ या गरुड

    प्रतिक्रिया

    • योगेन्द्र जोशी
      जनवरी 15, 2017 @ 16:59:46

      संस्कृत में “गरुड” शब्द है जब कि हिन्दी में “गरुड़” इस्तेमाल होता है।

      प्रतिक्रिया

      • SHUSHANTO
        अगस्त 02, 2017 @ 15:17:06

        सही कहा आपने। संस्कृत में ड़ एवं ढ़ वर्ण नहीं है, ड एवं ढ है। इन दोनों वर्णों अर्थात् ड़ एवं ढ़ का प्रयोग केवल हिंदी, उर्दू, बांग्ला, असमिया और पंजाबी में स्वतंत्र वर्ण के रूप में होता है जिसका उच्चारण ड एवं ढ से बिलकुल भिन्न है। इन दोनों वर्णों, ड़ एवं ढ़, का प्रयोग शब्द के आदि में नहीं होता, मध्य अथवा अंत में होता है। कई हिंदी भाषी ड / ड़ तथा ढ / ढ़ के उच्चारण में भेद नहीं कर पाते और लिखते भी गलत हैं।

  3. Murari Lal Kushwah
    दिसम्बर 14, 2017 @ 08:53:40

    बहुत अच्छी जानकारी🌷🌷महाराज जी🌷🌷
    🙏🙏”जय सिया राम”🙏🙏

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  4. रवि रधुबीर नगरिया
    मई 07, 2018 @ 08:08:00

    प्रणाम ब्राहमण देवता को !! आप ने अपना कार्य निष्ठापूर्वक किया !! आपने अपने ब्राह्मण धर्म का पालन किया !! आजकल संसारिक लोग ब्राहमणों को महत्व सिर्फ संकट आनें पर ही देते है! काश सोलह संस्कारों को जाने और सत्य पर चलें और विद्वान् ब्राहमणों का आदर सत्कार करें तो इस कलयुग के समय में परिवर्तन आ जाये!! आप अपना कर्म, ज्ञान बाँटने का करते रहें आप हमेशा आनन्द में ही रहेंगे !!कयोंकि श्री कृष्ण कहते है कि तू अपनें कर्म को निष्ठा से कर फिर भी तु मुझ तक पहुँच जायेगा! आपका लेख सराहनीय था!!नारायण सब को सुबुद्धि दे!!श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवाय!!

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  5. Dr. CB Agarwal, cbag191 @ gmail.com
    सितम्बर 05, 2018 @ 10:38:48

    Lot thanks joshi ji for pointing out the much needed corrections to errors and mistakes often committed by the users of many shlokas read in Hindu retuals. Thanks once again by a physicist.

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    • Kanishk
      अक्टूबर 13, 2020 @ 01:29:38

      प्रणाम भाईसाहब
      मुझे संस्कृत ज्ञान बिल्कुल भी नहीं है। परंतु एक वाक्य पढ़ कर कुछ दुःख हुआ। मंत्रो को कर्म कांड की जगह यदि धार्मिक अनुष्ठान कहें तो कैसा रहे।

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      • योगेन्द्र जोशी
        अक्टूबर 19, 2020 @ 21:59:03

        संबंधित ब्लॉग-प्रविष्टि के अंत में “कर्मकांड” शब्द के शब्दकोशीय अर्थ प्रस्तुत हैं। कृपया उसका अवलोकन करें। इस शब्द पर आपत्ति मेरी समझ से परे है।

  6. samar
    सितम्बर 11, 2018 @ 19:14:41

    Pranam
    वक्रतुण्ड महाकाय​
    सूर्यकोटि समप्रभ​।
    निर्विघ्नम् कुरु मे देव​
    सर्व कार्येषु सर्वदा॥
    सूर्यकोटि- क्या ये सही है या फिर कोटिसूर्य होना चाहिए |
    धन्यवाद्
    समर

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    • योगेन्द्र जोशी
      सितम्बर 16, 2018 @ 17:52:40

      इस समय मैं शहर से बाहर पर्यटन पर हूं, इसलिए इस विषय पर अधिक कुछ लिख सकने के लिए संस्कृत ग्रंथों से दूर हूं।
      इतना कहना चाहूंगा कि कोटिसूर्य उचित है जो एक सामासिक शब्द है: कोटि+सूर्य यानी करोड़ों सूर्यों का समुच्चय (समूह)। कोटिसूर्य समप्रभ का अर्थ होगा करोड़ों सूर्यों के समूह के समान प्रभा वाला। यह वैसे ही है जैसे एकदंत (एक+दन्त = एक दांत वाला, गणेश), पंचानन (पञ्च+आनन = पांच मुंखों वाला, महादेव शिव), दशानन (दश + आनन = दश आनन वाला, रावण), त्रिदेव (त्रि + देव = तीन देवों क समूह, ब्रह्मा-विष्णु-महेश) आदि।

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      • विकास वर्मा
        जनवरी 19, 2019 @ 11:48:24

        इस श्लोक का यह पाठ सही है क्या –
        वक्रतुण्ड महाकाय​
        कोटिसूर्य समप्रभ​।
        निर्विघ्नम् कुरु मे देव​
        सर्व कार्येषु सर्वदा॥

        मैं जानना चाहता हूं कि ‘समप्रभ’ होना चाहिए या ‘समप्रभः’?

      • योगेन्द्र जोशी
        जनवरी 19, 2019 @ 17:41:08

        धन्यवाद, विकास जी, ई-पत्र के लिए। संदर्भगत श्लोक का अन्वय (prose order) कुछ यों किया जा सकता है:
        (हे) वक्रतुण्ड, महाकाय​, कोटिसूर्यसमप्रभ​, देव, सर्वदा सर्व कार्येषु कुरु मे निर्विघ्नम् ।
        जिसका सरल अर्थ यह होगा:
        हे वक्रतुंड, …, सदैव सभी कार्यों में मुझे “जिसके-कार्य-विघ्न-बिना-संपन्न-हों-ऐसा” कर दो।
        (मेरे अनुमान में निर्विघ्न = जिसके समक्ष विघ्न न हों, बहुब्रीहि समास का पद होना चाहिए।)
        इस छंद में वक्रतुंड आदि सभी श्रीगणेश जी के लिए संबोधन हैं जिसके पद विसर्गरहित होंगे।
        इसलिए समप्रभः उपयुक्त नहीं है।
        इस पर भी ध्यान दें कि कोटिसूर्यसमप्रभ एक सामासिक पद है, तदनुसार कोटिसूर्य समप्रभ ठीक नहीं।
        इस छद के बारे में मैंने अपने ब्लॉग में पहले कभी लिखा है:
        https://vichaarsankalan.wordpress.com/2011/02/08//

      • विकास वर्मा
        जनवरी 19, 2019 @ 23:41:00

        बहुत बहुत धन्यवाद! 🙏

  7. इशरत
    अक्टूबर 12, 2018 @ 11:02:12

    इस मन्त्र में छन्द कौनसा है????

    प्रतिक्रिया

    • योगेन्द्र जोशी
      अक्टूबर 12, 2018 @ 13:47:04

      संबंधित छंद “अनुष्टुभ्” छंद है जिसे “श्लोक” भी कहा जाता है। मेरी जानकारी में संस्कृत छंदों को आम बोलचाल में श्लोक कहेंगे, उनके असली छद-नाम का जिक्र किए बिना।
      इस छंद में ८-८ अक्षरों के चार चरण होते हैं। अक्षर से तात्पर्य है एक स्वर, एक व्यंजन से युक्त स्वर, अथवा एकाधिक संयुक्त व्यंजनों से युक्त स्वर वाला अक्षर (जैसे अ, क, क्ष)।
      अधिक जानकारी आपको आप्टे की संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश में मिल सकती है।

      प्रतिक्रिया

  8. सतीश राठी
    दिसम्बर 30, 2018 @ 22:53:12

    मंगलाsयतनो भी सही है

    प्रतिक्रिया

    • योगेन्द्र जोशी
      जनवरी 19, 2019 @ 19:24:14

      धन्यवाद, सतीश जी, आपके ई-पत्र के लिए। क्षमा करें विलंबित प्रत्युत्तर के लिए।

      मंगलाऽयतनो लिखना उचित नहीं होगा, कारण कि संस्कृत के नियमों के अनुसार किसी पद के अंतर्गत अनुस्वार का प्रयोग न करके संबंधित वर्ग (चवर्ग से लेकर पवर्ग) का पंचम वर्ण (ङ्‍, ञ्, ण्, न्, म्) प्रयुक्त होता है, यदि उसके आगे संंबंधित वर्ग का वर्ण हो।
      अनुस्वार का प्रयोग य,र,ल,व,श,ष,स,ह (वर्गों के अतिरिक्त वर्ण) के पहले किया जाता है, जैसे संयम, नृशंस में किंतु सञ्चय, शङ्का में नहीं।
      उक्त नियम के अनुसार ग के पहले ङ्‍ का प्रयोग होना चाहिए। इस प्रकार मङ्गलाऽयतनो लिखा जाना चाहिए।

      यह भी ज्ञातव्य है कि अ या आ के परे अ या के होने पर की जाने वाली दीर्घसंधि में अवग्रह(ऽ) सामान्यतः नहीं लिखा जाता है भले ही उसका लिखा जाना त्रुटिपूर्ण नहीं होगा (मेरा मानना)।
      इसलिए मङ्गलायतनो पर्याप्त होगा।

      विसर्ग संधि जिसमें अ के आगे विसर्ग और उसके परे फिर अ हो उसमें पूर्ववर्ती अ एवं विसर्ग मिलकर ओ बन जाते है और बाद के अ का लोप हो जाता है जिस तथ्य को दर्शाने के लिए अवग्रह (ऽ) का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण “कः अस्ति तत्र” = “कोऽस्ति तत्र”

      प्रतिक्रिया

  9. भरतभाई
    अगस्त 27, 2019 @ 13:09:51

    सर्व मंगल मांगल्ये,शिवे सर्वाध साधिके….
    .

    प्रतिक्रिया

  10. त्रिलोकीनाथमिश्रः
    सितम्बर 25, 2019 @ 19:46:23

    जयतु महोदय भवान् !!
    अत्युत्तमं कार्यम् 🙏🌷

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  11. विमल बालानी
    अक्टूबर 20, 2019 @ 11:14:54

    बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी दी है बन्धुवर तुमने। संस्कृत भाषा श्लोकों में स्वरों को भी विधवत सीखना पड़ता है। तुमने भगवान शब्द के न में हलन्त लगेगा, बताकर चक्षु खोल दिए मेरे क्योंकि हम 99.99% हिंदी भाषी लोग हैं जो संस्कृत भाषा को बहुत सम्मान देते हैं। मैनें तुम शब्द का जान बूझ कर प्रयोग किया है क्योंकि संस्कृत में आप शब्द का अर्थ जल से होता है। यदि गलत हूं तो भूल सुधारियेगा। राधे राधे 20 अक्टूबर 2019

    प्रतिक्रिया

    • योगेन्द्र जोशी
      अक्टूबर 22, 2019 @ 01:17:03

      आपने ’आप’ की स्थान पर ’तुम’ का प्रयोग करते हुए उसका कारण स्पष्ट किया है।
      यों आप मुझे ’तुम’ से संबोधित करें या ’आप’ से मुझे फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यह कहना ठीक रहेगा कि आप का प्रयोग करना हिन्दीभाषियों में आम बात है, इसलिए ’आप’ का प्रयोग किया जाना चाहिए। नि:संदेह ’आप’ संस्कृत में जल के लिए प्रयुक्त होता है, लेकिन मैंने उसका प्रयोग वैदिक मंत्रों में ही अधिक देखा है न कि लौकिक संस्कृत में जिसे वैदिक से इतर साहित्य यानी वैदिक युग के बाद के काल में प्रयोग में लिया गया और जिसका संस्कारित व्याकरण है जो आधुनिक संस्कृत की विशेषता है। हम इसी संस्कृत से परिचित हैं।
      दूसरी बात यह कि आप का ई-पत्र संस्कृत में नहीं है, यह तो हिन्दी में है जिसमें ’आप’ का प्रयोग आदर-सूचक संबोधन में किया जाता है। इसलिए इसका प्रयोग किसी आपत्ति बिना किया जान चाहिए। संस्कृत में इस हेतु ’भवान्’ प्रयोग में लिया जाता है।

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  12. सच्चिदानन्द झा
    दिसम्बर 01, 2019 @ 07:59:30

    सुन्दर और समीचीन ।

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  13. डॉ मुकेश मणिकांचन
    अप्रैल 11, 2020 @ 10:43:12

    अत्यंत सरल तरीके से टीका की है। हार्दिक स्वागत।

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  14. mithilesh jha
    जून 09, 2020 @ 01:40:01

    bhot sundar pandit ji. hame sanskrit sach nhi aati na hame kabhi sikhaya gya. kisi bhi puja ya sadi me padhya gya mantra ma matlab samagh le agar koi to sayad jindagi our behtar hogi. kuch jimedari hamare sath sath mandito ki bhi hai jo, kuch log thik se nhi nibhate. thank you so much

    प्रतिक्रिया

  15. mithilesh jha
    जून 09, 2020 @ 01:49:11

    bhot sundar pandit ji. kisi bhi puja ya sadi me padhye gya mantra ka matlab agar logo ko samagh me aajaye ya unhe samghaya jaye to sayad jindagi our behtar hogi. kuch jimedari hamare sath-sath pandito ki bhi hai jo, kuch log thik se nhi nibhate. thank you so much

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  16. Sushil Pohan
    जनवरी 26, 2021 @ 11:34:36

    सदा ब्यवहृत संस्कृत श्लोक का त्रुटि मार्जना के बिषय पर आपका ये बहु मूल्यबान तथ्य के लिए आपको अनेक अनेक धन्यवाद।
    भाषाका शुद्धता रखना हमारा दायित्व और प्रतिबध्धता होना चाहिए।
    ओड़िआ में भी ‘ड़’ और ‘ढ़’ लिखा जाता है।
    सुशील पुहाण, ओड़िशा

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  17. यश खन्ना 'नीर'
    फरवरी 12, 2021 @ 10:12:10

    आपका यह कार्य अत्युत्तम है । मुझ जैसे कितने ही लोग होंगे, जो यह भाँपते हुए भी कि श्लोकों व मन्त्रों में त्रुटियां हैं, संस्कृत का ज्ञान न होने के कारण दुविधा में फंसे रहते हैं। बहुत-बहुत साधुवाद ।

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  18. द्वारिका नाथ देवांगन
    मई 13, 2021 @ 18:26:14

    अभी कुछ समय पहले मुझे मङ्गलम् भगवान विष्णु मङ्गलमय…….. मंत्र के अर्थ में अटकना या उलझना हुआ है कि भगवान विष्णु का मंगल हो जिसके ध्वज में गरुड है उसका मंगलमय हो आदि आदि. यद्यपि मैं न संस्कृत विशेषज्ञ हूँ न विशेष जानकार किन्तु संस्कृत में मंत्र पढना पाठ आदि अच्छा लगता है. अभी संयोगवश यह आर्टिकल सामने आया वो भी काफी प्रयासों के बाद. आपका संस्कृत का यह अद्भुत विश्लेषण देखकर मै धन्य और गौरान्वित महसूस कर रहा हूँ. यूट्यूब मे साधना पथ चैनल 8 मई को पोस्ट किया है दैनिक जीवन में बोले जाने वाला उपयोगी मंत्र शीर्षक के साथ अभी इतना ही आगे कुछ और समाधान चाहुंगा

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  19. अनमोल प्रफुल्ल परळकर
    मई 29, 2023 @ 06:36:51

    नमो नमः आचार्यजी, हरिकृपा! 🙏 मै ढूँढते ढूँढते आप के इस ब्लोग पर आ पहूंचा, गुरूकृपा! 🙏 कृपया मार्गदर्शन की कृपा रखे, जयतु संस्कृतम्! प्रणाम 🙏
    आपका नम्र,
    अनमोल।
    (आचार्यजी, यदि आपका इमेल प्राप्त हो तो बडी कृपा होगी, मै कई सारे श्लोक/मन्त्र ढूँढ रहा हू, तो निवेदन है कि आप से पूंछू, मार्गदर्शन पाऊ 🙏 मनःपूर्वक धन्यवाद।)

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    • योगेन्द्र जोशी
      जून 24, 2023 @ 22:21:59

      श्रीमान् अनमोलजी, कृपया क्षमा करें कि मैं विलम्ब से प्रत्युत्तर दे रहा हूं।
      यह कहते हुए मैं खेद अनुभव कर रहा हूं कि मैं संस्कृत का ज्ञाता नहीं हूं। वस्तुतः मैं भौतिकी (फिजिक्स) का छात्र और समयांतर में शिक्षक (काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अंग्रेजी में Banaras Hindu University – BHU में) रहा हूं। एक शैक्षिक विषय के रूप में संस्कृत भाषा मैंने केवल हाईस्कूल तक पढ़ी है। उसके बाद किंचित् रुचि के कारण सीखने का प्रयास करने लगा, विशेषकर सेवानिवृत्ति के पश्चात् (मैं ७५-वर्षीय वरिष्ठ नागरिक हूं)। अवश्य ही बचपन में आरंभिक ज्ञान अपने परलोकवासी पिताश्री से पाया था। रुचि के कारण संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन यदाकदा करता रहता हूं। और उस प्रयास में कभी कुछ अपने ब्लॉग (चिट्ठे) पर लिख देता हूं। मेरा प्रयास रहता है कि अपने सीमित संस्कृत-ज्ञान के आधार पर लिखित पाठ का अर्थ समझूं।
      आप मेरी स्थिति समझ गये होंगे।
      आपके प्रयासों के प्रति मेरी शुभाकांक्षाएं। – योगेन्द्र जोशी

      प्रतिक्रिया

  20. सत्यप्रकाश
    अक्टूबर 29, 2023 @ 09:04:57

    आपने बहुत ही विस्तार से समझाया है।हर पाठक को समझने की आवश्यकता है ध्न्यवाद

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