“यदा यदा हि धर्मस्य …”: कितना सार्थक है श्रीमद्भगवद्गीता का यह वचन? – शेष भाग

टिप्पणी – मैं अपने जो विचार यहां लिख रहा हूं  उनसे कई जन  असहमत होंगे। कई जन  आक्रोषित भी हो  सकते हैं। मेरी प्रार्थना है कि जैसे ही आपको लगे कि विचार निकृष्ट हैं, आप आगे न पढ़े। असहमत होते हुए भी यदि पढ़्ना स्वीकार्य हो तो अपना ख़ून खौलाए बिना इन बातों को किसी मूर्ख अथवा सनकी की बातें समझकर अनदेखी कर दें और बड़प्पन  दिखाते हुए मुझे क्षमा कर दें। धन्यवाद, शुक्रिया, थैंक्यू। 

जुलाई २६ की अपनी पोस्ट में मैंने श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे गये वचन “यदा यदा हि धर्मस्य …” की चर्चा की थी । मैंने अपना मत व्यक्त किया था कि श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना वास्तव नहीं की और वे ऐसा कर भी नहीं सकते थे । किंतु युद्ध के प्रति बेमन हो चुके अर्जुन को प्रेरित करने के लिए उन्होंने यह तथा अन्य बातें कहीं थीं । मेरा मुख्य तर्क यह था कि महाभारत युद्ध के बाद ही अधर्म अधिक पुष्ट हो कर समाज में छाया और धर्म लोगों के जीवन से गायब होने लगा । श्रीकृष्ण स्वयं यह जानते थे कि जो होना है उसे वस्तुतः टाला नहीं जा सकता है । अपनी बात स्पष्ट करने के लिए मैं उस युद्ध के बाद क्या हुआ इसे बताता हूं ।

महाभारत के स्त्रीपर्व में अठारह-दिवसीय युद्ध की समाप्ति के पश्चात् अपने परिजनों-प्रियजनों की मृत्यु पर शोकाकुल कौरव-पांडव स्त्रियों के विलाप का वर्णन है । उसी में शोकसंतप्त महारानी गांधारी युद्ध को न रोक पाने के लिए श्रीकृष्ण को दोष देती हैं । उन्हें खरीखोटी सुनाते हुए वे बहुत कुछ कह जाती हैं और अंत में श्रीकृष्ण को वृष्णि-अंधक वंशीय यादवों के नाश का शाप दे डालती हैं । गांधारी के तत्संबंधित वचन अधोलिखित श्लोकों में वर्णित हैं:

शक्तेन बहुभृत्येन विपुले तिष्ठता बले ।
उभयत्र समर्थेन श्रुतवाक्येन चैव ह ॥४०॥
इच्छतोपेक्षितो नाशः कुरूणां मधुसूदन ।
यस्मात् त्वया महाबाहो फलं तस्मादाप्नुहि ॥४१॥

(महाभारत, स्त्रीपर्व, अध्याय २५)

हे महाबाहु मदुसूदन श्रीकृष्ण! तुम शक्तिशाली थे, तुम्हारे पास सेवकों एवं सैनिकों की विशाल संख्या थी, तुममें दोनों पक्षों (कौरव-पांडव) को मनवाने की सामर्थ्य थी, तुम शास्त्रादि के ज्ञाता थे, फिर भी तुमने स्वेच्छया कुरुवंश के विनाश की उपेक्षा की (विनाश होने दिया, उसे रोकने के लिए प्रभावी प्रयास नहीं किए) । अतः अपनी इस गंभीर चूक का तुम्हें फल भुगतना होगा ।

पतिशुश्रूषया यन्मे तपः किञ्चिदुपार्जितम् ।
तेन त्वां दुरवापेन शप्स्ये चक्रगदाधर ॥४२॥

(पूर्वोक्त संदर्भ)

हे चक्र एवं गदा धारण करने वाले श्रीकृष्ण! पति की सेवा-सुश्रूषा से मैंने जो भी तपशक्ति अर्जित की है उस दुर्लभ तप के बल पर मैं तुम्हें शाप देती हूं ।

यस्मात् परस्परं घ्नन्तो ज्ञातयः कुरुपाण्डवाः ।
उपेक्षितास्ते गोविन्द तस्मात्ज्ञातीन् बधिस्यति ॥४३॥

(पूर्वोक्त संदर्भ)

हे गोविंद! चूंकि तुमने एक-दूसरे को मौत की घाट उतारते हुए बंधु-बांधव कौरव-पांडवों की उपेक्षा की (उन्हें ऐसा करने से रोका नहीं) अतः तुम स्वयं अपने ही बांधवों का हनन करोगे ।

गांधारी के शाप-वचन को श्रीकृष्ण ने सहज भाव से सुन लिया । प्रत्युत्तर में उन्होंने यह कहा कि उन्हें मालूम है यह होना है और वे जो कह रही हैं उसमें कुछ भी नया नहीं है । वे पूर्वतः निर्धारित घटना का अग्रिम उल्लेख भर कर रही हैं । उनका उत्तर देखिए:

जानेऽहमेतदप्येवं चीर्णं चरसि क्षत्रिये ।
दैवादेव विनश्यन्ति वृष्णयो नात्र संशयः ॥४४॥

(पूर्वोक्त संदर्भ)

मैं जानता हूं कि ऐसा ही होने वाला है । हे क्षत्राणि! आप वही कर रही हैं जो किया जा चुका है । (शाप के माध्यम से आप उसे नियत कर रही हैं जो पहले से ही घटित होने को नियत है ।) वृष्णिवंशीय यादवों का दैव या नियति के द्वारा विनाश हो जायेगा इसमें कोई शंका नहीं है, आप शाप रूप में उसे कहें या न कहें ।

श्रीकृष्ण के उपर्युक्त वचन में इस तथ्य का उद्घाटन है कि सब कुछ काल (समय) के अधीन है । कोई असल में कुछ करता नहीं है (स्व्यं वे भी नहीं), किंतु व्यक्ति इस भ्रम में रहता है कि वही कुछ कर रहा है । वह जो करता है वह काल के वशीभूत होकर । इस पर अधिक टिप्पणी करने से पूर्व मैं विज्ञानियों – वस्तुतः भौतिकीविदों या फिजिसिस्टों – के मत का उल्लेख करता हूं । भौतिकी के अनुसार भवितव्य अननुमेय (unpredictable) है, यानी उसे घटित होने के पूर्व ही जान लेना संभव नहीं । इसके आगे दो मत है: पहला कि भवितव्य क्या पूर्वनिर्धारित (determinate) है ? अर्थात् ‘भविष्य में क्या होगा’ यह है तो निश्चित, पर उसे हम जान नहीं सकते । दूसरा यह कि भवितव्य पूर्वतः अनिर्धारित (indeterminate) है, अर्थात् वर्तमान का क्षण ही भवितव्य की एकाधिक संभावनाओं में से किसी एक को चुनकर नियत करता है । ‘अगले क्षण क्या होगा’ इसे हर बीता क्षण निश्चित करता है । इस प्रकार भवितव्य क्षण दर क्षण स्वरूप ग्रहण करता जाता है । ऐसे में हम केवल सर्वाधिक संभावना वाले अनुमान के आधार पर भविष्य की बात कर पाते हैं । किंतु प्रकृति उसी संभावना को चुनेगी यह निश्चित नहीं रहेगा । काल के बारे में मैंने एक लेख ३० मार्च 2009 की तारीख पर इसी ब्लाग में लिखा है ।

श्रीकृष्ण का कथन इस दूसरे मत के अनुरूप है । जहां भौतिकीविद् भविष्य को अननुमेय मानता है, वहीं श्रीकृष्ण के लिए व पूर्वतः ज्ञात है । तब प्रश्न है कि क्या भविष्य की तस्वीर का आभास किसी बिरले व्यक्ति को मिल जाता है, भले ही वह नियंत्रण से परे हो ? मौजूदा प्रसंग के अनुसार, हां ।

मुझे लगता है कि श्रीकृष्ण को भविष्य की घटनाओं का ज्ञान हो चला था, और वे यह भी जानते थे भविष्य नियंत्रण से परे होता है । लगता है कि वे महाभारत के युद्ध का आभास पा चुके थे और यह भी समझते थे कि उसे टाला नहीं जा सकता है । उस युद्ध में उनकी स्वयं की भूमिका उनकी चुनी हुई नहीं थी । सब कुछ काल के अधीन था । अर्जुन के प्रति उनके उपदेश भी काल के द्वारा सुनियत घटना के हिस्से थे । उनके मुख से जो वचन निकलने थे वे निकले । युद्ध पश्चात् यादवगण आपस में ही लड़ मरेंगे और उनका नाश होगा यह भी वे जानते थे । गांधारी के शाप से वह सब नहीं घटित हुआ, बल्कि भविष्य की उस अटल होनी के अनुरूप ही महारानी के मुख से वे शब्द निसृत हुए । उक्त श्लोक से यही अर्थ प्रतिपादित होता है । यादव-विनाश की कहानी लंबी है और महाभारत के मौसल पर्व में वर्णित है ।

मुझे ऐसा लगता है कि यह सृष्टि एक विशाल रंगमंच है, जिसमें सजीव-निर्जीव सभी अपना-अपना चरित्र निभाते हैं । हरएक का किरदार प्रकृति तय करके बैठी रहती है और उसके अनुरूप वह हर क्षण आपसे कर्म कराती है, मानो कि आप उसके हाथ में कठपुतली हों ।

व्यक्ति का इस प्रकार काल के अधीन होना एक गंभीर सवाल खड़ा कर देता है । क्या हम सचमुच कुछ नहीं करते हैं ? काल सब कुछ हमसे करवाता है ? तब सही-गलत के अर्थ ही क्या रह जाते हैं ? न सत्कर्म का श्रेय किसी को दिया जा सकता है, और न ही दुष्कार्य के लिए दोष । किंतु यह विचार मन के लिए सुपाच्य नहीं है ।

अस्तु, अपनी आरंभिक बात पर लौटते हुए दुबारा यही कहता हूं कि ‘यदा यदा …’ के अनुसार धर्म की जो स्थापना होनी चाहिए थी वह वस्तुतः कभी हुई नहीं ।योगेन्द्र जोशी