दो आलेखों की इस शृखला के पहले लेख (दिनांक ११ मार्च) में मैंने “चाणक्यनीतिदर्पण” नामक पुस्तिका (ज्योतिष प्रकाशन, वाराणसी, २०००) से चुने हुए पांच नीतिश्लोकों को उद्धृत किया था। इस द्वितीय लेख में चुने हुए शेष पांच नीतिश्लोकों को मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। रोजमर्रा की व्यावहारिक जिंदगी में जो आम बातें देखने-सुसने अथवा अनुभव करने में आती हैं उन्हीं को इन कुल दस श्लोकों में आचार्य चाणक्य ने कही हैं। इन श्लोकों की भाषा पर्याप्त सरल है जिसे संस्कृत का थोड़ा-बहुत ज्ञान वाले व्यक्ति को समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। पिछले लेख़ के ५ छंदों के आगे क्रम ६ से आरंभ करते हुए प्रस्तुत हैं चयनित छंदः
[६]
तावद्भयेन भेतव्यं यावद् भयमनागतम्।
आगतं तु भयं वीक्ष्य प्रहर्तव्यमशङ्कया ॥५-३॥
[तावत् भयेन भेतव्यम् यावद् भयम् न आगतम्, आगतम् तु भयम् वीक्ष्य प्रहर्तव्यम् अशङ्कया ।]
भय से तभी तक डरें जब तक भय सामने न उपस्थित हो जाए। जब भय समक्ष प्रकट हो ही जाए तो उस पर निर्भीकता से प्रहार करना चाहिए।
मनुष्य स्वभावतः भयोत्पादक वस्तु या घटना की संभावना से भयभीत रहता है भले ही वैसी कोई चीज घटित ही न होवे। अर्थात् काल्पनिक भय से भी डर लगता है; अनिष्ट की कल्पना ही डरा देती है। ऐसी संभावनाओं से बचना उचित है। फिर भी यदि ऐसी बात से सामना हो ही जाए तो उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए। भागने से तो कोई समाधान होना नहीं। कर्म करो यही संदेश इस कथन में निहित है।[७]
नैव पश्यति जन्मान्धः कामान्धा नैव पश्यन्ति ।
मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दोषं न पश्यति ॥६-८॥
[न एव पश्यति जन्म–अन्धः, काम–अन्धाः न एव पश्यन्ति, मद–उन्मत्ताः न पश्यन्ति, अर्थी दोषं न पश्यति ।]
जन्म से अंधा व्यक्ति देख नहीं पाता। “काम” से अंधे हुए लोग भी देख नहीं पाते। उन्मत्त लोग भी नहीं देख पाते। इसी प्रकार स्वार्थी व्यक्ति को भी दोष नहीं दिखता।
इस छंद में अंधा शब्द का अर्थ प्रसंगानुसार अलग-अलग है। जो व्यक्ति जन्मजात अंधा हो वह वाह्य संसार को देख नहीं सकता। लेकिन अन्य तीन स्थलों पर अंधापन का तात्पर्य है उचित-अनुचित का विवेक खो बैठना। “काम” का अर्थ सामान्यतः इच्छा-आकांक्षा से होता है चाहे वह नितांत अनुचित हो। “काम” यौनेच्छा के विशेष अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। तब कामांध का अर्थ काम-वासना से ग्रस्त व्यक्ति होता है। कामांध लोग अपनी वासना की पूर्ति के में कोई दोष नहीं देख पाते। नशे आदि से विवेक खो बैठे लोग भी अपने अनुचित कार्य के प्रति अंधे होते हैं। और इसी प्रकार स्वार्थों में डूबा व्यक्ति दूसरों के हित-अहित के प्रति अंधा होता है। प्रथम प्रकार के व्यक्ति का अंधापन समाज के लिए घातक नहीं होता और क्षम्य है। लेकिन शेष तीन दंड के योग्य कहे जाएंगे।
[८]
अर्थनाशं मनस्तापं गृहिणीचरितानि च ।
नीचवाक्यं चाऽपमानं मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥७-१॥
[अर्थ–नाशम्, मनस्-तापम् गृहिणी–चरितानि च नीच–वाक्यम् च अपमानम्, मतिमान् न प्रकाशयेत् ।]
धन की हानि, मन की पीड़ा, गृहिणी यानी पत्नी के चालचलन, नीच व्यक्ति के बोले वचन, और अपमान की घटना का जिक्र समझदार व्यक्ति किसी से न करे।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि कुछ लोग कामधंधे से जुड़े हानि-लाभ की, रिश्तेदारोँ-मित्रों से अच्छे-बुरे संबंधों की, परिवार की, और यहां तक कि पत्नी से संबंध आदि की बातें अजनबियों से तक कर डालते हैं। दरअसल ऐसे लोग निरीह और नासमझ होते हैं और अवश्य ही वे अपनी परेशानी दूसरे को बताकर मन हल्का करते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि सुनने वाला उन पर मन ही मन हंस सकता है और परिचित होने पर पीठ पीछे हंसी उड़ा सकता है। समाज में मदद करने वाले कम ही होते हैं। अतः समस्याओं का बखान जहाँ-तहां नहीं करना चाहिए।
[९]
नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम् ।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ॥७-१२॥
[न अत्यन्तम् सरलैः भाव्यम् गत्वा पश्य वन–स्थलीम् छिद्यन्ते सरलाः तत्र कुब्जाः तिष्ठन्ति पादपाः ।]
बहुत अधिक सरल स्वभाव का नहीं होना चाहिए। वनस्थल में जाकर देखें कि कैसे सीधे तने वाले पेड़ किस प्रकार काटे जाते हैं और वहीं टेड़ेमेड़े पेड़ छोड़ दिए जाते हैं।
यहां एक उपमा के माध्यम से मनुष्य को अति सरलता से होने वाली हानि समझाने का प्रयास किया गया है। जंगल के वे पेड़ काटे जाते हैं जो सीधे-सपात होते हैं। ऐसी पेड़ इमारती काम और फर्नीचर आदि के लिए अच्छे रहते हैं। कुछ ऐसा ही सरल स्वभाव के व्यक्ति के साथ होता है। वस्तुतः ऐसे सरल व्यक्ति से लोग नाजायज लाभ लेने की कोशिश करते हैं। सरल एवं निष्कपट व्यक्ति दूसरों की बातें प्रायः टालता नहीं, उन पर विश्वास करता है, और मदद करने को तैयार हो जाता है। उसे यह एहसास नहीं हो पाता कि उसकी सिधाई का लाभ लेने से लोग चूकते नहीं। इसीलिए कहा है कि दुनियादारी के नजरिये से मनुष्य को चाहिए कि अति सरल स्वभाव न अपनावे।
[१०]
विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान्सर्वत्र गौरवम् ।
विद्यायाः लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते ॥८-२०॥
[विद्वान् प्रशस्यते लोके, विद्वान् सर्वत्र गौरवम्, विद्यायाः लभते सर्वम्, विद्या सर्वत्र पूज्यते ।]
विद्वान व्यक्ति की संसार में प्रशंसा होती है, सर्वत्र उसे गौरव-सम्मान मिलता है। विद्या के द्वारा सभी लाभ प्राप्त होते हैं। विद्या ही है जिसकी सर्वत्र पूजा होती है।
इस नीति-वचन में विद्या और उससे जुड़ी विद्वता की जो महत्ता बताई गई है वह आज के जमाने में किस हद तक सही है इसमें मुझे शंका है। कदाचित प्राचीन काल में विद्वानों का सम्मान होता था। किंतु इस युग में समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसकी संपन्नता पर केंद्रित देख़ी जाती है। विद्या का महत्व भी संपन्नता अर्जित करने में ही रहती है। अवश्य ही विद्या का महत्व है किंतु इसलिए नहीं कि उससे ज्ञान प्राप्त होता है बल्कि इसलिए कि उससे रोजगार एवं नौकरी-पेशे में सफलता मिलती है। अस्तु विद्या का महत्व तो है ही भले ही वह देशकाल के अनुसार बदलता रहे। – योगेंद्र जोशी
LalmaniTiwari
जून 05, 2020 @ 07:00:12
Reblogged this on Lalmani Tiwari's Blog.
MAHESH GUPTA
जून 20, 2023 @ 18:04:52
अति विशिष्ट व मनन करने योग्य