“नृपो दण्डं दुर्वृत्तेषु …” – याज्ञवल्क्यस्मृति के दण्डात्मक वचन

प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में स्मृत्तियों का स्थान काफी महत्वपूर्ण रहा है। इन्हें धर्मशास्त्र भी कहा गया है। सबसे चर्तित रही है मनुस्मृति, जिसके कुछएक नीति वचन विवदास्पद भी रहे हैं। एक स्मृति और है याज्ञवल्क्यस्मृति जिसका महत्व भी काफी आंका जाता है। मेरे पास दोनों ही स्मृतिग्रंथ हैं। दोनों में अधिकांश बातें समान हैं। कुल स्मृतियां कितनी हैं यह मैं जान नहीं पाया हूं। मैंने नारदस्मृति, पराशरस्मृति एवं नारयणस्मृति का भी नाम भी सुना है, लेकिन उन्हें देखने-पढ़ने का अवसर अभी तक नहीं मिल सका है।

इन स्मृतियों में मनुष्य को परिवार और समाज के प्रति किन कर्तव्यों का पालन करना चाहिए इसका विस्तृत वर्णन मिलना है। समाज में अलग-अलग भूमिकाएं निभा रहे जनों के कर्तव्यों का लेखा-जोखा भी इन ग्रंथों में मिलता है। जैसे राजा के दायित्व क्या होने चाहिए और अधीनस्थों और प्रजा के प्रति उसका व्यवहार कैसा होना चाहिए ये बातें स्पष्ट बताई गयीं हैं। स्थापित परंपराओं की चर्चा के साथ मनुष्य द्वारा उनके निर्वाह के उपदेश इन ग्रंथों में मिलते हैं। प्राचीन भारतीय वर्णश्रम व्यवस्था के अनुसार अलग-अलग वर्णों की सामाजिक भूमिकाओं और ब्रह्मचर्य से संन्यास आश्रम तक से संबंधित आचरण की विस्तृत व्याख्या इन ग्रंथों में निहित मिलती है।

उपर्युक्त दोनों स्मृतियों के अध्ययन से मुझे यही लगा कि ये स्मृतियां धर्म के आध्यात्मिक पक्ष को महत्व न देकर व्यावहारिक पक्ष की विस्तृत व्याख्या करती हैं। यह बात मेरे देखने में आई कि राजा के कर्तव्यों में विशेष महत्व न्यायकर्ता के तौर पर उसका अपराधियों के प्रति दंडात्मक रवैया अपनाना है। इस कार्य के लिए उसका दृडनिश्चयी एवं निष्पक्ष होना अनिवार्य है। याज्ञ्वल्क्यस्मृति में स्पष्ट उल्लिखित है जो व्यक्ति अनिश्चय की स्थिति में रहता हो वह राजा होने योग्य नहीं है। प्राचीन काल में तो राजा होता था, लेकिन आज के लोकतांत्रिक युग में चुने गये जनप्रतिनिधिगण सम्मिलित रूप से राजा की भूमिका निभाएं यह अपेक्षा की जाती है। वे कितना समर्पित होते हैं कर्तव्यो के प्रति यह संदेहास्पह अवश्य दिखाई देता है।

अपराधी को दंडित करना राजा के अनिवार्य कर्तव्यों में से एक है। इस बात का उल्लेख किंचित् विस्तार से याज्ञवल्क्यस्मृति के आचार नामक अध्याय के राजधर्मप्रकरण में किया गया है। मैं आगे प्रस्तुत अनुच्छेदों में के उक्त प्रकरण के चुने हुए ४ छंदों को अद्धृत कर रहा हूं जो राज्य की दंडात्मक प्रक्रिया से संबंधित हैं।

उक्त श्लोक वस्तुतः एक परिपूर्ण राज्य को परिभाषित करता है। राजा वह व्यक्ति होता है जो राजकीय व्यवस्था के शीर्ष पर होता है और व्यवस्था के दायित्व का निर्वाह करता है। मंत्रीगण एवं उनके सहायक अन्य सभी कर्मी राजा के नियंत्रण में राजकीय व्यवस्था चलाते हैं। प्रजा के अर्थ स्पष्ट हैं – राज्य की जनता। दुर्ग वह दुर्गम्य स्थान है जो शत्रुओं से राजा और मंत्रियों एवं अधिकारियों को सुरक्षा प्रदान करता है। राजकाज एवं जनहित के कार्यों के लिए संगृहीत राजस्व राजकोश कहलाता है। अपराधियों एवं भ्रष्ट जनों को दंडित करने की न्यायिक व्यवस्था दंड के अंतर्गत आती है। कोई भी राज्य तभी सुरक्षित होता है जब राज्य के भीतर एवं बाहर उसके हितैषी मित्र हों। आंतरिक तथा बाहरी शत्रु उस राज्य को कमजोर बनाते हैं, तब वह अपरिपूर्ण हो जाता है।

(१)

स्वाम्यमात्या जनो दुर्गं कोशो दण्डस्तथैव च ।

मित्राण्येताः प्रकृतयो राज्यं सप्ताङ्गमुच्यते ॥३५३॥

स्वामी, अमात्याः, जनः, दुर्गम्, कोशः, दण्डः, तथा एव च मित्राणि; एताः प्रकृतयः; राज्यम् सप्ताङ्गम् उच्यते।

स्वामी (राजा), मंत्रीवृंद, प्रजा, दुर्ग (किला), राजकोश, दंड, एवं राज्य के मित्रगण, ये सभी राज्य के सात अंग होते हैं। इसलिए राज्य को सप्तांग (सात अंगों वाला कहा गया है।

राज्य की उक्त सप्तांग परिभाषा प्राचीन काल की प्रचलित व्यवस्था का निरूपण है। आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजा एवं अमात्यों का स्थान प्रजा द्वारा चयनित जनप्रतिनिधियों की परिषद् ने ले लिया है। अन्य बातें कमोबेश वही हैं।

(२)

तदवाप्य नृपो दण्डं दुर्वृत्तेषु निपातयेत् ।

धर्मो हि दण्डरूपेण ब्रह्मणा निर्मितः पुरा ॥३५४॥

तत् अवाप्य नृपः दण्डम् दुर्-वृत्तेषु निपातयेत्; धर्मः हि दण्ड-रूपेण ब्रह्मणा निर्मितः पुरा।

ऐसा राज्य पा लेने पर राजा दुर्वृत्ति यानी दुराचरण में लिप्त जनों पर दंड गिराए (उन्हें दंडित करे)। वस्तुतः सृष्टिकर्ता ब्रह्म ने पहले (आरंभ में) धर्म का दंड के रूप में निर्माण किया था।

प्राचीन शासकीय व्यवस्थापकों और तत्संबंधित उपदेष्टाओं/चिंतकों ने दंड को शासन का अनिवार्य एवं प्रभावी अंग माना है। ध्यान दें कि राज्य के सात अंगों में “न्याय” (अंग्रेजी में “जस्टिस”) को नहीं शामिल किया है। उसके विपरीत अपराधी को दंड देने को महत्व दिया है। अगर गंभीरता से विचार करें तो आप समझ सकते हैं कि किसी भुक्तभोगी को “न्याय” देना लगभग असंभव होता है, क्योंकि जो “अनर्थ” किया जा चुका है उसे “न हुआ” अर्थात् निरस्त नहीं किया जा सकता है। जिसके प्राण लिए जा चुके हों उसे वापस नहीं ला सकते हैं। जिसे अकारण या अनुचित तरीके से कारागार में डाला गया हो, समय का उसका वह अंतराल वापस दिलाना संभव नहीं। जिसको मानसिक उत्पीड़न झेलना पड़ा हो उसकी कीमत आंकना संभव नहीं। इस प्रकार के अनेक दृष्टांत देखने को मिलेंगे जिससे “न्याय” की अवधारणा ही भ्रमात्मक सिद्ध होती है। “न्याय” शब्द यहां पर उसी अर्थ में लिया गया है जिस अर्थ में आम तौर पर प्रयोग में लिया जाता है।

संस्कृत भाषा में “न्याय” शब्द के मौलिक अर्थ इससे अधिक कुछ और हैं। “वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश” में न्याय शब्द के अर्थ पर्याप्त विस्तार से बताये गये हैं। संक्षेप में इसका अर्थ वह तार्किक विधि या प्रणाली से है जो न्यायिक वाद के निस्तारण में सही निर्णय तक पहुंचने में अपनाई जाती है। न्यायिक व्यवस्था में “सच क्या है?” इसको जानने के लिए साक्षों पर आधारित तार्किक विधि ही तो अपनाई जाती है।

अपराधी को दंड दिया जा सकता है, समाज में स्थापित मूल्यों एवं मान्यताओं के अनुसार। इसीलिए प्राचीन धर्मग्रंथ-नीतिशास्त्र दंड को ही महत्व देते हैं। इसलिए उसी का उल्लेख नीति वचनों में मिलता है।

(३)

स नेतुं न्यायतोऽशक्यो लुब्धेनाकृतबुद्धिना ।

सत्यसन्धेन शुचिना सुसहायेन धीमता ॥३५५॥

सः नेतुम् न्यायतः अशक्यः लुब्धेन अकृत-बुद्धिना; सत्य-सन्धेन शुचिना सुसहायेन धीमता।

लोभी प्रकृति एवं अस्थिर बुद्धि वाले राजा के लिए दंड का प्रयोग न्यायपूर्वक कर पाना संभव नहीं है। सत्यनिष्ठ एवं निर्दोष आचरण वाले बुद्धिमान् राजा ही सद्व्यवहारी सहायकों के सहयोग से ऐसा कर सकता है।

जो राजा किसी निर्णय पर पहुंचते समय अपने निजी स्वार्थ पर ध्यान देता है, अथवा असमंजस की स्थिति में टिका रहता है, वह सही-सही दंड देने में समर्थ नहीं हो सक्ता है। राजा ऐसा हो जिसकी बुद्धि हर परिस्थिति में अविचलित रहे, जो दृढ़प्रतिज्ञ हो, स्थापित मियमों-परंपराओं पर टिका रहता हो। यह बात अगले श्लोक के प्रकाश में बेहतर समझ में आ सकती है। जैसा पहले कहा है, आज के लोकतांत्रिक युग में सत्ता पर आसीन जनप्रतिनिधि राजा का स्थान ग्रहण किए हुए हैं। यह अच्छी तरह देखने में आता है कि उनके निर्णय परिस्थिति के अनुसार बदलते हैं और वे निष्पक्ष रह नहीं पाते।

(४)

अपि भ्राता सुतोऽर्घ्यो वा श्वसुरो मातुलोऽपि वा ।

नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति धर्माद्विचलितः स्वकात् ॥३५८॥

अपि भ्राता, सुतः अर्घ्यः वा श्वसुरः मातुलः अपि वा, नादण्ड्यः नाम राज्ञः अस्ति धर्मात् विचलितः स्वकात्।

भाई, पुत्र, पूज्य जन, श्वसुर, एवं मामा, कोई भी अपने धर्म से विचलित होने पर राजा के लिए अदंडनीय नहीं होता है।

यह नीतिवचन स्पष्ट बताता है कि राजा के लिए निष्पक्ष बने रहना कितना कठिन हो सकता है, यदि उसका सामना नाते-रिश्तेदारों, मित्र-परिचितों आदि के अपराधों पर निर्णय देना होता है। उक्त छंद राजा को चेतावनी देता है कि शासकीय व्यवस्था में राजा के लिए कोई भी व्यक्ति अदंड्य, यानी जिसे दंडित होने से मुक्त रखा जा सके, नहीं होता। सामन्यतः जो उसका पूज्य होता है उसे भी अपराध करने पर दंडित करना राजा का कर्तव्य होता है। उसकी दृष्टि में जो भी व्यक्ति अपने कर्तव्यों के निर्वाह करने में लापरवाही वरते वह अपराधी माना जायेगा। दंड हल्का-फुल्का अथवा गंभीर हो सकता है, लेकिन उसका अपराध राजा के दृष्टि में क्षम्य नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि राजा का ध्यान केवल अपराध और उसकी गंभीरता पर केन्द्रित होना चाहिए। वह अपराध पर ध्यान दे न कि इस पर कि अपराधी कौन है।

     आधुनिक काल में सत्ता पर बैठे जनप्रतिनिधि स्वयं न्यायिक निर्णय नहीं लेते हैं, इसलिए उक्त बातें उन लोगों पर लागू होती हैं जिनके जिम्मे निर्णय लेना होता है। इस व्यवस्था में सत्तासीन जनों का कर्तव्य यह देखना होता है कि वे पूर्णतः निषक्ष रहकर निर्णय लें। ये बातें आदर्श की हैं और वास्तविक व्यावहारिक जीवन में कम ही देखने को मिलती हैं। – योगेन्द्र जोशी

परब्रह्म का पूर्ण ज्ञान किसी को है भी? – केनोपनिषद् में गुरु-शिष्य संवाद

 

वैदिक साहित्य में उपनिषदों को आध्यात्मिक ज्ञान के ग्रंथ कहा जाता है। यों तो बहुत से ग्रंथ हैं जिन्हें उपनिषद् कहकर संबोधित किया गया है जैसे सूर्योपनिषद्, मृतनादोपनिषद्, नारायणोपनिषद् आदि, किंतु केवल ११ उपनिषदों को ही प्रमुख उपनिषद् माना जाता है। ये उपनिषद् हैं –

(१) ईशावास्योपनिषद्

(२) ऐतरेयोपनिषद्

(३) कठोपनिषद्

(४) केनोपनिषद्

(५) छांदोग्योपनिषद्

(६) तैत्तिरिपनिषद्

(७) प्रश्नोपनिषद्

(८) माण्डूक्योपनिषद्

(९) मुण्डकोपनिषद्

(१०) वृहदारण्यकोपनिषद्

(११) श्वेताश्वतरोपनिषद्

इनमें वृहदारण्यक एवं छान्दोग्य उपनिषद् ग्रंथ अपेक्षया बड़े हैं। शेष सभी पर्याप्त छोटे हैं। सामान्यतः ये सभी भाष्य या टीका-टिप्पणी के साथ मुद्रित ग्रंथ के रूप में मिलते हैं। अन्यथा मंत्रों की संख्या तो बहुत कम रहती है, जैसे ईशोपनिषद् (ईशावास्योपनिषद्) में केवल १८ मंत्र हैं। कदाचित् यह उपनिषद् सर्वाधिक चर्चित है।

मैं इस आलेख में केनोपनिषद् के तीन मंत्रों का उल्लेख कर रहा हूं। इस उपनिषद् के दूसरे खंड में गुरु धर्मोपदेश देने के बाद शिष्य की परत्मात्म तत्व अर्थात् ब्रह्म की समझ के प्रति शंका व्यक्त करते हुए कहता है –

यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् ।

यदस्य त्वं यदस्य च देवेष्वथ नु मीमांस्यमेव ते मन्ये विदितम् ॥१॥

(यदि मन्यसे सु-वेद इति दहरम् एव अपि नूनम् त्वम् वेत्थ ब्रह्मणः रूपम्, यद् अस्य त्वम्, यद् अस्य च देवेषु, अथ नु मीमांस्यम् एव ते मन्ये विदितम् ।)

यदि मानते हो कि तुम ब्रह्म के स्वरूप को भली भांति जान चुके हो तो तुम्हारा ज्ञान वस्तुतः अल्पमात्र, है। तुम में और देवताओं में परमात्मा के अंश की विद्यमानता का तुम्हारा ज्ञान अवश्य ही विचारणीय है (भले ही वह अपर्याप्त है)। [वेत्थ = जानते हो । मेरी जानकारी में यह आया कि कुछ ग्रंथों में ‘दहरम्’ के स्थान पर दभ्रम् मुद्रित मिलता है। दोनों के अर्थ एक ही हैं – अल्प।]

शिष्य गुरु को बताता है कि

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।

यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥२॥

(न अहम् मन्ये सु-वेद इति, नो न वेद इति, वेद च, यः नः तद् वेद तद् वेद नो न वेद इति वेद च ।) [वेद = जानता हूं; नो = नहीं; (उपसर्ग) सु = अच्छी तरह]

अंतिम सत्य के रूप में ब्रह्मतत्व को पूर्ण रूप से जान चुका हूं ऐसा मैं नहीं मानता। मैं नहीं ही जानता ऐसा भी नहीं; जानता भी हूं। हम शिष्यों में जो उसे (ब्रह्म को) जानता है वही मेरे उक्त कथन “नहीं जानता ऐसा भी नहीं है; जानता भी हूं” इसका आशय समझता है।

मुझे यह इस मंत्र का निहितार्थ पहेली जैसा लगता है। शिष्य का यह कहना कि मैं नहीं जानता ऐसी बात नहीं है क्योंकि मैं जानता भी हूं। कदाचित् शिष्य का यह कहना है कि वह परब्रह्म को पूर्णरूपेण जान चुका है ऐसा दावा वह नहीं कर सकता; उसे अभी अपनी समझ पूर्णता तक ले जाना है। अगले मंत्र में यह भाव कुछ-कुछ स्पष्ट हो जाते हैं।

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद   सः ।

अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥२॥

(यथा पूर्वोक्त)

(यस्य अमतम् तस्य मतम्, मतम् यस्य न वेद सः अ-विज्ञातम् विजानताम् विज्ञातम् अ-विजानताम् ।)

परब्रह्म के ज्ञान का जिसका मत अव्यक्त है वही वस्तुतः जानता है। जो जान लेने का मत व्यक्त करता है वह वस्तुतः जानता नहीं है। जानने का अभिमान रखने वालों के लिए ब्रह्म जाना हुआ नहीं है और जो जानने का दावा नहीं करता वही उसे जानता है।

मुझे यह मंत्र भी एक पहेली-सा लगता है। कदाचित् कहने का प्रयास किया गया है कि ब्रह्मज्ञान भौतिक जगत् के सामान्य ज्ञान की भांति नहीं है। ब्रह्मज्ञान रहस्यमय है, अभौतिक-अलौकिक है, निर्वचनीय है, अभिव्यक्ति से परे है। असल ज्ञानी उसे जान लेने का अभिमान नहीं पालता। वह उसके बारे है कोई दावा करना उचित नहीं मानता है। यही संदेश कदाचित् इस मंत्र में दिया गया है। – योगेन्द्र जोशी

यथेयं पृथिवी मही … – अथर्ववेद में गर्ववती नारी के प्रति शुभेच्छा संदेश

प्राचीन वैदिक परंपरा में चार वेदों का उल्लेख हैः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद। इनमें से प्रथम तीन को प्रमुख वेद माना जाता है। उनमें देवताओं की स्तुति के मंत्र एवं उनके गायन, यज्ञादि कर्मों के संपादन एवं आध्यात्मिक दर्शन से जुड़े मंत्रों का संकलन ही मुख्यतः देखने को मिलता है। इन वेदों की अपनी-अपनी उपशाखाएं भी हैं और उनसे संबंधित उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण नामक अन्य ग्रंथ भी वैदिक साहित्य में शामिल मिलते हैं। चतुर्थ वेद, अथर्ववेद, किंचित् भिन्न है और मानव जीवन से जुड़े व्यावहारिक ज्ञान ही इसकी प्रमुख सामग्री बताई जाती है।

अथर्ववेद में एक स्थल पर गर्भिणी नारी के प्रति आशीर्वचन या कर्तव्यबोध के मंत्र पढ़ने को मिलते हैं (अथर्ववेद काण्ड ६, सूक्त १८, मन्त्र १-४)। इन्हीं का उल्लेख यहां पर किया जा रहा है। इन मंत्रों में नारी को वृहद् विस्तार वाली पृथिवी (पृथ्वी) की उपमा दी गयी है जो विभिन्न स्थावर (गतिहीन) एवं जंगम (गतिशील) प्राणियों तथा निर्जीव वस्तुओं को अपने में समाये रहती है, उनको आधार प्रदान करती है।  इन चारों मंत्रों के तृतीय-चतुर्थ चरण समान हैं। यहां प्रस्तुत इनके अर्थ सायण-भाष्य पर आधारित हैं। वैसे प्रयुक्त शब्दों को देखें तो इनके अर्थ स्वयं ही सुस्पष्ट हैं।

यथेयं पृथिवी मही भूतानां गर्भमादधे ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी भूतानाम् गर्भम् आदधे एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह महती पृथिवी (धरती) प्राणियों का गर्भ धारण करती है, उनके जीवन को आधार प्रदान करती है, उसी प्रकार (हे नारी) अपने गर्भ को धारण किए रहो ताकि समुचित परिपुष्टता पा चुकने के बाद गर्भ से प्राणी (शिशु) का प्रसव सुरक्षित संपन्न होवे [सामान्यतः मही पृथ्वी के पर्याय के तौर पर इस्तेमाल होता है, किंतु यहां भाष्यकार ने मही को महती, महत् का स्त्रीलिंग रूप = विस्तृत, लालन-पालन में समर्थ, विविधता से परिपूर्ण आदि अर्थ लिया है ऐसा मालूम होता है।]

यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान् वनस्पतीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी इमान् वनस्पतीन् दाधार एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह धरती इन वनस्पतियों – वृक्षों, झाड़ियों, विभिन्न प्रकार की अन्य वनस्पतियों को – पनपने और अपने स्थान पर स्थिर रहने का आधार प्रदान करती है उसी प्रकार (हे नारी) अपने … (यथा पूर्वोक्त)

यथेयं पृथिवी मही दाधार पर्वतान् गिरीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी गिरीन् पर्वतान् दाधार एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह पृथिवी पर्वतों और उनमें स्थित ऊंचे-ऊंचे शिलाखंडों को धारण किए हुए है, उनको स्थिरता प्रदान किए हुए है, उसी प्रकार (हे नारी) अपने … [यथा पूर्वोक्त]।

यथेयं पृथिवी मही दाधार विष्ठितं जगत् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी विष्ठितम् जगत् दाधार एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह पृथिवी विविध प्रकार के रूपों में अवस्थित चर-अचर, सजीव-निर्जीव संसार को अपने ऊपर धारण किए हुए है, उसी प्रकार (हे नारी) अपने … [यथा पूर्वोक्त]।

इन मंत्रों में गर्भवती नारी के लिए यह संदेश निहित है कि हे नारी, तुम्हारे गर्भ में पल रहा प्राणी वांछित गर्भकाल तक सुरक्षित रहे और समुचित समय आने पर प्रसव के लिए तैयार रहे। इसे आशीर्वचन अथवा कर्तव्य के प्रति ध्यान दिलाने के प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है।

भारतीय चिंतन में पाँच महायज्ञों और तीन ऋणों की बातें की गई हैं। (देखेँ – ब्लॉग प्रविष्टि 31 मार्च 2015)

१. देवऋण, २. ऋषिऋण, एवं ३. पितृऋण। पितृऋण के अंतर्गत बहुत से कार्य आते हैं जिनमें एक वंश परंपरा को आगे बढ़ाना भी है। उसी परंपरा के अनुरूप गर्भधारण और भावी संतान की सुरक्षा का संदेश यहां पर दिया है। – योगेन्द्र जोशी

चाणक्यनीतिदर्पण के चुने हुए वचन – २

दो आलेखों की इस शृखला के पहले लेख (दिनांक ११ मार्च) में मैंने “चाणक्यनीतिदर्पण” नामक पुस्तिका (ज्योतिष प्रकाशन, वाराणसी, २०००) से चुने हुए पांच नीतिश्लोकों को उद्धृत किया था। इस द्वितीय लेख में चुने हुए शेष पांच नीतिश्लोकों को मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। रोजमर्रा की व्यावहारिक जिंदगी में जो आम बातें देखने-सुसने अथवा अनुभव करने में आती हैं उन्हीं को इन कुल दस श्लोकों में आचार्य चाणक्य ने कही हैं। इन श्लोकों की भाषा पर्याप्त सरल है जिसे संस्कृत का थोड़ा-बहुत ज्ञान वाले व्यक्ति को समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। पिछले लेख़ के ५ छंदों के आगे क्रम ६ से आरंभ करते हुए प्रस्तुत हैं चयनित छंदः

[६]

तावद्भयेन भेतव्यं यावद्‍ भयमनागतम्।

आगतं तु भयं वीक्ष्य प्रहर्तव्यमशङ्कया ॥५-३॥

[तावत् भयेन भेतव्यम् यावद्‍ भयम् गतम्, आगतम् तु भयम् वीक्ष्य प्रहर्तव्यम् शङ्कया ]

भय से तभी तक डरें जब तक भय सामने न उपस्थित हो जाए। जब भय समक्ष प्रकट हो ही जाए तो उस पर निर्भीकता से प्रहार करना चाहिए।

मनुष्य स्वभावतः भयोत्पादक वस्तु या घटना की संभावना से भयभीत रहता है भले ही वैसी कोई चीज घटित ही न होवे। अर्थात् काल्पनिक भय से भी डर लगता है; अनिष्ट की  कल्पना ही डरा देती है। ऐसी संभावनाओं से बचना उचित है। फिर भी यदि ऐसी बात से सामना हो ही जाए तो उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए। भागने से तो कोई समाधान होना नहीं। कर्म करो यही संदेश इस कथन में निहित है।[७]

नैव पश्यति जन्मान्धः कामान्धा नैव पश्यन्ति ।

मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दोषं न पश्यति ॥६-८॥

[ व पश्यति जन्मन्धः, कामअन्धाः व पश्यन्ति, मदन्मत्ताः न पश्यन्ति, अर्थी दोषं न पश्यति ।]

जन्म से अंधा व्यक्ति देख नहीं पाता। “काम” से अंधे हुए लोग भी देख नहीं पाते। उन्मत्त लोग भी नहीं देख पाते। इसी प्रकार स्वार्थी व्यक्ति को भी दोष नहीं दिखता।

इस छंद में अंधा शब्द का अर्थ प्रसंगानुसार अलग-अलग है। जो व्यक्ति जन्मजात अंधा हो वह वाह्य संसार को देख नहीं सकता। लेकिन अन्य तीन स्थलों पर अंधापन का तात्पर्य है उचित-अनुचित का विवेक खो बैठना। “काम” का अर्थ सामान्यतः इच्छा-आकांक्षा से होता है चाहे वह नितांत अनुचित हो। “काम” यौनेच्छा के विशेष अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। तब कामांध का अर्थ काम-वासना से ग्रस्त व्यक्ति होता है। कामांध लोग अपनी वासना की पूर्ति के में कोई दोष नहीं देख पाते। नशे आदि से विवेक खो बैठे लोग भी अपने अनुचित कार्य के प्रति अंधे होते हैं। और इसी प्रकार स्वार्थों में डूबा व्यक्ति दूसरों के हित-अहित के प्रति अंधा होता है। प्रथम प्रकार के व्यक्ति का अंधापन समाज के लिए घातक नहीं होता और क्षम्य है। लेकिन शेष तीन दंड के योग्य कहे जाएंगे।

[८]

अर्थनाशं मनस्तापं गृहिणीचरितानि च ।

नीचवाक्यं चाऽपमानं मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥७-१॥

[अर्थनाशम्,नस्-ताम् गृहिणीचरितानि च नीचवाक्यम् पमानम्, मतिमान् प्रकाशयेत् ।]

धन की हानि, मन की पीड़ा, गृहिणी यानी पत्नी के चालचलन, नीच व्यक्ति के बोले वचन, और अपमान की घटना का जिक्र समझदार व्यक्ति किसी से न करे।

मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि कुछ लोग कामधंधे से जुड़े हानि-लाभ की, रिश्तेदारोँ-मित्रों से अच्छे-बुरे संबंधों की, परिवार की, और यहां तक कि पत्नी से संबंध आदि की बातें अजनबियों से तक कर डालते हैं। दरअसल ऐसे लोग निरीह और नासमझ होते हैं और अवश्य ही वे अपनी परेशानी दूसरे को बताकर मन हल्का करते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि सुनने वाला उन पर मन ही मन हंस सकता है और परिचित होने पर पीठ पीछे हंसी उड़ा सकता है। समाज में मदद करने वाले कम ही होते हैं। अतः समस्याओं का बखान जहाँ-तहां नहीं करना चाहिए।

[९]

नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्

छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ॥७-१२॥

[ त्यन्तम् सरलैः भाव्यम् गत्वा पश्य वनस्थलीम् छिद्यन्ते सरलाः तत्र कुब्जाः तिष्ठन्ति पादपाः ।]

बहुत अधिक सरल स्वभाव का नहीं होना चाहिए। वनस्थल में जाकर देखें कि कैसे सीधे तने वाले पेड़ किस प्रकार काटे जाते हैं और वहीं टेड़ेमेड़े पेड़ छोड़ दिए जाते हैं।

यहां एक उपमा के माध्यम से मनुष्य को अति सरलता से होने वाली हानि समझाने का प्रयास किया गया है। जंगल के वे पेड़ काटे जाते हैं जो सीधे-सपात होते हैं। ऐसी पेड़ इमारती काम और फर्नीचर आदि के लिए अच्छे रहते हैं। कुछ ऐसा ही सरल स्वभाव के व्यक्ति के साथ होता है। वस्तुतः ऐसे सरल व्यक्ति से लोग नाजायज लाभ लेने की कोशिश करते हैं। सरल एवं निष्कपट व्यक्ति दूसरों की बातें प्रायः टालता नहीं, उन पर विश्वास करता है, और मदद करने को तैयार हो जाता है। उसे यह एहसास नहीं हो पाता कि उसकी सिधाई का लाभ लेने से लोग चूकते नहीं। इसीलिए कहा है कि दुनियादारी के नजरिये से मनुष्य को चाहिए कि अति सरल स्वभाव न अपनावे।

[१०] 

विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान्सर्वत्र गौरवम् ।

विद्यायाः लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते ॥८-२०॥

[विद्वान् प्रशस्यते लोके, विद्वान् सर्वत्र गौरवम्, विद्यायाः लभते सर्वम्, विद्या सर्वत्र पूज्यते ।]

विद्वान व्यक्ति की संसार में प्रशंसा होती है, सर्वत्र उसे गौरव-सम्मान मिलता है। विद्या के द्वारा सभी लाभ प्राप्त होते हैं। विद्या ही है जिसकी सर्वत्र पूजा होती है।

इस नीति-वचन में विद्या और उससे जुड़ी विद्वता की जो महत्ता बताई गई है वह आज के जमाने में किस हद तक सही है इसमें मुझे शंका है। कदाचित प्राचीन काल में विद्वानों का सम्मान होता था। किंतु इस युग में समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसकी संपन्नता पर केंद्रित देख़ी जाती है। विद्या का महत्व भी संपन्नता अर्जित करने में ही रहती है। अवश्य ही विद्या का महत्व है किंतु इसलिए नहीं कि उससे ज्ञान प्राप्त होता है बल्कि इसलिए कि उससे रोजगार एवं नौकरी-पेशे में सफलता मिलती है। अस्तु विद्या का महत्व तो है ही भले ही वह देशकाल के अनुसार बदलता रहे। – योगेंद्र जोशी

चाणक्यनीतिदर्पण के चुने हुए वचन – १

मेरे पास “चाणक्यनीतिदर्पण” नामक पुस्तिका (ज्योतिष प्रकाशन, वाराणसी, २०००) है  जिसमें अपने काल के सुविख्यात राजनीतिवेत्ता चाणक्य के छंद-निबद्ध नीतिवचन संकलित हैं, कुल ३४१ छंद १७ अध्यायों में वितरित। इन्हीं में से कुछ चुने हुए वचन यहां प्रस्तुत किए गये हैं।

[१]

यो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवं परिषेवते ।

वाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव ही ॥अध्याय १-१३॥

[यः ध्रुवाणि परि-त्यज्य हि अ-ध्रुवम् परि-सेवते, ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति, अ-ध्रुम् नष्टम् एव ही ।] (ध्रुव = सुनिश्चित)

अर्थ – जिसकी सफलता पाना सुनिश्चित हो उस कार्य को छोड़कर जो व्यक्ति अन्य ऐसे कार्य में जुटता है जिसकी सफलता की संभावना क्षीण हो तो उसके लिए पहला कार्य तो निष्फल हो ही जाता है और दूसरे में भी विफलता निश्चित है।

कहते हैं “पूरी छोड़ आधी को धावे, पूरी मिले न आधी पावे” । इसका उदाहरण आधुनिक जीवन के अंधी दौड़ में देखने को मिलती है। मैंने अनुभव किया है कि कई अभिभावक अपने बच्चे को जबरदस्ती डॉक्टर-इंजीनियर बनाने पर तुले रहते हैं जब कि उसकी रुचि किसी अन्य विषय – यथा लेखन, संगीत, या खेलकूद आदि – में रहती है। वे पहले में सफल हो नहीं पाते और समुचित प्रयास एवं अभ्यास के अभाव में दूसरा भी छूट चुकता है। अंत में हताशा हाथ लगती है।

[२]

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भपयोमुखम् ॥२-५॥

[परोक्षे कार्य-हन्तारम्, प्रत्यक्षे प्रिय-वादिनम्, वर्जयेत् तादृशम् मित्रम्, विष-कुम्भ-पयस् मुखम् ।] (प्रत्यक्ष = आंखों से सामने, परोक्ष = पीठ पीछे)

अर्थ – परोक्ष में जो काम बिगाड़ने की जुगत में लगा रहता है किंतु प्रत्यक्षतः यानी सामने मीठी-मीठी बातों से लुभाता है ऐसे मित्र से बचकर रहना चाहिए। वह विष से भरे उस घड़े के समान होता है जिसके मुख पर यानी उपरी हिस्से में दूध भरा है। अर्थात्‍ ऐसा मित्र धोखा दे इसकी संभावन प्रबल होती है।

यह नीतिवचन बताता है व्यक्ति को बुद्धिमत्ता से यह पता लगाना चाहिए कि खुद को मित्र बताने वाला मनुष्य क्या वास्तविक सुहृद है। कई जन सामने मीठा-मीठा बोलने वाले होते हैं लेकिन पीठ पीछे स्वार्थवश अहित करने से नहीं चूकते। दरअसल वास्तविक हितैषी आमने-सामने कटु बोलने से नहीं परहेज नहीं करता यदि वह हितकर हो। वह अपने मित्र को सतही तौर पर खुश नहीं रखता।

[३]

दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः ।

सर्पो दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे ॥३-४॥

[दुर्जनस्य च सर्पस्य वरम् सर्पः न दुर्जनः, सर्पः दंशति काले तु, दुर्जनः तु पदे पदे ।]

अर्थ – दुर्जन मनुष्य एवं सांप में सांप ही अपेक्षया बेहतर है। सांप तो तब डंसता  है जब समय वैसी परिस्थिति आ पड़े, किंतु दुर्जन तो पग-पग पर नुकसान पहुंचाता है।

 दुर्जन वह है जिसके स्वभाव में सकारण-अकारण दूसरों को हानि पहुंचाना निहित होता है। जब भी मौका मिले वह दूसरे का अहित साधने में चूकता नहीं भले ही ऐसा करने में उसका कोई लाभ न हो। सांप ऐसी योजना नहीं बनाता; वह तो केवल अपने बचाव में डंसता है आवश्यक हो जाने पर।

[४]

लालयेत्पञ्चवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् ।

प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ॥३-१८॥

[लालयेत् पञ्च वर्षाणि, दश वर्षाणि ताडयेत् प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रम् मित्रवत् आचरेत् ।] (यहां पुत्र = संतान)

अर्थ – मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी संतान को आरंभिक पांच वर्ष तक लाड़प्यार से पाले। उसके बाद दस वर्ष की आयु तक उसके साथ डांटडपट से पेश आये। किंतु संतान के सोलहवें वर्ष में पहुंचने पर उसके साथ मित्र की तरह व्यवहार करे।

यहां पर उल्लिखित पांच, दस, पंद्रह की संख्याओं को शब्दश: लेने की आवश्यकता नहीं। उक्त छंद मेरे मत में यह संदेश देता है कि शैशवावस्था एवं आरंभिक बाल्यावस्था में संतान को सही-गलत का ज्ञान नहीं होता। इस अवस्था में वह संसार से परिचित होता है और शनै:शनैः सीखता है कि क्या हानिकर है और क्या नहीं। इस काल में एक प्रकार से अज्ञानी होने के कारण बालक-बालिकाएं क्षमा एवं लाड़प्यार के अधिकारी होते हैं। परंतु इस उम्र के आगे उन्हें खतरों का एहसास होने लगता है और उन्हें अपने बड़ों से कोई काम करना ठीक होगा या नहीं की समझ मिलने लगती है। उम्र के इस अंतराल की शुरुआत में लाड़प्यार और डांटडपट-मारपीट दोनों को मौके की नजाकत के हिसाब से प्रयोग में लिया जाना चाहिए। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है ताड़ना कम और समझाना-बुझाना अधिक होते जाना चाहिए। अंत में युवावस्था में पहुंचते-पहुंचते बल-प्रयोग बंद करके माता-पिता को चाहिए कि संतान के साथ मित्र की भांति व्यवहार करे, अर्थात्‍ बातचीत करते हुए और एक-दूसरे का दृष्टिकोण समझते हुए वे निष्कर्षों पर पहुंचें।

[५]

त्यजेद्धर्मं दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत् ।

त्यजेत्क्रोधमुखीं भार्याम्निःस्नेहान्बान्धवांस्त्यजेत्  ४-१६॥

[त्यजेत् धर्मम् दया-हीनम् विद्या-हीनम् गुरुम् त्यजेत् त्यजेत् क्रोध-मुखीम् भार्याम् निः-स्नेहान्-बान्धवान् त्यजेत् ।]

अर्थ –  मनष्य को चाहिए कि उस धर्म को त्याग दे जिसमें दयाभाव न हो, उस गुरु को छोड़ दे जो विद्याहीन हो, मुख पर जिसके सदैव क्रोध झलकता हो ऐसी पत्नी को त्याग दे, और जिनके व्यवहार में स्नेह न हो उन बांधवों से मुक्त हो जावे।

धर्म के अर्थ बहुत व्यपक होते हैं। उसका एक पक्ष आध्यात्मिक ज्ञान होता है, लेकिन इस स्थल पर धर्म से तात्पर्य समाज एवं प्राणिजगत के प्रति आचरण से है ऐसा मेरा मानना है। (१) दूसरों के प्रति दयाभाव रखना इस आचरण में निहित होना चाहिए जो परोपकार के रूप में, मधुर वाणी में, निःस्वार्थ सेवा आदि में परिलक्षित हो। जिस सामाजिक तौर-तरीकों में यह आचरण न हो वह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। (२) गुरु वही होना चाहिए जो पढ़े-लिखे के आगे अनुकरणीय आचरण पेश करने की समझ रखे। उसका ज्ञान कोरी विद्या तक सीमित न हो। (३) असल पत्नी वही है जो मधुरभाषी एवं शान्त स्वभाव की हो। (४) अंत में नाते-रिश्तेदार परस्पर प्रेमभाव न रखें तो उनसे संबंध रखना व्यर्थ है। – योगेन्द्र जोशी

“यदा यदा हि धर्मस्य …” – ब्लॉग-प्रविष्टियों पर आक्रोश-मिश्रित असहमति

“भगवान श्री कृष्ण के प्रति आपके विचार बहुत ही दुख दायक है |आप भगवान के उद्देश्यों को समझ नहीं पाये अतः आपके मन में शंकाएं हैं, आप हिंदू धर्म को भी नहीं समझ पाए सनातन धर्म को भी नहीं समझ पाए| आपके धर्म को अपने आचरण में ना ढालने के कारण ही धर्म की हानी हुई है | अतः आपसे निवेदन है की भगवान श्रीकृष्ण पर गलत टिप्पणी ना करें अगर विश्वास नहीं कर सकते तो दूसरों के विश्वास को कमजोर करने का प्रयास ना करें आप सनातन धर्म को मानने वाले हैं तो धर्म की रक्षा के लिए कृपया धर्म विरोधी बात ना करें | धन्यवाद |”  [Mon, 4 Nov, (2019) को प्राप्त ई-मेल का पाठ]

नौ वर्ष पूर्व २००९ में मैंने अपने ब्लॉग vichaarsankalan.wordpress.com पर दो लेख प्रस्तुत किए थे। प्रथम लेख (2010-07-26)  महाभारत में वर्णित भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा युद्ध के प्रति प्रेरित करने हेतु अर्जुन को दिये गये उपदेश “यदा यदा हि धर्मस्य …” आदि पर आधारित था, और दूसरा लेख (2010-08-03) युद्ध पश्चात् उसके दुष्परिणामों को लेकर क्रुद्ध गांधारी के साथ श्रीकृष्ण के संवाद पर आधारित।

यहां पर याद दिला दूं कि महाकाव्य महाभारत के भीष्मपर्व के १८ अध्याय (अध्याय २५ से ४२ तक) ही श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से जाने जाते हैं और ये स्वतंत्र पुस्तक के तौर पर भी उपलब्ध हैं। इसी पुस्तक में “यदा यदा हि धर्मस्य …” आदि श्लोक मिलते हैं जिनका जिक्र मेरे पहले लेख में किया गया है। दूसरे लेख की सामग्री महाभारत के स्त्रीपर्व के अध्याय २५ पर आधारित है (श्लोक संख्या ४० से ४४ तक)।

इन लेखों पर मुझे यदा-कदा कुछ पाठकों की प्रतिक्रियाएं मिली थीं। अभी भी मिल जाती हैं। आरंभिक प्रतिक्रियाओं से ही मुझे लग गया था कि बहुतों को मेरी उक्त ब्लॉग-प्रविष्टियां अनुचित, अस्वीकार्य एवं धर्म (तात्पर्य हिन्दू धर्म) के विरुद्ध लगीं। कुछ पाठकों ने अपनी प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट रूप से नाखुशी अथवा उसके आगे आक्रोश भी व्यक्त किया था। उनकी टिप्पणियों से लगा कि मुझे उन लेखों को मिटा/हटा देना चाहिए था, किंतु वैसा करने का मैं इच्छुक नहीं था। उसके विपरीत मैंने लेखों के आरंभ में अपनी ओर से ही अधोलिखित टिप्पणी शामिल कर ली –

“मैं अपने जो विचार यहां लिख रहा हूं उनसे कई जन असहमत होंगे। कई जन आक्रोषित भी हो सकते हैं। मेरी प्रार्थना है कि जैसे ही आपको लगे कि विचार निकृष्ट हैं, आप आगे न पढ़ें। असहमत होते हुए भी यदि पढ़ना स्वीकार्य हो तो अपना ख़ून खौलाए बिना इन बातों को किसी मूर्ख अथवा सनकी की बातें समझकर अनदेखी कर दें और बड़प्पन  दिखाते हुए मुझे क्षमा कर दें। धन्यवाद, शुक्रिया, थैंक्यू।”

मैं समझता था कि इस टिप्पणी के बाद पाठकों की टिप्पणियां असहमति के शब्दों तक सीमित एवं संक्षिप्त रहेंगी। मुझे उम्मीद थी कि “आप धर्म विरोधी हैं”, “आप हिन्दुओं को बदनाम कर रहे हैं”, “आपको प्राचीन ग्रंथों की कोई समझ नहीं है”, “ऐसा अनर्गल लिखना बंद करें” आदि जैसे उद्गार लिखते हुए पाठकवृंद स्वयं को सर्वज्ञ एवं धर्मज्ञ होने का एहसास मुझे नहीं दिलाएंगे। इस लेख के शीर्ष पर (आरंभ में) मेरे लेख/लेखों पर मिली सबसे हालिया टिप्पणी है एक बानगी के तौर पर न कि अपनी खुशी-नाखुशी व्यक्त करने के लिए।

मेरा मन हुआ कि क्यों न इस प्रकार की टिप्पणियों को पाकर अपने मन में उठने वाले विचारों पर ही कुछ लिख डालूं। मेरी इस वैचारिक प्रस्तुति पर भी तरह-तरह की दिलचस्प प्रतिक्रियाएं संभव हैं। हो सकता है कोई कुछ लिख भी भेजे या मन में पसंद-नापसंद के भाव के साथ चुप्पी ही साध ले।

(१)

मैंने आरंभ में जिस टिप्पणी का जिक्र किया था उसके इस वाक्य पर गौर करें:

“… अगर विश्वास नहीं कर सकते तो दूसरों के विश्वास को कमजोर करने का प्रयास ना करें …”

पाठकवृंद विचार करें कि यदि किसी व्यक्ति का विश्वास इतना कमजोर हो कि मुझ जैसे अदने आदमी के कुछ कहने पर उसका विश्वास डिग जाए तो ऐसी कमजोर धारणा विश्वास कहे जाने योग्य नहीं रह जाएगा। विश्वास तो तब कहा जाएगा जब धारणा इतनी मजबूत हो कि ऐसी-वैसी बातों से बदल न सके। यदि विश्वास टूट जाए तो इसका मतलब यही होगा कि विश्वास महज सतही और केवल दिखावे का होगा; अन्यथा यह माना जाएगा कि सामने वाले की बातों में इतना दम होगा कि सुनने वाला प्रभावित हो जाए।

अब निर्णय करें कि मेरी औकात ऐसे होगी? मैं कोई सुप्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं हूं जिसे लोग धर्मवेत्ता, ज्ञानी, विद्वान्‍, या धर्मांतरण कराने वाला आदि के तौर पर जानते हों। आपके विश्वास की मजबूती आपके हाथ में है न कि मेरे कथनों!

(२)

टिप्पणी का अगला अंश देखिए:

“… हिंदू धर्म को भी नहीं समझ पाए सनातन धर्म को भी नहीं समझ पाए| आपके धर्म को अपने आचरण में ना ढालने के कारण ही धर्म की हानी हुई है …”

जरा सोचिए अकेले मेरे कारण तो धर्म की हानि नहीं होनी चाहिए। इस विशाल जनसंख्या वाले देश में मुझ जैसे कुछ सिरफिरे धर्म को हानि पहुंचाने के आपत्तिजनक कार्य यदि कर रहे हों तो मात्र उतने से धर्म की हानि होने लगे तो यह आश्चर्य की बात मानी जानी चाहिए, विशेषतः जब धर्म में व्यापक जनसमुदाय लगा हुआ हो। अवश्य ही देश में धर्मकर्म में लगे रहने वालों की संख्या विशाल होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं है और धर्म को हानि से बचाने वालों की संख्या अपर्याप्त है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा?

(३)

चाहे हिन्दी हो या संस्कृत अथवा अंग्रेजी, मेरा भाषाज्ञान उत्कृष्ट स्तर का है यह दावा मैं नहीं करता। फिर भी इन भाषाओं की थोड़ी बहुत – अपनी जरूरत के हिसाब से पर्याप्त – जानकारी मुझे है ऐसा विश्वास करता हूं। विद्वान्‍ पाठकवृंद कदाचित्‍ हिन्दी-संस्कृत में चर्चित शब्द-शक्ति से परिचित होंगे। श्रीमद्भगवद्गीता के जिन श्लोकों का उल्लेख मैंने अपने संबंधित आलेखों में किया है उनकी व्याख्या मैंने सहज रूप से “अभिधा शब्दशक्ति” के आधार पर की है। शब्दों के प्रचलित अर्थों के आधार पर मैं जो समझ पाया वही मैंने लिखा। यदि उन श्लोकों में कोई गूढ़ संदेश छिपा हो जिसको समझ पाना शब्दों के सामान्य अर्थों के अनुसार संभव न हो तो बात अलग होगी। परंतु मेरी व्याख्या से ये निष्कर्ष निकालना क्या उचित होगा कि मैं अधर्म का प्रचार कर रहा हूं?

(४)

चूंकि आलोचक सज्जन ने मेरे द्वारा धर्म को हानि पहुंचाने की बात उठाई है तो मैं धर्म की अपनी समझ की बात करना चाहूंगा। मैं महाभारत के अधोलिखित श्लोक से अपनी बात शुरू करता हूं:

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।

धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः सः पन्थाः ।।

         (महाभारत, वनपर्व, अध्याय ३१२ एवं ३१३ में वर्णित)

महाभारत महाकाव्य में यक्ष-युधिष्टिर संवाद का जिक्र है जिसमें यक्ष युधिष्टिर से कुछ प्रश्न पूछते हैं उन्हीं में एक धर्म से संबधित है। (मैं कथा का उल्लेख नहीं कर रहा हूं।) उसी के उत्तर में उपर्युक्त श्लोक है जिसका अर्थ इस प्रकार दिया जा सकता है:

जीवन-निर्वाह कैसे हो इस पर सुस्थापित तर्क नहीं हैं। श्रुतियां (शास्त्रीय स्रोत) के मत में भी विविधता है। कोई ऋषि-मुनि नहीं है जिसका मत अंतिम प्रमाण कहा जाए। धर्म का मर्म तो गुहा (गुफा) में छिपा है, यानी बहुत गूढ़ है। ऐसे में समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है वही अनुकरणीय मार्ग है (धर्म है)।

प्राचीन काल में प्रतिष्ठित वह माना जाता था जो चरित्रवान् हो, कर्तव्यों का पालन करता हो, दूसरों के प्रति संवेदनशील हो, समाज के हितों के लिए समर्पित हो, सत्यनिष्ठ, क्षमाशील एवं चरित्रवान हो, इत्यादि। उसी का आचरण अनुकरणीय है, उसी से धर्म का तत्व समझा जा सकता है। वर्तमान युग में इस शब्द के अर्थ बदल चुके हैं। आजकल प्रतिष्ठित उसे कहा जाता है जो धन-संपदा से सुसंपन्न हो या किसी व्यावसायिक क्षेत्र-विशेष में सुसफल हो या शासकीय-प्रशासकीय अधिकार-प्राप्त हो अथवा अन्य अधिकारों से लैस हो इत्यादि।

उपर्युक्त कथन से मैं यही निष्कर्ष निकालता हूं अपने आचरण का उत्तरोत्तर परिष्करण करना और यथासंभव समाज का हित साधना धर्म है। गंगास्नान करने, मंदिर में पूजापाठ करने, प्रतिदिन नियमतः गीतापाठ करने, गेरुआ वस्त्र धारण करने या माथे पर चंदन-रोली तिलक लगाने आदि से व्यक्ति की धर्मनिष्ठा सिद्ध नहीं होती। यह सब समाज में समय-समय पर आईं परंपराएं हैं, जिनका कुछ जन निर्वाह करते हैं। किंतु सत्यनिष्ठा, परोपकार, अहिंसा, मधुर व्यवहार, चोरी-घूसखोरी आदि से परहेज, आदि व्यक्ति का आचरण व्यक्त करते हैं। जो व्यक्ति रोजगंगा-स्नान करे लेकिन घर के प्रवेशद्वार पर आए जरूरतमंद को दुत्कारकर भगा दे तो क्या उसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति कहा जा सकता है? उसे धर्म को हानि पहुंचाने वाला नहीं कहेंगे? और इस प्रकार के आचरण वाले समाज में कम हैं क्या? तो उन सब को धर्मच्युत होने से आप कैसे रोक रहे हैं?

(५)

अनेक सवाल मेरे मन में उपजते हैं: आप धर्म को हानि पहुंचा रहे हैं कहने वाले बता सकते हैं कि उनकी राय भगवान्‍ बुद्ध (जिन्हें भगवद्‍-अवतारों में गिना जाता है) के बारे क्या है? उन्होंने तो हिन्दू मान्यताओं को ही त्याग दिया, यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व को ही नकार दिया? इसी प्रकार जैन तीर्थंकरों के बारे में उनकी राय क्या रही है? सिक्ख विचारों के प्रणेता गुरु नानक जी को  धर्म विरोधी कहा जाएगा या नहीं? आधुनिक काल की बात करें तो स्वामी दयानंद सरस्वती की ओर ध्यान जाता है जो मूर्तिपूजा के विरोधी थे। वे क्या धर्म विरोधी थे? यदि नहीं तो क्या वे दूसरे लोग धर्म विरोधी कहे जाएंगे जो मूर्तिपूजा करते हैं?

(६)

मैंने ऊपर (५) के अंतर्गत सप्रयोजन प्रश्न उठाए हैं। हिन्दू धर्म है क्या? कोई स्पष्ट परिभाषा है क्या? भौतिकी (फ़िज़िक्स) का शिक्षक होने के वाबजूद मेरी रुचि संस्कृत में रही है और उसे सीखने की कोशिश की है। अपने उस संस्कृत-ज्ञान – भले ही वह उच्च स्तर का न हो – की मदद से मैंने कुछ प्राचीन संस्कृत ग्रंथ पढ़े हैं। ये ग्रंथ वाल्मिकीय रामायण, महाभारत महाकाव्य तो हैं ही, इसके अतिरिक्त ग्यारह प्रमुख उपनिषद्‍ भी हैं। वेदों को समझने का भी प्रयास किया है, और मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति का भी अध्ययन किया है। मैंने कहीं पर भी “हिन्दू धर्म” परिभाषित नहीं पाया।

दो बातें यहां पर कहना चाहूंगा:

(१) यह कि “हिन्दू” शब्द संस्कृत मूल का न होकर अरब-वासियों का इस देश के बाशिंदों के लिए प्रयुक्त शब्द रहा है (दरअसल हिन्दी) और मध्यकाल में ही प्रचलन में आया। यहां के प्राचीन बाशिंदों ने अपने लिए भारती(य) शब्द चुना था जिसका उल्लेख विष्णुपुराण (विष्णुपुराण, २.३.१) में मिलता है।

(२) प्राचीन ग्रंथों से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि धर्म शब्द व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्द (Proper Noun) है न कि “मजहब” या रिलीजन (Religion) का पर्याय, जैसा कि आम तौर पर प्रचलित धारणा है। चाहे जैन ग्रंथों को देखें या बौद्ध ग्रंथ या हिन्दू ग्रंथ सभी में धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है जो मनुष्य के मूलभूत कर्तव्यों को इंगित करता है। जैसा पहले कहा गया धर्म के अंतर्गत सत्यवादिता, अहिंसा, परोपकारिता, आदि जैसी समष्टि के हित की बातें शामिल रहती हैं। इसे कभी-कभी सनातन भी कहा गया है, अर्थात् देश-काल से निरपेक्ष समस्त मानव समाज के लिए निर्धारित कर्तव्य। रिलीजन या मजहब में ये भाव नहीं जितना मैं समझ पाया हूं। धर्म में कोई आध्यात्मिक दर्शन शामिल नहीं है।

हिन्दू धर्म (प्रचलित अर्थ में प्रयुक्त कर रहा हूं) में यह स्वीकारा गया है कि समाज में स्वाभाविक तौर पर मत-मतांतर होते हैं। यहां उपनिषदों की अपनी-अपनी समझ से व्याख्या करके ऋषि-मुनियों ने विविध दर्शन प्रस्तुत किए हैं जिनमें छ: दर्शन (षड्दर्शन – न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदांत) प्रमुख हैं। उपनिषद “नेति नेति” कहकर यह यह स्पष्ट करते हैं कि हर व्यक्ति को स्वतंत्र चिंतन की छूट है। हरएक अपना मत दूसरों के समक्ष रख सकता है परंतु उन्हें अन्यों पर थोपने का अधिकार नहीं रखता है। यही कारण है कि यहां द्वैतवाद भी है और अद्वैतवाद भी है, मूर्तिपूजा भी है और उसका विरोध भी, ईश्वरवाद भी है और अनीश्वरवाद भी, इत्यादि। लोकायत के प्रवर्तक चारवाक्‍ कहते थे कि न आत्मा है न परमात्मा, जो भी है यही भौतिक संसार है। वे भी हिन्दू ही थे। (यावत्‍ जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत् । भष्मीभूतशरीरस्य पुनरागमनं कुतः ॥)

अपने समाज में कोई नहीं जो निर्णय करे कि कौन हिन्दू है और कौन नहीं? दरअसल “हिन्दू धर्म” में मत-मतांतर सामान्य बातें हैं और सभी से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने मत के साथ दूसरे के मतभेद का अधिकार न छीने। किसी को भी यह अहंकार नहीं होना चाहिए कि वह स्वयं सर्वज्ञानी है और दूसरा अज्ञानी। व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपना वैमत्य शालीनता एवं सम्मान के साथ व्यक्त करे। मैं कई मौकों पर ऐसा न होते हुए पाता हूं।

इस आलेख को लिखते समय मुझे एक अन्य टिप्पणी मिली जो इस प्रकार है:

Mahoday aapka naam mere isht ke naam par rakha gya hai, yah jaankar atyant harsh hua, yogesh ji Ek baar sandhya aarti ke pashchaat nidhivan padhariye , sambhavtah aapka Bhram door ho sake,
……Apka …..”
[Mon, 16 Nov, (2019) को प्राप्त ई-मेल का पाठ]

मेरे इस आलेख का प्रयोजन अपनी कुछ मान्यताओं या जानकारियों को स्पष्ट करना था, जो आपके मत में अस्वीकार्य या यथार्थ से परे हो सकती हैं। -योगेन्द्र जोशी

 

चाणक्य नीति – राजकर्मचारी राजा से कैसा व्यवहार करे (भाग २)

     दो लेखों की शृंखला का यह मेरा दूसरा लेख है। मैंने पिछले एवं शृंखला के पहले लेख में चाणक्य, जिन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना है, के ग्रंथ “कौटिलीय अर्थशास्त्र” का जिक्र किया था जिसमें राजा के और उसके प्रशासनिक तंत्र की कार्य-प्रणाली की विस्तृत चर्चा की गयी है। शासन के विभिन्न पहलुओं जैसे आर्थिक तंत्र, न्यायिक व्यवस्था, लोक-कल्याण, प्रजा के अधिकार एवं दायित्व, आदि के विषय पर ग्रंथकार ने एक निष्ठावान राजनीतिज्ञ के तौर पर अपना मत व्यक्त किया है।

     इस ग्रंथ के विषयानुसार लिखित अधिकरणों में से एक में राजकर्मचारी के दायित्वों, राजा के प्रति शालीन व्यवहार, और राजा के रोष से बचने की सावधानी आदि की बातें बताई गई हैं (कौटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण ५, अध्याय ४)। उक्त ग्रंथ के संबंधित ३ छंदों (श्लोकों) का उल्लेख मैं पिछले ब्लॉग-लेख (१९ अक्टूबर) में कर चुका हूं। शेष ४ चार श्लोक यहां पर प्रस्तुत किये जा रहे हैं। मेरे उद्धरण उक्त ग्रंथ की चौखंबा विद्याभवन द्वारा प्रकाशित प्रति पर आधारित हैं जिसमें छंदों के अर्थ हिन्दी में दिए गये हैं (कौटिलीय अर्थशास्त्र, संपादक: वाचस्पति गैरोला, प्रकाशक: चौखंबा विद्याभवन, वाराणसी, २००६) ।

(४)

अनर्थ्याश्च प्रिया दृष्टाश्चित्तज्ञानानुवर्तिनः ।

अभिहास्येष्वभिहसेद्‍ घोरहासांश्च वर्जयेत्‍ ॥

(चित्त-ज्ञान-अनुवर्तिनः अन्-अर्थ्याः च प्रियाः दृष्टाः, अभिहास्येषु अभिहसेत्, घोर-हासान् च वर्जयेत्।)

यह देखने में आता है कि राजा क्या चाहता है इस बात की समझ रखने वाले अनर्थकारी जन भी राजा के प्रिय बन बैठते हैं। राज्यकर्मी को चाहिए कि राजा की हास्य की बातों पर स्वयं भी हंस देना चाहिए, किंतु जोर-जोर से (ठहाका मारते हुए) हंसने से बचना चाहिए।

     यह श्लोक वस्तुतः बताता है कि चाटुकारिता उस व्यक्ति को भी राजा का प्रिय बना देता जो उसका वास्तविक हितैषी न हो। चाटुकारिता एक कला है, जिसमें हर कोई निपुण नहीं हो सकता है। समाज में ऐसे लोग मिल जाते हैं जो मीठा बोलने में माहिर होते हैं, लेकिन मौका मिलने पर धोखा दे जाते हैं। ग्रंथकार की राज्यकर्मी को यह सलाह है कि इस संभावना को स्वीकारते हुए वह अपना व्यवहार निश्चित करे।

(५)

परात् संक्रामयेद्‍ घोरं न च घोरं स्वयं वदेत् ।

तितिक्षेतात्मनश्चैव क्षमावान् पृथ्वीसमः ॥

(घोरम् परात् संक्रामयेद्‍, घोरम् च न स्वयम् वदेत्, आत्मन: च एव पृथ्वी-समः क्षमावान् तितिक्षेत् )

राज्यकर्मी को चाहिए कि अनिष्ट-द्योतक भयप्रद बात को किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से (यानी परोक्ष रूप से) राजा तक पहुंचाए न कि उसे सीधे स्वयं ही कह डाले। राजा के ज्ञान में बात के आने पर यदि प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न हो जाए तो स्वयं पृथ्वी की तरह क्षमाशील होकर परिणाम सह जावे।

     उपर्युक्त की मैं यों व्याख्या करता हूं: परोक्ष तौर पर अप्रिय समाचार पाने पर कोई व्यक्ति उस पर शंका करके वास्तविकता का सामना करने को मानसिक तौर पर तैयार हो जाता है। किंतु यदि वास्तविकता को प्रत्यक्षतः जानने वाला सीधे सामने पहुंचकर उसका बखान करे तो उससे उसे गंभीर धक्का लग सकता है।

(६)

आत्मरक्षा हि सततं पूर्वं कार्या विजानता ।

अग्नाविव हि सम्प्रोक्ता वृत्ती राजोपजीविनाम्‍ ॥

(अग्नौ इव हि सम्प्रोक्ता: वृत्तीः राज-उपजीविनाम्, विजानता पूर्वम् सततम् हि आत्म-रक्षा कार्या ।)

समझदार राज्यकर्मी को चाहिए कि वह राजा के रोष से अपने बचाव के लिए निरंतर तैयार रहे। राज्य पर आश्रित राज्यकर्मी की जीवनवृत्ति को अग्नि में पड़ने के समान कहा गया है, यानी राजा कब किस बात पर नाखुश हो जाए यह अनिश्चित रहता है।

     अगले श्लोक में उक्त बात को अधिक स्पष्ट किया गया है।

(७)

एकदेशं दहेदग्निः शरीरं वा परङ्गतः ।

सपुत्रदारं राजा तु घातयेद्‍ वर्धयेत वा ॥

(एक-देशम् दहेत् अग्निः, राजा तु शरीरम् स-पुत्र-दारम् घातयेद्‍ वर्धयेत वा ।)

अग्नि तो शरीर का कोई एक हिस्सा या पूरा शरीर ही जलाता है। किंतु राजा पत्नी एवं संतान समेत राज्यकर्मी को नष्ट कर सकता है या उसको आगे बढ़ा सकता है।

     यदि राजा क्रोधित हो जाए तो राज्य़कर्मी को ही नहीं उसके पूरे परिवार का अनिष्ट कर सकता है और यदि वह प्रसन्न  हो जाये तो पुरस्कृत कर सकता है या अन्य प्रकार से भला कर सकता है।

     इन श्लोकों का संदेश यही है कि राज्यकर्मी को राजा के मन में क्या है यह जानने-समझने का प्रयास करना चाहिए और उसी के अनुसार उसके प्रति व्यवहार करना चाहिए। उसे राजा की नाखुशी के प्रति सचेत रहना चाहिए। जहां तक चाटुकारिता का प्रश्न है लगता है यह सदा से ही मानव समाज में रहा है। प्राचीन काल में यह अपेक्षया कम रहा होगा ऐसा मेरा मानना है। आधुनिक जीवन में यह शायद अधिक ही है क्योंकि भौतिक उपलब्धियां ही आधुनिकता में महत्व रखती हैं। उसे पाने के लिए शक्तिसंपन्न लोगों को खुश करने की जरूरत होती है। धर्म-कर्म, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क आदि अहमियत खो चुके हैं। – योगेन्द्र जोशी

 

चाणक्य नीति – राजकर्मचारी राजा से कैसा व्यवहार करे (भाग १)

अपने समय (लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व) के कुशल एवं अप्रतिम राजनीतिज्ञ चाणक्य के नाम से शायद ही कोई अपरिचित होगा। राजनीति के क्षेत्र में चाणक्य इतने चर्चित रहे हैं कि आधुनिक काल में राजनीतिक सूझबूझ में माहिर नेता को चाणक्य कहा जाता है। चाणक्य का असल नाम विष्णुशर्मा था, लेकिन चणक पुत्र होने के नाते उन्हें चाणक्य के नाम से ही जाना जाता है। कदाचित् अपने को चणक-पुत्र के तौर पर ही संबोधित किया जाना उन्हें पसंद रहा होगा। राजनीति के खेल में निपुण होने और वस्तुस्थिति के अनुकूल निर्णय लेने और आवश्यकतानुसार कुटिलता के प्रयोग के कारण उन्हें कौटिल्य़ भी कहा जाता है। (ध्यान रहे कि राजनीति में साम, दाम, दंड एवं भेद ये चारों तौर-तरीके अपनाए जाते हैं।)

     चाणक्य की एक रचना “कौटिलीय” या “कौटिल्य” अर्थशास्त्र है जिसमें शासकीय व्यवस्था के सभी पहलुओं की चर्चा की गई है। इस ग्रंथ में राजा के और उसके प्रशासनिक तंत्र के अधिकारों एवं कर्तव्यों की विस्तृत चर्चा है। राजकीय शासन के सभी पक्षों जैसे अर्थतंत्र, न्यायिक व्यवस्था, जनहित के कार्य, जनता के अधिकारों एवं दायित्वों, आदि के विषय में ग्रंथकार ने अपना मत व्यक्त किया है।

इस ग्रंथ के विषयानुसार लिखित अधिकरणों में से एक में राजकर्मचारी के दायित्वों, राजा के प्रति शालीन व्यवहार, और राजा के रोष से बचने की सावधानी आदि की बातें बताई गई हैं(कौटिलीय अर्थशास्त्र, पंचम अधिकरण, अध्याय ४)। उक्त ग्रंथ में उपलब्ध छंदों (श्लोकों) के माध्यम से व्यक्त की गई नीतियों का उल्लेख मैं इस ब्लॉग के दो लेखों में कर रहा हूं। मेरे उद्धरण ग्रंथ की चौखंबा विद्याभवन द्वारा प्रकाशित प्रति पर आधारित हैं जिसमें छंदों के अर्थ हिन्दी में दिए गये हैं (कौटिलीय अर्थशास्त्र, संपादक: वाचस्पति गैरोला, प्रकाशक: चौखंबा विद्याभवन, वाराणसी, २००६)

(1)

अहीनकालं राजार्थं स्वार्थं प्रियहितैः सह ।

परार्थं देशकाले च ब्रूयाद्‍ धर्मार्थसंहितम् ॥

(राज-अर्थम् अहीन-कालम् प्रिय-हितैः सह स्व-अर्थम् देश-काले च पर-अर्थम् धर्म-अर्थ-संहितम् ब्रूयात्।)

राजा के महत्व की बात उसे अबिलंब बतानी चाहिए, अपने हित की बात राजा के प्रिय हितैषियों के माध्यम से कहनी चाहिए, दूसरों के मतलब की बात समुचित समय एवं स्थान (अवसर) देख के करनी चाहिए, ये सब करते समय धर्म एवं औचित्य को ध्यान में रखना चाहिए।

     इस श्लोक में सीधा संदेश दिया गया है कि राजकर्मचारी राजा के हित-अहित के प्रति सचेत रहे और तदनुसार व्यवहार करे। राजा को खुश करके अपने स्वार्थ-सिद्धि का प्रयास न करे। चाणक्य के अर्थशास्त्र में आरंभ से ही इस बात पर जोर डाला गया कि राजा कर्तव्यनिष्ठ हो और अपनी प्रजा के हितों के प्रति समर्पित हो। जो ऐसा न हो वह राजा बनने/रहने योग्य नहीं है। आज के युग में शासकीय तंत्र में जिस शीर्षस्थ व्यक्ति के अधीन कर्मचारी को कार्य करे वही राजा के तुल्य माना जा सकता है। जनता के हितों के प्रति उनका समर्पण कितना रहता है यह कहना कठिन है।

(2)

पृष्टः प्रियहितं ब्रूयान्न ब्रूयादहितं प्रियम् ।

अप्रियं वा हितं ब्रूयाच्छृण्वतोऽनुमतो मिथः ॥

(पृष्टः प्रिय-हितम् ब्रूयात्, अहितम् प्रियम् न ब्रूयात्, अप्रियम् हितम् वा ब्रूयात्, मिथः शृण्वतः अनुमत: ।)

पूछे जाने और अनुमति मिलने पर प्रिय एवं हितकर बातें राजा से कहनी चाहिए, जो राजा को प्रिय लगे किंतु अहितकर हो वैसी बात नहीं कहनी चाहिए। इसके विपरीत अप्रिय हो किंतु हितकर हो तो वह बात कह देनी चाहिए।

     संस्कृत ग्रंथों में अधोलिखित नीतिवचन पड़ने को मिलता है:

“सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयाद्‍ न ब्रुयात् सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रुयाद्‍ एष धर्मः सनातनः॥”

     यह श्लोक व्यापक सामाजिक संदर्भ में सभ्य-सुसंस्कृत नागरिकों के कर्तव्य का निर्धारण करता है, जब कि कमोबेश इसी अर्थ में उपर्युक्त श्लोक राजा के प्रति कर्मचारी के संयत व्यवहार के सीमित संदर्भ में ग्रंथकार चाणक्य ने कही है।

यहां प्रस्तुत श्लोकों के अर्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र की उपर्युल्लिखित प्रति पर आधारित है। लिखने की शैली मेरी है। मेरा संस्कृत ज्ञान सामान्य एवं अपने स्वाध्याय पर आधारित है, इसलिए मैं कहीं-कहीं त्रुटि कर जाऊं तो आश्चर्य नहीं। ऊपर लिखित २रे श्लोक के चतुर्थ चरण “शृण्वतोऽनुमतो मिथः” का अर्थ मैं यह लगाना चाहूंगा: “राजा सुनने को उद्यत हो तथा कहने की अनुमति देता हो तो मिथ्या समाचार (अफवाह) का जिक्र कर सकता है।”

(3)

तूष्णीं वा प्रतिवाक्ये स्याद्‍ द्वेष्यादींश्च न वर्णयेत् ।

अप्रिया अपि दक्षाः स्युस्तद्भावाद्‍ ये बहिष्कृताः ॥

(प्रति-वाक्ये तूष्णीम् वा स्यात्, द्वेष्य-आदींन् च न वर्णयेत्, दक्षाः अपि अप्रिया: स्युः ये तत् भावाद्‍ बहिः-कृताः।)

राजा से बात करते समय (असहमति का) प्रत्युत्तर सुनना पड़े तो चुप रहना चाहिए, राजा से द्वेष रखने वालों से संबंध न रखे, राजा के मनोभावों के अनुसार न चलने वाले कार्यकुशल लोग भी बाहर कर दिए जाते हैं।

     राजनीति के अद्वितीय खिलाड़ी चाण्क्य इस बात को गंभीरता से लेने की सलाह देते हैं कि राजा क्या पसंद करेगा क्या नहीं की समझ राज्यकर्मी को होनी चाहिए दायित्व-निर्वाह में कुशल व्यक्ति से भी राजा नाखुश हो सकता है इस बात को उसे ध्यान में रखना चाहिए। इस श्लोक में “द्वेष्यादींन् च न वर्णयेत्” का अर्थ मैं इस प्रकार लगाना चाहूंगा:, “राजा से द्वेष रखने वालों का जिक्र राजा से नहीं करना चाहिए”। अथवा द्वेष्यादि संकेत राजा के दोषों से तो नहीं यह प्रश्न मेरे मन में है !

अगली ब्लॉग-प्रविष्टि में इस विषय के शेष चार छंदों और उन पर टिप्पणी का उल्लेख किया जाएगा। – योगेन्द्र जोशी

हितोपदेश ग्रंथ से चुने गये पांच विचारणीय नीतिश्लोक

 संस्कृत ग्रंथ “पंचतंत्र” एवं “हितोपदेश” ऐसे दो ग्रंथ हैं जो छोटी-कथाओं के माध्यम से किशोरवय बच्चों को व्यवहारिक ज्ञान देने के उद्येश्य से लिखे गये हैं। इनमें से अधिकांश कथाएं इस प्रकार लिखी गई हैं कि एक के भीतर दूसरे का जिक्र आता है और दूसरी कथा उससे जुड़ जाती है। कथाओं की विशेषता यह है कि उनके पात्र प्रायः पशु-पक्षी हैं जो मनुष्यों की तरह बोलते एवं परस्पर संबंध निभाते हैं। इन पात्रों में वही गुण-अवगुण आरोपित रहते हैं जो मानव समाज में यत्रतत्र दिखाई देते हैं जैसे शत्रुता-मित्रता, सत्य-असत्य, उपकारिता-अपकारिता आदि के भाव। कहीं-कहीं पर मनुष्य पात्र भी शामिल दिखाई देते हैं। पंचतंत्र मौलिक ग्रंथ प्रतीत होता है किंतु हितोपदेश मुख्यतः अलग-अलग स्रोतों से लिए गये नीतिवचनों पर आधारित है जैसा कि स्वयं लेखक श्रीनारायणपंडित ग्रंथ के आरंभिक अनुच्छेदों से स्पष्ट होता है।

यहां पर मैं हितोपदेश के पांच छंदों/श्लोकों का उल्लेख कर रहा हूं। इनमें व्यक्त भावों का जिक्र हम सभी यदाकदा किसी न किसी मौके पर करते भी हैं।

(१) 

नारिकेलसमाकारा दृश्यन्ते हि सुहृज्जनाः ।

अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः ॥

(हितोपदेश, मित्रलाभ, ९४)

(सुहृत्-जनाः नारिकेल-सम-आकाराः हि दृश्यन्ते, अन्ये बदरिका-आकारा बहिः मनोहराः एव ।)

अर्थ – सहृदय यानी हितैषी जन नारियल की तरह (बाहर से) कुरूप होते हैं लेकिन अन्य लोग बेर-फल की तरह केवल बाहर से (चीकने-चुपड़े एवं )सुन्दर होते हैं।

     नारियल जटाओं सदृश रेशों में लिपटा हुआ कड़े खोल वाला फल होता है जिसके भीतर मुलायम सुस्वादु गरी रहती है। इसके विपरीत बेर का बाहर का खोल (गूदा) देखने में सुन्दर एवं खाने में स्वादिष्ट होता है। किन्तु उसके भीतर कड़ी और निरुपयोगी गुठली होती है। ये उपमाएं यह दर्शाने के लिए चुनी गईं हैं कि असली मित्र (सुहृद) व्यवहार में अक्सर कठोर एवं रूखा होता है और दूसरे के लिए हितकर परंतु अप्रिय लगने वाली बात भी कह देता है। लेकिन उसका हृदय संवेदनशील, परोपकार भावना वाला और दूसरे के हित चाहने वाला होता है। अन्य लोग ऊपरी तौर पर मधुरभाषी (“पॉलिश्ड”) होते है किंतु वे दूसरों के हित की कामना रखते हों ऐसा कम ही होता है। वे जरूरत के समय कन्नी काट जाते हैं।

(२)

अधोऽधः पश्यतः कस्य महिमा नोपचीयते ।

उपर्युपरि पश्यन्तः सर्व एव दरिद्रति ॥

(हितोपदेश, सुहृद्भेद, २)

(अधः-अधः पश्यतः कस्य महिमा न उपचीयते, उपरि-उपरि पश्यन्तः सर्वः एव दरिद्रति ।)

अर्थ – अपने से नीचे देखने वाले किसकी महत्ता बढ़ नहीं जाती, और ऊपर-ऊपर देखने वाले सभी को अपनी दरिद्रता नजर आती है।

     यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि समाज में व्यक्ति अपने को संपन्न-सुखी अनुभव करता है जब वह तुलनात्मक रूप से अपने से निम्नतर हालात वालों की ओर देखता है। उसे लगता है कि मैं कितनी अच्छी स्थिति में हूं। इसके विपरीत जब वह उनकी ओर देखता है जो उससे भी अधिक सम्पन्न-प्रतिष्ठित हों तो वह स्वयं को हीनतर अवस्था में पाता है। वस्तुतः मनुष्य की सुख-दुःख की अनुभूति दो प्रकार के कारणों से जुड़ी होती है। पहला कारण तो यह है कि उसकी मूलभूत आवश्यकताएं अपूरित रह रही हों, या वह अपनी समस्याओं का हल न खोज पा रहा हो, या भौतिक अथवा दैवी आपदाओं से घिरा हो, इत्यादि। दूसरा कारण समाज के अन्य सदस्यों से तुलना कर-कर के वह अपनी अवस्था से संतोष अथवा असंतोष प्राप्त करता है। ईर्ष्या मनुष्य के स्वभाव का एक अंग होता है जिसकी वजह से वह स्वयं को कभी सुखी तो कभी दुःखी अनुभव करता है। तुलना की इस प्रवृत्ति से पैदा हुए दुःख का कोई इलाज नहीं है।

(३)

स्वेदितो मर्दितश्चैव रज्जुभिः परिवेष्टितः ।

मुक्तो द्वादशभिर्वर्षैः श्वपुच्छः प्रकृतिं गतः ॥

(हितोपदेश, सुहृद्भेद, १३८)

(स्वेदितः, मर्दितः, एव रज्जुभिः परि-वेष्टितः च द्वादशभिः वर्षैः मुक्तः श्व-पुच्छः प्रकृतिम् गतः ।)

अर्थ – गर्म सिंकाई और मालिश की गयी, रस्सी से (सीधी रखने हेतु) लपेटकर रखी गयी, बारह वर्षों बाद खोली गयी तो भी कुत्ते की पूंछ अपने पूर्व स्वभाव में लौट आई

     सामान्य बोलचाल में भी हम ऐसी उक्ति का उल्लेख करते हैं “… कुत्ते की पूंछ टेड़ी की टेड़ी !” उपर्युक्त नीति वचन वस्तुतः इस तथ्य को व्यक्त करता है कि मानव स्वभाव बदलना आसान नहीं होता। सज्जन प्रकृति के लोगों को जब अपनी स्वभावगत कमियों का अहसास होता है, या अन्य जन उनके नकारात्मक पहलुओं की ओर संकेत करते हैं तो वह अपने में सुधार लाने का प्रयास करने लगते हैं। किंतु दुर्जन प्रकृति के लोग ढीठ होते हैं, सुधरने को तैयार नहीं होते हैं। आप प्रयास करते रहिए, वे अपनी आदत से मजबूर रहते हैं।

(४)

मत्तः प्रमत्तश्चोन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ।

लुब्धो भीरुस्त्वरायुक्तः कामुकश्च न धर्मवित् ॥

(हितोपदेश, संधि, ५५)

(मत्तः, प्रमत्तः च उन्मत्तः, श्रान्तः, क्रुद्धः, बुभुक्षितः, लुब्धः, भीरुः, त्वरा-युक्तः, कामुकः च धर्म-वित् न ।)

अर्थ – मस्ती में डूबा हुआ (जैसे मदमस्त), लापरवाह (वस्तुस्थिति का होश न रहना), एवं उन्मादी (जुनूनी), थका हुआ, क्रोधित, भूखा, लोभी, कायर, जल्दबाज, और कामवासना से ग्रस्त व्यक्ति धर्मवेत्ता नहीं होता।

     उक्त श्लोक में मनुष्य के उन दोषों का जिक्र किया गया है जो उसे धर्म से विमुख कर देते हैं, अर्थात्‍ ऐसा व्यक्ति उचितानुचित का विवेक खो बैठता है। धर्म के प्रति समर्पित व्यक्ति का विवेकशील होना आवश्यक है ताकि वह शान्ति से उचित-अनुचित में भेद करे।

याद रहे कि धर्म का अर्थ कर्मकांड में लिप्त रहना नहीं। यदि आप प्राचीन ग्रंथों को गंभीरता से पढ़ें तो पाएंगे कि धर्म एक तरफ आत्मिक उत्थान से जुड़ा है तो दूसरी तरफ वह समाज, प्राणी-जगत और व्यापक स्तर पर प्रकृति के प्रति कर्तव्यों को व्यक्त करता है। देवी-देवताओं को पूजना, गंगास्नान करना, गेरुआ वस्त्र एवं तिलक आदि धारण करना इत्यादि धर्म के मूल तत्व नहीं होते।

(५)

दुर्जनदूषितमनसः सुजनेष्वपि नास्ति विश्वासः ।

बालः पायसदग्धो दध्यपि फूत्कृत्य भक्षयति ॥

(हितोपदेश, संधि, १०२)

(दुर्जन-दूषित-मनसः विश्वासः सुजनेषु अपि न अस्ति, पायस-दग्ध: बालः दधि अपि फूत्-कृत्य भक्षयति ।)

अर्थ – दुर्जनों द्वारा जिसका मन दूषित किया गया हो उसका विश्वास सुजनों में भी नहीं रह जाता है। (गर्म) दूध से जला बालक दही भी फूंक-फूंक कर पीता है।

     एक सुपरिचित उक्ति है “दूध का जला छांछ फूंक-फूंककर पीता है।” उपर्युक्त छंद उसी भाव को व्यक्त करता है। उक्त छंद में दधि (दही) शब्द का प्रयोग क्यों हुआ है मैं समझ नहीं पाया। दूषित मन वाले से तात्पर्य है जिसे दुर्जनों द्वारा धोखा दिया गया हो, जिसे भ्रमित करके छ्ला गया हो, जिसके साथ ज्यादती की गई हो, इत्यादि। फलतः वह व्यक्ति हर किसी के प्रति शंकालु हो जाता है। इसलिए धोखा खाया व्यक्ति संभल-संभल कर चलता है। उसकी स्थिति दूध के जले निरीह बालक की सी होती है जो ठडे छांछ को भी गर्म दूध की तरह समझकर उसे फूंक-फूंककर पीता है।

बहुत से लोग परेशानी में पड़े व्यक्ति की सहायता करते हैं। लोगों की इस प्रवृत्ति का चालाक-मक्कार जन नाजायज फायदा उठाते हैं। सीधे-सादे  आदमी को जब पता चलता है कि उसे धोखा दिया गया है तो वह घटना से सबक लेते हुए भविष्य में सावधान हो जाता है। जिनको मदद की वास्तव में जरूरत होती है उन पर भी शंका करते हुए मदद करने भी बचता है। किसी के माथे पर सज्जनता या दुर्जनता का ठप्पा तो लगा नहीं रहता! दुर्जनों के कारण सज्ज्नों को भी हानि उठानी पड़ती है। – योगेन्द्र जोशी

“हृद्रोगं मम सूर्य नाशय” – ऋग्वेद में रोग-मुक्ति की प्रार्थना

वैदिक ग्रंथ ऋग्वेद में तमाम देवी-देवताओं की प्रार्थनाएं हैं जिनमें इन्द्र एवं अग्नि प्रमुख हैं। दरअसल वैदिक मान्यता के अनुसार प्रकृति के सभी घटकों, जैसे जल, अग्नि, वायु, वर्षा, आदि के पीछे कोई न कोई चेतन दैवी शक्ति सक्रिय रहती है। सूर्य भी उनमें से एक है जो स्थूल रूप से प्रकाशित होने वाला आकाशीय पिंड का स्वामी है। सूर्य को कभी-कभी सविता के तौर पर भी पूजा जाता है जिसका तात्पर्य है कि वह प्राणियों की उत्पत्ति और उनके जीवन का आधार है। उसी सूर्य से स्वास्थ्य की कामना के तीन मंत्र (ऋचाएं) ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में मुझे पढ़ने को मिले हैं, जिनका उल्लेख मैं यहां पर कर रहा हूं। मेरी व्याख्या का आधार सायणाचार्य-कृत भाष्य (सायण-भाष्य) है जिसे मैंने अपने सीमित संस्कृत-ज्ञान के बल पर समझने का प्रयास किया है।

प्रार्थना का पहला मंत्र है –

उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्।

हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥११॥

(ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त ५०)

हे सूर्य प्राणियों के महान् मित्रवत् दीप्तिमान इस समय उदित होकर अंतरिक्ष (दिव) में ऊपर उठ रहे हो ऐसे तुम मेरे हृदयगत एवं दैहिक “हरिमाण” रोग का नाश करो।

यह ऋचा सूर्योदय के समय की जाने वाली प्रार्थना प्रतीत होती है। हृदयगत का तात्पर्य मानसिक रोग से है। इस मंत्र में “हरितवर्ण” वस्तुतः है क्या? सायण-भाष्य में इसकी दो प्रकार से व्याख्या की गई है। पहला, वह रोग जो शरीर के स्वाभाविक वर्ण को छीनकर उसे कांतिविहीन कर रहा हो (हर लिया है वर्ण यानी रंग जिसने)। रोगी का शरीर कांतिविहीन हो जाता है। उसके चेहरे की रौनक गायब हो जाती है। ऐसे रोग के नाश के लिए प्रार्थना की गई है। दूसरी व्याख्या है हरा वर्ण (रंग) यानी वह रोग जो शरीर का रंग हरा कर दे। आप्टे के शब्दकोश में हरित का अर्थ पीलापन भी दे रखा है। कदाचित् मंत्रद्रष्टा ऋषि का संकेत पीलिया की ओर होगा। प्रातःकालीन धूप रोगी के स्वास्थ्य के लिए कदाचित लाभकर हो।

अगला मंत्र है –

शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ।

अथो हारिद्रवेषु मे अरिमाणं नि दध्मसि ॥१२॥

(यथोपर्युक्त)

मेरे शरीर के इस हरित-वर्ण के रोग को हम शुक (तोता) तथा शारिका (पक्षी विशेष का नाम) पक्षियों में स्थापित करते हैं। अथवा मेरे इस हरित-वर्ण रोग को हरे-पीले पेड़ों (कदंब?) पर हम स्थापित कर दें।

इस मंत्र का अर्थ मेरे लिए बहुत स्पष्ट नहीं है। भाष्य में रोपणाका का अर्थ शारिका दिया है, जिसे हिन्दी शब्दकोश में मैना कहा गया है। तोते का रंग हरा-पीला होता है किंतु मैना का रंग हल्का भूरा-सलेटी होता है। उसकी चोंच अवश्य ही सुर्ख पीली होती है। मुझे लगता है कि इस मंत्र के माध्यम से सूर्य की उपासना की जा रही है कि मेरे शरीर के रोगजनित हरित-वर्ण को मुझसे दूर करके उन्हीं पक्षियों, पेड़-पौधों तक सीमित रहने दो जिनके लिए यह रंग स्वाभाविक/प्राकृतिक है। अर्थात् मुझे रोगमुक्त कर दो।

तीसरी और अंतिम ऋचा ये है –

उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।

द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥१३॥

(यथोपर्युक्त)

अदिति-पुत्र आदित्य यहसूर्य पूरे बल से ऊपर अंतरिक्ष में चढ़ता है और मेरे प्रति उपद्रवकारी रोग का नाश करता है। मैं स्वयं उस  द्वेषमय रोग के प्रति हिंसा नहीं करता।

मंत्र का अर्थ अपेक्षया सरल है। अर्थ कितना सारगर्भित है मैं कह नहीं सकता। कदाचित् मंत्रवक्ता रोग-निवारण का श्रेय प्रातःकालीन उदित हो रहे सूर्य को देता है जिसकी किरणें रोग से लड़ने में सहायक हों।

वैदिक प्रार्थनाएं कितनी कारगर होती हैं किसी प्रयोजन को सिद्ध करने में इसका कोई अनुभव मुझे नहीं है। किंतु इतना कहा जा सकता कि सूर्य की हल्की (प्रातःकालीन) धूप अवश्य ही स्वास्थ्य-वर्धक होती है। यही संदेश इन वैदिक ऋचाओं में दिखाई देता है। – योगेन्द्र जोशी

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