“हृद्रोगं मम सूर्य नाशय” – ऋग्वेद में रोग-मुक्ति की प्रार्थना

वैदिक ग्रंथ ऋग्वेद में तमाम देवी-देवताओं की प्रार्थनाएं हैं जिनमें इन्द्र एवं अग्नि प्रमुख हैं। दरअसल वैदिक मान्यता के अनुसार प्रकृति के सभी घटकों, जैसे जल, अग्नि, वायु, वर्षा, आदि के पीछे कोई न कोई चेतन दैवी शक्ति सक्रिय रहती है। सूर्य भी उनमें से एक है जो स्थूल रूप से प्रकाशित होने वाला आकाशीय पिंड का स्वामी है। सूर्य को कभी-कभी सविता के तौर पर भी पूजा जाता है जिसका तात्पर्य है कि वह प्राणियों की उत्पत्ति और उनके जीवन का आधार है। उसी सूर्य से स्वास्थ्य की कामना के तीन मंत्र (ऋचाएं) ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में मुझे पढ़ने को मिले हैं, जिनका उल्लेख मैं यहां पर कर रहा हूं। मेरी व्याख्या का आधार सायणाचार्य-कृत भाष्य (सायण-भाष्य) है जिसे मैंने अपने सीमित संस्कृत-ज्ञान के बल पर समझने का प्रयास किया है।

प्रार्थना का पहला मंत्र है –

उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्।

हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥११॥

(ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त ५०)

हे सूर्य प्राणियों के महान् मित्रवत् दीप्तिमान इस समय उदित होकर अंतरिक्ष (दिव) में ऊपर उठ रहे हो ऐसे तुम मेरे हृदयगत एवं दैहिक “हरिमाण” रोग का नाश करो।

यह ऋचा सूर्योदय के समय की जाने वाली प्रार्थना प्रतीत होती है। हृदयगत का तात्पर्य मानसिक रोग से है। इस मंत्र में “हरितवर्ण” वस्तुतः है क्या? सायण-भाष्य में इसकी दो प्रकार से व्याख्या की गई है। पहला, वह रोग जो शरीर के स्वाभाविक वर्ण को छीनकर उसे कांतिविहीन कर रहा हो (हर लिया है वर्ण यानी रंग जिसने)। रोगी का शरीर कांतिविहीन हो जाता है। उसके चेहरे की रौनक गायब हो जाती है। ऐसे रोग के नाश के लिए प्रार्थना की गई है। दूसरी व्याख्या है हरा वर्ण (रंग) यानी वह रोग जो शरीर का रंग हरा कर दे। आप्टे के शब्दकोश में हरित का अर्थ पीलापन भी दे रखा है। कदाचित् मंत्रद्रष्टा ऋषि का संकेत पीलिया की ओर होगा। प्रातःकालीन धूप रोगी के स्वास्थ्य के लिए कदाचित लाभकर हो।

अगला मंत्र है –

शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ।

अथो हारिद्रवेषु मे अरिमाणं नि दध्मसि ॥१२॥

(यथोपर्युक्त)

मेरे शरीर के इस हरित-वर्ण के रोग को हम शुक (तोता) तथा शारिका (पक्षी विशेष का नाम) पक्षियों में स्थापित करते हैं। अथवा मेरे इस हरित-वर्ण रोग को हरे-पीले पेड़ों (कदंब?) पर हम स्थापित कर दें।

इस मंत्र का अर्थ मेरे लिए बहुत स्पष्ट नहीं है। भाष्य में रोपणाका का अर्थ शारिका दिया है, जिसे हिन्दी शब्दकोश में मैना कहा गया है। तोते का रंग हरा-पीला होता है किंतु मैना का रंग हल्का भूरा-सलेटी होता है। उसकी चोंच अवश्य ही सुर्ख पीली होती है। मुझे लगता है कि इस मंत्र के माध्यम से सूर्य की उपासना की जा रही है कि मेरे शरीर के रोगजनित हरित-वर्ण को मुझसे दूर करके उन्हीं पक्षियों, पेड़-पौधों तक सीमित रहने दो जिनके लिए यह रंग स्वाभाविक/प्राकृतिक है। अर्थात् मुझे रोगमुक्त कर दो।

तीसरी और अंतिम ऋचा ये है –

उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।

द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥१३॥

(यथोपर्युक्त)

अदिति-पुत्र आदित्य यहसूर्य पूरे बल से ऊपर अंतरिक्ष में चढ़ता है और मेरे प्रति उपद्रवकारी रोग का नाश करता है। मैं स्वयं उस  द्वेषमय रोग के प्रति हिंसा नहीं करता।

मंत्र का अर्थ अपेक्षया सरल है। अर्थ कितना सारगर्भित है मैं कह नहीं सकता। कदाचित् मंत्रवक्ता रोग-निवारण का श्रेय प्रातःकालीन उदित हो रहे सूर्य को देता है जिसकी किरणें रोग से लड़ने में सहायक हों।

वैदिक प्रार्थनाएं कितनी कारगर होती हैं किसी प्रयोजन को सिद्ध करने में इसका कोई अनुभव मुझे नहीं है। किंतु इतना कहा जा सकता कि सूर्य की हल्की (प्रातःकालीन) धूप अवश्य ही स्वास्थ्य-वर्धक होती है। यही संदेश इन वैदिक ऋचाओं में दिखाई देता है। – योगेन्द्र जोशी

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ऋग्वेद में औषधीय वनस्पतियों की प्रार्थना (2)

अपने चिट्ठे की पिछली प्रविष्टि (21 मार्च 2014) में मैंने चर्चा की थी कि ऋग्वेद में औषधीय वनस्पतियों की प्रार्थना से संबंधित कुछ ऋचाएं पढ़ने को मिलती हैं । उस आलेख में मैंने तीन ऋचाओं का उल्लेख किया था । इस स्थल पर मैं अतिरिक्त तीन ऋचाएं प्रस्तुत कर रहा हूं ।

आगे बढ़ने से पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि वैदिक ऋषिगण प्रकृति के हर घटक में, जंगम (गतिशील) एवं स्थावर (स्थिर)  कृतियों में, अधिष्ठाता दैवी शक्तियों के अस्तित्व होने का विश्वास करते थे । उनके मत में दैवी शक्तियां वस्तुविशेष के गुणधर्मों पर नियंत्रण रखती हैं । वे मानते थे जिस किसी वस्तु का उपयोग किया जा रहा हो उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जानी चाहिए, उसके प्रति कल्याणप्रद बने रहने की प्रार्थना की जानी चाहिए । प्रकृति को मात्र भोग्य वस्तुओं के संग्रह के रूप में न देखकर उसको हमारे अस्तित्व के चेतन आधार के तौर देखा जाना चाहिए । औषधीय वनस्पतियों के प्रति प्रार्थनाभाव इसी मान्यता से प्रेरित रहा है । इस प्रसंग में प्रस्तुत है एक ऋचा:

          मा वो रिषत्खनिता यस्मै चाहं खनामि वः ।

          द्विपच्चतुष्पदस्माकं सर्वमस्त्वनातुरम् ॥20

          (ऋग्वेद, मण्डल 10, सूक्त 97)

          (अहं खनिता यस्मै च वः खनामि वः मा रिषत् द्विपद्- चतुः-पद् सर्वम् अस्माकं अनातुरम् अस्तु ।)

अर्थः (हे औषधीय वनस्पति) मैं भूमि का खनन करने वाला, और जिसके लिए यह कार्य करता हूं वह, तुम्हारी हिंसा न करें, तुम्हारा नाश न करें । हमसे संबंधित द्विपद (मनुष्यगण) एवं चतुष्पद (पशुगण) रोगमुक्त रहें ।

ओषधि प्राप्ति के लिए भूमि का खननकर्ता वनस्पतियों को हानि तो पहुंचाता ही है । कदाचित प्रार्थना के माध्यम से वह अपनी विवशता व्यक्त करता है । शायद वह यह कहना चाहता है कि अवांझित तौर पर वनस्पतियों को नुकसान पहुंचाना उसका उद्येश्य नहीं । वनस्पतियों को अनावश्यक रूप से नष्ट नहीं करना चाहता है, उनका समूल उच्छेदन नहीं करना चाहता । खननकर्ता के कार्य को हिंसा के तौर पर न देखा जाए । इसके आगे उसकी प्रार्थना है कि औषधियां उससे संबंधित सभी जनों (द्विपद) और पशुसंपदा (चतुष्पद, चौपाये) को रोगमुक्त रखें । अगली ऋचा है:

याश्चेदमुपशृण्वन्ति याश्च दूरं परागताः ।

सर्वाः संगत्य वीरुधोऽस्यै सं दत्त वीर्यम् ॥21

(यथा उपर्युक्त)

(याः च इदम् उपशृण्वन्ति याः च दूरं परागताः सर्वाः वीरुधः संगत्य अस्यै वीर्यम् सं-दत्त ।)

अर्थः इस स्तुति को जो औषधीय लताएं सुन रही हों अथवा जो दूरस्थ हों वे सभी मिलकर इस रोगी को बल प्रदान करें ।

उक्त ऋचा में खननकर्ता द्वारा निकटवर्ती और दूरस्थ औषधीय वनस्पतियों से प्रार्थना की गई है कि वे सभी मिलकर रोगी को रोगमुक्त करें । यहां लता नाम से उन्हें संबोधित किया गया है । लताओं को कदाचित औषधीय गुणों से युक्त सभी वनस्पतियों के प्रतिनिधि के तौर पर देखा गया है । अन्यथा ओषधियां लता से भिन्न रूपों में भी पाई जाती हैं । अंतिम तीसरी ऋचा यों हैः

ओषधयः सं वदन्ते सोमेन सह राज्ञा ।

यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्तं राजन् पारयामसि ॥22

(यथा उपर्युक्त)

(ओषधयः सं-वदन्ते सोमेन राज्ञा सह ब्राह्मणः यस्मै कृणोति तं राजन् पारयामसि ।)

अर्थः सभी ओषधियां राजा सोम के साथ संवाद करती हैं कि हे राजा विशेषज्ञ ब्राह्मण अर्थात वैद्य जिसकी चिकित्सा करें उसे हम रोगों के पार करते हैं ।

सोम चंद्रमा का पर्याय है और उसे औषधीय वनस्पतियों का राजा अथवा अधिष्ठाता देवता माना गया है । इस ऋचा में ओषधियों का अपने राजा चंद्र के साथ संवाद की कल्पना की गई । उनका कथन है कि वे रोग-निवारण में निपुण वैद्य के माध्यम से रोगी को रोगमुक्त करती हैं । प्राचीन काल में वैद्यकी सामान्यतः ब्राह्मणों के कार्यक्षेत्र में रहा होगा ।

वैदिक समाज में भोजन करते, ओषधि सेवन करते, अथवा अन्य कार्य संपन्न करते समय संबंधित वस्तुओं के प्रति कृतज्ञता या प्रार्थना व्यक्त करने की परंपरा रही है । – योगेन्द्र जोशी

 

ऋग्वेद में औषधीय वनस्पतियों की प्रार्थना (1)

          मैंने अपने चिट्ठे की एक प्रविष्टि (31 जनवरी 2010) में औषधीय वनस्पतियों की प्रार्थना संबंधी यजुर्वेद में उपलब्ध मंत्रों का उल्लेख किया था । भावात्मक तौर पर उनसे साम्य रखने वाली ऋचाएं मुझे ऋग्वेद में भी देखने को मिली हैं । मैं उन्हीं में से चुनी हुई कुछएक की चर्चा यहां पर कर रहा हूं:

          याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्चपुष्पिणीः ।

          बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥15

           (ऋग्वेद, मण्डल 10, सूक्त 97)

          (याः फलिनीः याः अफलाः याः अपुष्पाः पुष्पिणीः च बृहस्पति-प्रसूताः ता अंहसः नः मुञ्चन्तु ।)

अर्थ – फलने वाली जो वनस्पतियां हैं या जिन पर फल नहीं लगते हैं, जो पुष्पित नहीं होती अथवा जिन पर फूल खिलते हैं, देव बृहस्पति-जनित ऐसी सभी वनस्पतियां हमें रोगों से मुक्त रखें ।

सभी वनस्पतियां फूलती नहीं हैं, और जो फूलती हैं उन पर फल लगें ही यह भी आवश्यक नहीं हैं । इस मंत्र में औषधीय गुणों वाली ऐसी समस्त वनस्पतियों से प्रार्थना की गई है कि वे उनके समुदाय को रोगों से मुक्त रखें । वैदिक चिंतकों की मान्यतानुसार सृष्टि के सभी तंत्र अपने-अपने अधिष्ठाता देवता से संबद्ध रहते हैं, और वनस्पतियों को उनके औषधीय गुण बृहस्पति देवता से प्राप्त रहते हैं ।

          मुञ्चन्तु मा शपथ्यादथो वरुण्यादुत ।

          अथो यमस्य षड्बीशात् सर्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥16

           (यथा उपर्युक्त)

           (मा शपथ्यात् मुञ्चन्तु अथो वरुण्यात् उत अथो यमस्य षड्बीशात् सर्वस्मात् देवकिल्बिषात् ।)

अर्थ – औषधियां मुझे शापजनित रोग से मुक्त करें, बल्कि वरुण देवता के शाप से भी दूर रखें, यम देवता की बेड़ियों से मुक्त रखें, इतना ही नहीं समस्त दैवप्रदत्त पापों को मुझसे दूर रखें ।

मनुष्य के कष्ट तीन प्रकार के गिनाए गए हैं: आधिभौतिक, आधिदैविक, एवं आघ्यात्मिक । दूसरे मनुष्यों अथवा संसार के अन्य प्राणियों के कारण जो भौतिक कष्ट भोगना पड़ता है उसे आधिभौतिक कहा जाता है । देवताओं के रोष से जो कष्ट भोगना पड़ता है उसे आधिदैविक की संज्ञा दी गई है । अधिकांश कष्टों की अनुभूति इंद्रियों के माध्यम से अनुभव में आती है । इनके अतिरिक्त कभी-कभी विशुद्ध मानसिक कष्ट भी भोगने पड़ते हैं; इन्हीं को आघ्यात्मिक कहा जाता है । ये कष्ट वस्तुतः मन के विकारों के कारण पैदा होते हैं, और उनका कोई स्पष्ट बाह्य कारण नहीं रहता है । उक्त मंत्र में इन सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति की प्रार्थना की गई है । शापजनित कष्ट उसे समझा जा सकता है जो दूसरों के द्वारा कर्मणा अथवा वाचा किसी को पहुंचाया जाता है । दूसरे के अहित की भावना भी कदाचित कष्ट का कारण बन सकता है । इन सभी को शापमूलक मान सकते हैं । वरुण को हाथ में बंधन (फंदा) लिए हुए पश्चिम दिशा का (समुद्र का भी) अधिष्ठाता देवता माना गया है । वरुण देवता के शाप का ठीक-ठीक अर्थ क्या है मैं समझ नहीं पाया । कदाचित जलजनित रोगों से तात्पर्य हो । यम देवता का शाप का अर्थ यही होगा कि उनके रूप में मुत्यु हर क्षण मनुष्य का पीछा करती है । औषधियां कष्टों अथवा मृत्यु के निमित्त बने रोगों से हमें दूर रखती हैं । मनुष्य के अनुचित कर्मों के फल को देवताओं द्वारा दंड-स्वरूप प्रदत्त पाप कहा गया होगा ऐसा मेरा सोचना है ।

           अवपतन्तीरवदन् दिव ओषधयस्परि ।

           यं जीवमश्नवामहै न स रिष्याति पूरुषः ॥17

           (यथा उपर्युक्त)

           (दिव अवपतन्तीः ओषधयः परि अवदन् यं जीवम् अश्नवामहै स पूरुषः न रिष्याति ।)

अर्थ – द्युलोक से धरती पर उतरती औषधियां वचन बोलती हैं कि जिस जीव को हम व्याप्त या आच्छादित कर लें उस पुरुष का विनाश नहीं होता ।

व्याप्त (वि+आप्त) का अर्थ यहां प्राप्त होना लिया जा सकता है । मेरा सोचना है कि प्राचीन मनीषी वनस्पतियों के औषधीय गुण स्वर्ग की देन मानते होंगे । धरती पर होने वाली घटनाएं देवताओं के नियंत्रण में होती हैं, अतः ये औषधियां भी देवों की प्राणियों पर अनुकंपा के परिणाम प्राणियों को प्राप्त होती हैं । स्वर्ग से धरती पर उतरने वाली औषधियां जो कहती हैं उसे वस्तुतः उनके अधिष्ठाता देवता का कथन माना जाना चाहिए । इस कथन में ये उद्गार प्रतिबिंबित होते हैं कि मनुष्य के नाश का कारण अंततः रोग हैं जिन्हें औषधियां दूर कर देती हैं । नीरोग व्यक्ति ही दीर्घजीवी हो सकता है और वही अपने एवं समाज के लिए फलदायी कार्य संपन्न करने में समर्थ होता है । – योगेन्द्र जोशी

‘मधु वाता ऋतायते …’ – ऋग्वेद में मधुमय जीवन की प्रार्थना

ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कुछ ऋचाएं हैं जिनमें मधु शब्द का वारंवार प्रयोग हुआ है । आम जन मधु शब्द को सामान्यतः शहद के लिए प्रयोग में लेते हैं । किंतु इन ऋचाओं में उसे व्यापक अर्थ में लिया गया है । मधु का अर्थ है जो मिठास लिए हो, जिससे सुखानुभूति हो, जो आनंदप्रद हो, अथवा जो श्रेयस्कर हो । मैं आगे के अनुच्छेदों में ऐसी तीन ऋचाओं का उल्लेख कर रहा हूं । यहां पर व्यक्त मेरे विचार सायणाचार्यकृत भाष्य पर आधारित हैं ।

ये ऋचाएं ऋग्वेद, मंडल 1, सूक्त 90 से क्रमशः ली गयीं हैं ।

मधु वाता ऋतायते मधुं क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥6॥
(मधु वाताः ऋत-अयते, मधुं क्षरन्ति सिन्धवः, माध्वीः नः सन्तु ओषधीः ।)
भावार्थ – यज्ञकर्म में लगे हुए, अर्थात् यजमान, को वायुदेव मधु प्रदान करते हैं; तरंगमय जलप्रवाह जिनमें होता है उन नदियों से मधु चूता है; संसार में उपलब्ध विविध ओषधियां हमारे लिए मधुमय हों ।

प्रसंग के अनुसार, तथा जैसा आगे की ऋचाओं से स्पष्ट है, यहां कहे गये ‘प्रदान करते हैं’, ‘चूता है’, का अर्थ प्रदान करें की प्रार्थना से लिया जाना चाहिए । यों तो रूढ़ि अर्थ में यज्ञ का अर्थ है प्रज्वलित अग्नि में हविः की आहुति देना, किंतु अधिक व्यापक अर्थ में यज्ञ का अर्थ है सार्थक कर्म से अपने को जोड़ना, उस कर्म में लगना । जैसा ऊपर कहा गया है, मधु के उपयुक्त अर्थ लिए जाने चाहिए ।

मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता ॥7॥
(मधु नक्तम् उत उषसः, मधु-मत् पार्थिवम् रजः, मधु द्यौः अस्तु नः पिता ।)
भावार्थ – रात्रि हमारे लिए मधुप्रदाता होवे; और उसी प्रकार उषाकाल, अर्थात् सूर्योदय के पहले का दिवसारंभ का समय, भी मधुप्रद हो; पृथ्वी  से धारण किया गया यह लोक मधुमय हो; जलवृष्टि द्वारा हमारा पालन करने वाला (पिता) द्युलोक (आकाश) माधुर्य लिए होवे ।

मंतव्य कदाचित् यह है कि रात्रि शांतिप्रदा होवे, हमारे दिन का आरंभ प्रसन्नता के साथ होवे, संसार हमारे लिए आनंदप्रद हो, आकाश जल वर्षा द्वारा सुखद भविष्य की आशा जगाए ।

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥8॥
(मधुमान् नः वनस्पतिः, मधुमान् अस्तु सूर्यः, माध्वीः गावः भवन्तु नः ।)
भावार्थ – वनों के स्वामी (अधिष्ठाता देवता) मधुर फल देने वाले हों; आकाश में विचरण करने वाले सूर्य मधुरता प्रदान करें; हमारी गौवें मधुमय दूध देने वाली हों । (वनस्पति माने वनों का पति या पालनकर्ता; सामान्य बोलचाल में वनस्पति पेड़-पौधों आदि के लिए प्रयोग में लिया जाता है ।)

वनों के स्वामी फल दें अर्थात् वनस्पतियां ऐसी हों कि उन पर मीठे फल लगें । सूर्य आकाश में सरण (सरकना) करता है जिससे उसे यह नाम मिला है । वह अपने द्वारा नियंत्रित ऋतुओं के माध्यम से हमें समुचित फल प्रदान करे यह भाव व्यक्त है । गायें सुस्वादु एवं प्रचुर मात्रा में दूध प्रदान करें ।

दैवी शक्तियों को संबोधित ऐसे वैदिक मंत्र क्या वास्तव में प्रभावी हो सकते हैं । मेरे पास कोई उत्तर नहीं है । इतना अवश्य है जैसे हम परस्पर शुभकामनाएं व्यक्त करते हैं उसी प्रकार इन ऋचाओं में सुखद एवं सफल जीवन की कामना या कल्पना का भाव निहित है । इसके अतिरिक्त प्रकृति के विभिन्न घटकों अथवा अंगों के प्रति सम्मान भाव भी इनमें दिखाई देता है । यह भावना आधुनिक समय में अधिक प्रासंगिक हो चला है । – योगेन्द्र जोशी

“न स सखा यो न ददाति सख्ये… ” – ऋग्वेद में दानशीलता की नीतिगत बातें

हिंदुओं के लिए वेदों का सैद्धांतिक महत्त्व आज भी है । सैद्धांतिक शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूं कि व्यवहार में अब वेदों का अध्ययन करने वाले प्रायः नहीं के बराबर रह गये हैं, और उनके अनुसार जीवन यापन करने वाला तो शायद ही कोई रह गया होगा । वेद कितने स्वीकार्य हैं, इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता, लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि उनकी कई बातें प्रासंगिक और व्यावहारिक उपयोगिता की हैं । 

पुरातन ऋग्वेद ग्रंथ में मुझे तीन प्रकार की बातें पढ़ने को मिली हैं । एक ओर तो इसमें कर्मकांड और यज्ञयाज्ञादि के अनुष्ठान की वातें हैं, तो दूसरी ओर अध्यात्म और दर्शन के विचार हैं । इनके अतिरिक्त व्यावहारिक जीवन के कर्तव्यों और नीतियों का भी उल्लेख इसमें है । गंथ के मंडल 10 में मुझे दान देने और जरूरतमंदों की मदद करने संबंधी उपदेश पढ़ने को मिले हैं । मैं यहां पर चुनी हुई तीन ऋचाएं (मंत्र) प्रस्तुत कर रहा हूं ।

(ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 117, ऋचाएं क्रमशः 2, 4, एवं 5)

य आध्राय चकमानाय पित्वो९न्नवान्सन्रफितायोपजग्मुषे । स्थिरं मनः कृणुते सेवते पुरोतो चित्स मर्डितारं न विन्दते ॥ 
(य आध्राय चकमानाय पित्वः अन्नवान् सन् रफिताय उपजग्मुषे स्थिरं मनः कृणुते सेवते पुरा उतो चित् सः मर्डितारं न विन्दते ।) 
जो व्यक्ति अन्नवान् होते हुए निर्धनता से दुर्बल हुए पास आए याचक को अन्नदान नहीं करता, बल्कि मन कठोर रखते हुए उसके समक्ष अन्न का उपभोग अकेले करता है वह स्वयं भी कहीं सुख नहीं पा सकता । 

मेरे मतानुसार इस मंत्र में अन्न का अर्थ जीवनाधार अन्न-संपदाएं यानी भोग्य वस्तुएं होना चाहिए । संपन्न व्यक्ति के मन में भूखे-प्यासे के प्रति कुछ करुणा भाव तो जगना ही चाहिए । ‘कहीं सुख नहीं पा सकता’ के अर्थ पारलौकिक सुख से तो नहीं है ? वैदिक चिंतक इहलोक-परलोक के सतत चलने वाले चक्र में विश्वास करते थे, और मानते थे कि इहलोक के कर्मों पर परलोक निर्भर करता है । 

न स सखा यो न ददाति सख्ये सचाभुवे सचमानाय पित्वः । अपास्मात्प्रेयान्न तदोको अस्ति पृणन्तमन्यमरणं चिदिच्छेत् ॥ 
(न स सखा यः न ददाति सख्ये सचाभुवे सचमानाय पित्वः अप अस्मात् प्रेयात् न तत् ओको अस्ति पृणन्तम् अन्यं अरणं चित् इच्छेत् ।) 
जो व्यक्ति अपने साथ रहने वाले सहायक सहचर सखा को अन्नादि नहीं देता वह सुहृद् कहलाने के योग्य नहीं है । इस व्यक्ति का घर अपने योग्य नहीं है इस विचार के साथ सखा को उस व्यक्ति साथ छोड़कर अन्नादि की याचना करते हुए अन्यत्र अपना आश्रय तलाशना चाहिए ।  

सखा और मित्र शब्दों में भेद है । मोटे तौर पर दोनों समानार्थी मान लिए जाते हैं । मित्र व्यक्ति सदैव पास रहता हो आवश्यक नहीं; यह भावनात्मक अधिक है । इसके विपरीत सखा साथ में रहकर सहचर/परिचर की भूमिका में रहता है; अर्थात् साथ में रहने वाला सखा होता है । 

पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान्द्राघीयांसमनु पश्येत पन्थाम् । ओ हि वर्तन्ते रथ्येव चक्रान्यमन्यमुपतिष्ठन्त रायः ॥ 
(पृणीयात् इत् न अधमानाय तव्यान् द्राघीयांसम् अनुपश्येत पन्थाम् ओ हि वर्तन्ते रथ्या इव चक्रा अन्यम् अन्यम् उपतिष्ठन्त रायः ।) 
धनसंपदाओं से सुसमृद्ध व्यक्ति को चाहिए कि वह याचक की मांग को पूरी करते हुए पुण्यमार्ग का अनुसरण करे । संपदाओं का क्या है, वे तो कहीं भी सदैव के लिए नहीं टिकतीं । जैसे रथ के पहिए के अर (आरा) एक-दूसरे का स्थान लेती हुई अपना स्थान बदलती हैं वैसे ही संपदा भी अपना स्थान बदलती रहती हैं । 

यह मंत्र मनुष्य को धनसंपदा की नश्वरता का ध्यान दिलाती है । मंत्र कहता है कि कल तुम भी निर्धन हो सकते हो या कालांतर में तुम्हारी संपदा का नाश हो सकता है । निश्चय की धन की अनश्वरता संदेहास्पद है । यदि आप इतिहास पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि आज के सुसंपन्न लोगों की पूर्ववर्ती चौथी-पांचवीं पीढ़ियां सामान्य ही रही हैं, और जो लोग तीन-चार पीढ़ी पहले तक संपन्न रहे हैं उनके वंशजों की सुसंपन्नता की बातें नहीं होती हैं । असल में धन की तीन नियतियों का उल्लेख नीतिशास्त्रों में मिलता हैः भोग, दान एवं नाश । मनुष्य एक सीमा से अधिक भोग कर ही नहीं सकता है । ऐसे में उसे धन का एक अंश दान में खर्च करना ही चाहिए । यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो उस धन का अन्य तरीके से नाश ही अंतिम परिणति रह जाती है । अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथ में पहुंचकर उस धन की बरबादी अवश्यंभावी है । 

यह दुर्भाग्य की बात है कि स्वयं को धर्मनिष्ठ कहने वाले भारतीय समाज के लोगों के मन में जरूरतमंदों की आर्थिक मदद का विचार आता ही नहीं है । सीमित भोग के पश्चात् अपने धन को वे ‘और अधिक धन’ बटोरने में निवेश करते हैं । धन बढ़ता जाता है, लेकिन निरंतर बढ़ते हुए उस धन का उपभोग होगा कैसे यह प्रश्न उनके लिए महत्त्व नहीं रखता है । - योगेन्द्र जोशी