“भगवान श्री कृष्ण के प्रति आपके विचार बहुत ही दुख दायक है |आप भगवान के उद्देश्यों को समझ नहीं पाये अतः आपके मन में शंकाएं हैं, आप हिंदू धर्म को भी नहीं समझ पाए सनातन धर्म को भी नहीं समझ पाए| आपके धर्म को अपने आचरण में ना ढालने के कारण ही धर्म की हानी हुई है | अतः आपसे निवेदन है की भगवान श्रीकृष्ण पर गलत टिप्पणी ना करें अगर विश्वास नहीं कर सकते तो दूसरों के विश्वास को कमजोर करने का प्रयास ना करें आप सनातन धर्म को मानने वाले हैं तो धर्म की रक्षा के लिए कृपया धर्म विरोधी बात ना करें | धन्यवाद |” [Mon, 4 Nov, (2019) को प्राप्त ई-मेल का पाठ]
नौ वर्ष पूर्व २००९ में मैंने अपने ब्लॉग vichaarsankalan.wordpress.com पर दो लेख प्रस्तुत किए थे। प्रथम लेख (2010-07-26) महाभारत में वर्णित भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा युद्ध के प्रति प्रेरित करने हेतु अर्जुन को दिये गये उपदेश “यदा यदा हि धर्मस्य …” आदि पर आधारित था, और दूसरा लेख (2010-08-03) युद्ध पश्चात् उसके दुष्परिणामों को लेकर क्रुद्ध गांधारी के साथ श्रीकृष्ण के संवाद पर आधारित।
यहां पर याद दिला दूं कि महाकाव्य महाभारत के भीष्मपर्व के १८ अध्याय (अध्याय २५ से ४२ तक) ही श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से जाने जाते हैं और ये स्वतंत्र पुस्तक के तौर पर भी उपलब्ध हैं। इसी पुस्तक में “यदा यदा हि धर्मस्य …” आदि श्लोक मिलते हैं जिनका जिक्र मेरे पहले लेख में किया गया है। दूसरे लेख की सामग्री महाभारत के स्त्रीपर्व के अध्याय २५ पर आधारित है (श्लोक संख्या ४० से ४४ तक)।
इन लेखों पर मुझे यदा-कदा कुछ पाठकों की प्रतिक्रियाएं मिली थीं। अभी भी मिल जाती हैं। आरंभिक प्रतिक्रियाओं से ही मुझे लग गया था कि बहुतों को मेरी उक्त ब्लॉग-प्रविष्टियां अनुचित, अस्वीकार्य एवं धर्म (तात्पर्य हिन्दू धर्म) के विरुद्ध लगीं। कुछ पाठकों ने अपनी प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट रूप से नाखुशी अथवा उसके आगे आक्रोश भी व्यक्त किया था। उनकी टिप्पणियों से लगा कि मुझे उन लेखों को मिटा/हटा देना चाहिए था, किंतु वैसा करने का मैं इच्छुक नहीं था। उसके विपरीत मैंने लेखों के आरंभ में अपनी ओर से ही अधोलिखित टिप्पणी शामिल कर ली –
“मैं अपने जो विचार यहां लिख रहा हूं उनसे कई जन असहमत होंगे। कई जन आक्रोषित भी हो सकते हैं। मेरी प्रार्थना है कि जैसे ही आपको लगे कि विचार निकृष्ट हैं, आप आगे न पढ़ें। असहमत होते हुए भी यदि पढ़ना स्वीकार्य हो तो अपना ख़ून खौलाए बिना इन बातों को किसी मूर्ख अथवा सनकी की बातें समझकर अनदेखी कर दें और बड़प्पन दिखाते हुए मुझे क्षमा कर दें। धन्यवाद, शुक्रिया, थैंक्यू।”
मैं समझता था कि इस टिप्पणी के बाद पाठकों की टिप्पणियां असहमति के शब्दों तक सीमित एवं संक्षिप्त रहेंगी। मुझे उम्मीद थी कि “आप धर्म विरोधी हैं”, “आप हिन्दुओं को बदनाम कर रहे हैं”, “आपको प्राचीन ग्रंथों की कोई समझ नहीं है”, “ऐसा अनर्गल लिखना बंद करें” आदि जैसे उद्गार लिखते हुए पाठकवृंद स्वयं को सर्वज्ञ एवं धर्मज्ञ होने का एहसास मुझे नहीं दिलाएंगे। इस लेख के शीर्ष पर (आरंभ में) मेरे लेख/लेखों पर मिली सबसे हालिया टिप्पणी है एक बानगी के तौर पर न कि अपनी खुशी-नाखुशी व्यक्त करने के लिए।
मेरा मन हुआ कि क्यों न इस प्रकार की टिप्पणियों को पाकर अपने मन में उठने वाले विचारों पर ही कुछ लिख डालूं। मेरी इस वैचारिक प्रस्तुति पर भी तरह-तरह की दिलचस्प प्रतिक्रियाएं संभव हैं। हो सकता है कोई कुछ लिख भी भेजे या मन में पसंद-नापसंद के भाव के साथ चुप्पी ही साध ले।
(१)
मैंने आरंभ में जिस टिप्पणी का जिक्र किया था उसके इस वाक्य पर गौर करें:
“… अगर विश्वास नहीं कर सकते तो दूसरों के विश्वास को कमजोर करने का प्रयास ना करें …”
पाठकवृंद विचार करें कि यदि किसी व्यक्ति का विश्वास इतना कमजोर हो कि मुझ जैसे अदने आदमी के कुछ कहने पर उसका विश्वास डिग जाए तो ऐसी कमजोर धारणा विश्वास कहे जाने योग्य नहीं रह जाएगा। विश्वास तो तब कहा जाएगा जब धारणा इतनी मजबूत हो कि ऐसी-वैसी बातों से बदल न सके। यदि विश्वास टूट जाए तो इसका मतलब यही होगा कि विश्वास महज सतही और केवल दिखावे का होगा; अन्यथा यह माना जाएगा कि सामने वाले की बातों में इतना दम होगा कि सुनने वाला प्रभावित हो जाए।
अब निर्णय करें कि मेरी औकात ऐसे होगी? मैं कोई सुप्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं हूं जिसे लोग धर्मवेत्ता, ज्ञानी, विद्वान्, या धर्मांतरण कराने वाला आदि के तौर पर जानते हों। आपके विश्वास की मजबूती आपके हाथ में है न कि मेरे कथनों!
(२)
टिप्पणी का अगला अंश देखिए:
“… हिंदू धर्म को भी नहीं समझ पाए सनातन धर्म को भी नहीं समझ पाए| आपके धर्म को अपने आचरण में ना ढालने के कारण ही धर्म की हानी हुई है …”
जरा सोचिए अकेले मेरे कारण तो धर्म की हानि नहीं होनी चाहिए। इस विशाल जनसंख्या वाले देश में मुझ जैसे कुछ सिरफिरे धर्म को हानि पहुंचाने के आपत्तिजनक कार्य यदि कर रहे हों तो मात्र उतने से धर्म की हानि होने लगे तो यह आश्चर्य की बात मानी जानी चाहिए, विशेषतः जब धर्म में व्यापक जनसमुदाय लगा हुआ हो। अवश्य ही देश में धर्मकर्म में लगे रहने वालों की संख्या विशाल होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं है और धर्म को हानि से बचाने वालों की संख्या अपर्याप्त है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा?
(३)
चाहे हिन्दी हो या संस्कृत अथवा अंग्रेजी, मेरा भाषाज्ञान उत्कृष्ट स्तर का है यह दावा मैं नहीं करता। फिर भी इन भाषाओं की थोड़ी बहुत – अपनी जरूरत के हिसाब से पर्याप्त – जानकारी मुझे है ऐसा विश्वास करता हूं। विद्वान् पाठकवृंद कदाचित् हिन्दी-संस्कृत में चर्चित शब्द-शक्ति से परिचित होंगे। श्रीमद्भगवद्गीता के जिन श्लोकों का उल्लेख मैंने अपने संबंधित आलेखों में किया है उनकी व्याख्या मैंने सहज रूप से “अभिधा शब्दशक्ति” के आधार पर की है। शब्दों के प्रचलित अर्थों के आधार पर मैं जो समझ पाया वही मैंने लिखा। यदि उन श्लोकों में कोई गूढ़ संदेश छिपा हो जिसको समझ पाना शब्दों के सामान्य अर्थों के अनुसार संभव न हो तो बात अलग होगी। परंतु मेरी व्याख्या से ये निष्कर्ष निकालना क्या उचित होगा कि मैं अधर्म का प्रचार कर रहा हूं?
(४)
चूंकि आलोचक सज्जन ने मेरे द्वारा धर्म को हानि पहुंचाने की बात उठाई है तो मैं धर्म की अपनी समझ की बात करना चाहूंगा। मैं महाभारत के अधोलिखित श्लोक से अपनी बात शुरू करता हूं:
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः सः पन्थाः ।।
(महाभारत, वनपर्व, अध्याय ३१२ एवं ३१३ में वर्णित)
महाभारत महाकाव्य में यक्ष-युधिष्टिर संवाद का जिक्र है जिसमें यक्ष युधिष्टिर से कुछ प्रश्न पूछते हैं उन्हीं में एक धर्म से संबधित है। (मैं कथा का उल्लेख नहीं कर रहा हूं।) उसी के उत्तर में उपर्युक्त श्लोक है जिसका अर्थ इस प्रकार दिया जा सकता है:
जीवन-निर्वाह कैसे हो इस पर सुस्थापित तर्क नहीं हैं। श्रुतियां (शास्त्रीय स्रोत) के मत में भी विविधता है। कोई ऋषि-मुनि नहीं है जिसका मत अंतिम प्रमाण कहा जाए। धर्म का मर्म तो गुहा (गुफा) में छिपा है, यानी बहुत गूढ़ है। ऐसे में समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है वही अनुकरणीय मार्ग है (धर्म है)।
प्राचीन काल में प्रतिष्ठित वह माना जाता था जो चरित्रवान् हो, कर्तव्यों का पालन करता हो, दूसरों के प्रति संवेदनशील हो, समाज के हितों के लिए समर्पित हो, सत्यनिष्ठ, क्षमाशील एवं चरित्रवान हो, इत्यादि। उसी का आचरण अनुकरणीय है, उसी से धर्म का तत्व समझा जा सकता है। वर्तमान युग में इस शब्द के अर्थ बदल चुके हैं। आजकल प्रतिष्ठित उसे कहा जाता है जो धन-संपदा से सुसंपन्न हो या किसी व्यावसायिक क्षेत्र-विशेष में सुसफल हो या शासकीय-प्रशासकीय अधिकार-प्राप्त हो अथवा अन्य अधिकारों से लैस हो इत्यादि।
उपर्युक्त कथन से मैं यही निष्कर्ष निकालता हूं अपने आचरण का उत्तरोत्तर परिष्करण करना और यथासंभव समाज का हित साधना धर्म है। गंगास्नान करने, मंदिर में पूजापाठ करने, प्रतिदिन नियमतः गीतापाठ करने, गेरुआ वस्त्र धारण करने या माथे पर चंदन-रोली तिलक लगाने आदि से व्यक्ति की धर्मनिष्ठा सिद्ध नहीं होती। यह सब समाज में समय-समय पर आईं परंपराएं हैं, जिनका कुछ जन निर्वाह करते हैं। किंतु सत्यनिष्ठा, परोपकार, अहिंसा, मधुर व्यवहार, चोरी-घूसखोरी आदि से परहेज, आदि व्यक्ति का आचरण व्यक्त करते हैं। जो व्यक्ति रोजगंगा-स्नान करे लेकिन घर के प्रवेशद्वार पर आए जरूरतमंद को दुत्कारकर भगा दे तो क्या उसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति कहा जा सकता है? उसे धर्म को हानि पहुंचाने वाला नहीं कहेंगे? और इस प्रकार के आचरण वाले समाज में कम हैं क्या? तो उन सब को धर्मच्युत होने से आप कैसे रोक रहे हैं?
(५)
अनेक सवाल मेरे मन में उपजते हैं: आप धर्म को हानि पहुंचा रहे हैं कहने वाले बता सकते हैं कि उनकी राय भगवान् बुद्ध (जिन्हें भगवद्-अवतारों में गिना जाता है) के बारे क्या है? उन्होंने तो हिन्दू मान्यताओं को ही त्याग दिया, यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व को ही नकार दिया? इसी प्रकार जैन तीर्थंकरों के बारे में उनकी राय क्या रही है? सिक्ख विचारों के प्रणेता गुरु नानक जी को धर्म विरोधी कहा जाएगा या नहीं? आधुनिक काल की बात करें तो स्वामी दयानंद सरस्वती की ओर ध्यान जाता है जो मूर्तिपूजा के विरोधी थे। वे क्या धर्म विरोधी थे? यदि नहीं तो क्या वे दूसरे लोग धर्म विरोधी कहे जाएंगे जो मूर्तिपूजा करते हैं?
(६)
मैंने ऊपर (५) के अंतर्गत सप्रयोजन प्रश्न उठाए हैं। हिन्दू धर्म है क्या? कोई स्पष्ट परिभाषा है क्या? भौतिकी (फ़िज़िक्स) का शिक्षक होने के वाबजूद मेरी रुचि संस्कृत में रही है और उसे सीखने की कोशिश की है। अपने उस संस्कृत-ज्ञान – भले ही वह उच्च स्तर का न हो – की मदद से मैंने कुछ प्राचीन संस्कृत ग्रंथ पढ़े हैं। ये ग्रंथ वाल्मिकीय रामायण, महाभारत महाकाव्य तो हैं ही, इसके अतिरिक्त ग्यारह प्रमुख उपनिषद् भी हैं। वेदों को समझने का भी प्रयास किया है, और मनुस्मृति एवं याज्ञवल्क्य स्मृति का भी अध्ययन किया है। मैंने कहीं पर भी “हिन्दू धर्म” परिभाषित नहीं पाया।
दो बातें यहां पर कहना चाहूंगा:
(१) यह कि “हिन्दू” शब्द संस्कृत मूल का न होकर अरब-वासियों का इस देश के बाशिंदों के लिए प्रयुक्त शब्द रहा है (दरअसल हिन्दी) और मध्यकाल में ही प्रचलन में आया। यहां के प्राचीन बाशिंदों ने अपने लिए भारती(य) शब्द चुना था जिसका उल्लेख विष्णुपुराण (विष्णुपुराण, २.३.१) में मिलता है।
(२) प्राचीन ग्रंथों से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि धर्म शब्द व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्द (Proper Noun) है न कि “मजहब” या रिलीजन (Religion) का पर्याय, जैसा कि आम तौर पर प्रचलित धारणा है। चाहे जैन ग्रंथों को देखें या बौद्ध ग्रंथ या हिन्दू ग्रंथ सभी में धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है जो मनुष्य के मूलभूत कर्तव्यों को इंगित करता है। जैसा पहले कहा गया धर्म के अंतर्गत सत्यवादिता, अहिंसा, परोपकारिता, आदि जैसी समष्टि के हित की बातें शामिल रहती हैं। इसे कभी-कभी सनातन भी कहा गया है, अर्थात् देश-काल से निरपेक्ष समस्त मानव समाज के लिए निर्धारित कर्तव्य। रिलीजन या मजहब में ये भाव नहीं जितना मैं समझ पाया हूं। धर्म में कोई आध्यात्मिक दर्शन शामिल नहीं है।
हिन्दू धर्म (प्रचलित अर्थ में प्रयुक्त कर रहा हूं) में यह स्वीकारा गया है कि समाज में स्वाभाविक तौर पर मत-मतांतर होते हैं। यहां उपनिषदों की अपनी-अपनी समझ से व्याख्या करके ऋषि-मुनियों ने विविध दर्शन प्रस्तुत किए हैं जिनमें छ: दर्शन (षड्दर्शन – न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदांत) प्रमुख हैं। उपनिषद “नेति नेति” कहकर यह यह स्पष्ट करते हैं कि हर व्यक्ति को स्वतंत्र चिंतन की छूट है। हरएक अपना मत दूसरों के समक्ष रख सकता है परंतु उन्हें अन्यों पर थोपने का अधिकार नहीं रखता है। यही कारण है कि यहां द्वैतवाद भी है और अद्वैतवाद भी है, मूर्तिपूजा भी है और उसका विरोध भी, ईश्वरवाद भी है और अनीश्वरवाद भी, इत्यादि। लोकायत के प्रवर्तक चारवाक् कहते थे कि न आत्मा है न परमात्मा, जो भी है यही भौतिक संसार है। वे भी हिन्दू ही थे। (यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत् । भष्मीभूतशरीरस्य पुनरागमनं कुतः ॥)
अपने समाज में कोई नहीं जो निर्णय करे कि कौन हिन्दू है और कौन नहीं? दरअसल “हिन्दू धर्म” में मत-मतांतर सामान्य बातें हैं और सभी से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने मत के साथ दूसरे के मतभेद का अधिकार न छीने। किसी को भी यह अहंकार नहीं होना चाहिए कि वह स्वयं सर्वज्ञानी है और दूसरा अज्ञानी। व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपना वैमत्य शालीनता एवं सम्मान के साथ व्यक्त करे। मैं कई मौकों पर ऐसा न होते हुए पाता हूं।
इस आलेख को लिखते समय मुझे एक अन्य टिप्पणी मिली जो इस प्रकार है:
“Mahoday aapka naam mere isht ke naam par rakha gya hai, yah jaankar atyant harsh hua, yogesh ji Ek baar sandhya aarti ke pashchaat nidhivan padhariye , sambhavtah aapka Bhram door ho sake,
……Apka …..” [Mon, 16 Nov, (2019) को प्राप्त ई-मेल का पाठ]
मेरे इस आलेख का प्रयोजन अपनी कुछ मान्यताओं या जानकारियों को स्पष्ट करना था, जो आपके मत में अस्वीकार्य या यथार्थ से परे हो सकती हैं। -योगेन्द्र जोशी