हितोपदेश ग्रंथ से चुने गये पांच विचारणीय नीतिश्लोक

 संस्कृत ग्रंथ “पंचतंत्र” एवं “हितोपदेश” ऐसे दो ग्रंथ हैं जो छोटी-कथाओं के माध्यम से किशोरवय बच्चों को व्यवहारिक ज्ञान देने के उद्येश्य से लिखे गये हैं। इनमें से अधिकांश कथाएं इस प्रकार लिखी गई हैं कि एक के भीतर दूसरे का जिक्र आता है और दूसरी कथा उससे जुड़ जाती है। कथाओं की विशेषता यह है कि उनके पात्र प्रायः पशु-पक्षी हैं जो मनुष्यों की तरह बोलते एवं परस्पर संबंध निभाते हैं। इन पात्रों में वही गुण-अवगुण आरोपित रहते हैं जो मानव समाज में यत्रतत्र दिखाई देते हैं जैसे शत्रुता-मित्रता, सत्य-असत्य, उपकारिता-अपकारिता आदि के भाव। कहीं-कहीं पर मनुष्य पात्र भी शामिल दिखाई देते हैं। पंचतंत्र मौलिक ग्रंथ प्रतीत होता है किंतु हितोपदेश मुख्यतः अलग-अलग स्रोतों से लिए गये नीतिवचनों पर आधारित है जैसा कि स्वयं लेखक श्रीनारायणपंडित ग्रंथ के आरंभिक अनुच्छेदों से स्पष्ट होता है।

यहां पर मैं हितोपदेश के पांच छंदों/श्लोकों का उल्लेख कर रहा हूं। इनमें व्यक्त भावों का जिक्र हम सभी यदाकदा किसी न किसी मौके पर करते भी हैं।

(१) 

नारिकेलसमाकारा दृश्यन्ते हि सुहृज्जनाः ।

अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः ॥

(हितोपदेश, मित्रलाभ, ९४)

(सुहृत्-जनाः नारिकेल-सम-आकाराः हि दृश्यन्ते, अन्ये बदरिका-आकारा बहिः मनोहराः एव ।)

अर्थ – सहृदय यानी हितैषी जन नारियल की तरह (बाहर से) कुरूप होते हैं लेकिन अन्य लोग बेर-फल की तरह केवल बाहर से (चीकने-चुपड़े एवं )सुन्दर होते हैं।

     नारियल जटाओं सदृश रेशों में लिपटा हुआ कड़े खोल वाला फल होता है जिसके भीतर मुलायम सुस्वादु गरी रहती है। इसके विपरीत बेर का बाहर का खोल (गूदा) देखने में सुन्दर एवं खाने में स्वादिष्ट होता है। किन्तु उसके भीतर कड़ी और निरुपयोगी गुठली होती है। ये उपमाएं यह दर्शाने के लिए चुनी गईं हैं कि असली मित्र (सुहृद) व्यवहार में अक्सर कठोर एवं रूखा होता है और दूसरे के लिए हितकर परंतु अप्रिय लगने वाली बात भी कह देता है। लेकिन उसका हृदय संवेदनशील, परोपकार भावना वाला और दूसरे के हित चाहने वाला होता है। अन्य लोग ऊपरी तौर पर मधुरभाषी (“पॉलिश्ड”) होते है किंतु वे दूसरों के हित की कामना रखते हों ऐसा कम ही होता है। वे जरूरत के समय कन्नी काट जाते हैं।

(२)

अधोऽधः पश्यतः कस्य महिमा नोपचीयते ।

उपर्युपरि पश्यन्तः सर्व एव दरिद्रति ॥

(हितोपदेश, सुहृद्भेद, २)

(अधः-अधः पश्यतः कस्य महिमा न उपचीयते, उपरि-उपरि पश्यन्तः सर्वः एव दरिद्रति ।)

अर्थ – अपने से नीचे देखने वाले किसकी महत्ता बढ़ नहीं जाती, और ऊपर-ऊपर देखने वाले सभी को अपनी दरिद्रता नजर आती है।

     यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि समाज में व्यक्ति अपने को संपन्न-सुखी अनुभव करता है जब वह तुलनात्मक रूप से अपने से निम्नतर हालात वालों की ओर देखता है। उसे लगता है कि मैं कितनी अच्छी स्थिति में हूं। इसके विपरीत जब वह उनकी ओर देखता है जो उससे भी अधिक सम्पन्न-प्रतिष्ठित हों तो वह स्वयं को हीनतर अवस्था में पाता है। वस्तुतः मनुष्य की सुख-दुःख की अनुभूति दो प्रकार के कारणों से जुड़ी होती है। पहला कारण तो यह है कि उसकी मूलभूत आवश्यकताएं अपूरित रह रही हों, या वह अपनी समस्याओं का हल न खोज पा रहा हो, या भौतिक अथवा दैवी आपदाओं से घिरा हो, इत्यादि। दूसरा कारण समाज के अन्य सदस्यों से तुलना कर-कर के वह अपनी अवस्था से संतोष अथवा असंतोष प्राप्त करता है। ईर्ष्या मनुष्य के स्वभाव का एक अंग होता है जिसकी वजह से वह स्वयं को कभी सुखी तो कभी दुःखी अनुभव करता है। तुलना की इस प्रवृत्ति से पैदा हुए दुःख का कोई इलाज नहीं है।

(३)

स्वेदितो मर्दितश्चैव रज्जुभिः परिवेष्टितः ।

मुक्तो द्वादशभिर्वर्षैः श्वपुच्छः प्रकृतिं गतः ॥

(हितोपदेश, सुहृद्भेद, १३८)

(स्वेदितः, मर्दितः, एव रज्जुभिः परि-वेष्टितः च द्वादशभिः वर्षैः मुक्तः श्व-पुच्छः प्रकृतिम् गतः ।)

अर्थ – गर्म सिंकाई और मालिश की गयी, रस्सी से (सीधी रखने हेतु) लपेटकर रखी गयी, बारह वर्षों बाद खोली गयी तो भी कुत्ते की पूंछ अपने पूर्व स्वभाव में लौट आई

     सामान्य बोलचाल में भी हम ऐसी उक्ति का उल्लेख करते हैं “… कुत्ते की पूंछ टेड़ी की टेड़ी !” उपर्युक्त नीति वचन वस्तुतः इस तथ्य को व्यक्त करता है कि मानव स्वभाव बदलना आसान नहीं होता। सज्जन प्रकृति के लोगों को जब अपनी स्वभावगत कमियों का अहसास होता है, या अन्य जन उनके नकारात्मक पहलुओं की ओर संकेत करते हैं तो वह अपने में सुधार लाने का प्रयास करने लगते हैं। किंतु दुर्जन प्रकृति के लोग ढीठ होते हैं, सुधरने को तैयार नहीं होते हैं। आप प्रयास करते रहिए, वे अपनी आदत से मजबूर रहते हैं।

(४)

मत्तः प्रमत्तश्चोन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ।

लुब्धो भीरुस्त्वरायुक्तः कामुकश्च न धर्मवित् ॥

(हितोपदेश, संधि, ५५)

(मत्तः, प्रमत्तः च उन्मत्तः, श्रान्तः, क्रुद्धः, बुभुक्षितः, लुब्धः, भीरुः, त्वरा-युक्तः, कामुकः च धर्म-वित् न ।)

अर्थ – मस्ती में डूबा हुआ (जैसे मदमस्त), लापरवाह (वस्तुस्थिति का होश न रहना), एवं उन्मादी (जुनूनी), थका हुआ, क्रोधित, भूखा, लोभी, कायर, जल्दबाज, और कामवासना से ग्रस्त व्यक्ति धर्मवेत्ता नहीं होता।

     उक्त श्लोक में मनुष्य के उन दोषों का जिक्र किया गया है जो उसे धर्म से विमुख कर देते हैं, अर्थात्‍ ऐसा व्यक्ति उचितानुचित का विवेक खो बैठता है। धर्म के प्रति समर्पित व्यक्ति का विवेकशील होना आवश्यक है ताकि वह शान्ति से उचित-अनुचित में भेद करे।

याद रहे कि धर्म का अर्थ कर्मकांड में लिप्त रहना नहीं। यदि आप प्राचीन ग्रंथों को गंभीरता से पढ़ें तो पाएंगे कि धर्म एक तरफ आत्मिक उत्थान से जुड़ा है तो दूसरी तरफ वह समाज, प्राणी-जगत और व्यापक स्तर पर प्रकृति के प्रति कर्तव्यों को व्यक्त करता है। देवी-देवताओं को पूजना, गंगास्नान करना, गेरुआ वस्त्र एवं तिलक आदि धारण करना इत्यादि धर्म के मूल तत्व नहीं होते।

(५)

दुर्जनदूषितमनसः सुजनेष्वपि नास्ति विश्वासः ।

बालः पायसदग्धो दध्यपि फूत्कृत्य भक्षयति ॥

(हितोपदेश, संधि, १०२)

(दुर्जन-दूषित-मनसः विश्वासः सुजनेषु अपि न अस्ति, पायस-दग्ध: बालः दधि अपि फूत्-कृत्य भक्षयति ।)

अर्थ – दुर्जनों द्वारा जिसका मन दूषित किया गया हो उसका विश्वास सुजनों में भी नहीं रह जाता है। (गर्म) दूध से जला बालक दही भी फूंक-फूंक कर पीता है।

     एक सुपरिचित उक्ति है “दूध का जला छांछ फूंक-फूंककर पीता है।” उपर्युक्त छंद उसी भाव को व्यक्त करता है। उक्त छंद में दधि (दही) शब्द का प्रयोग क्यों हुआ है मैं समझ नहीं पाया। दूषित मन वाले से तात्पर्य है जिसे दुर्जनों द्वारा धोखा दिया गया हो, जिसे भ्रमित करके छ्ला गया हो, जिसके साथ ज्यादती की गई हो, इत्यादि। फलतः वह व्यक्ति हर किसी के प्रति शंकालु हो जाता है। इसलिए धोखा खाया व्यक्ति संभल-संभल कर चलता है। उसकी स्थिति दूध के जले निरीह बालक की सी होती है जो ठडे छांछ को भी गर्म दूध की तरह समझकर उसे फूंक-फूंककर पीता है।

बहुत से लोग परेशानी में पड़े व्यक्ति की सहायता करते हैं। लोगों की इस प्रवृत्ति का चालाक-मक्कार जन नाजायज फायदा उठाते हैं। सीधे-सादे  आदमी को जब पता चलता है कि उसे धोखा दिया गया है तो वह घटना से सबक लेते हुए भविष्य में सावधान हो जाता है। जिनको मदद की वास्तव में जरूरत होती है उन पर भी शंका करते हुए मदद करने भी बचता है। किसी के माथे पर सज्जनता या दुर्जनता का ठप्पा तो लगा नहीं रहता! दुर्जनों के कारण सज्ज्नों को भी हानि उठानी पड़ती है। – योगेन्द्र जोशी

“न विश्वसेत् अविश्वस्ते …” – पंचतंत्र में वर्णित कौवे एवं चूहे की नीतिकथा

पंचतंत्र के नीतिवचनों पर आधारित अपनी 7 फरवरी 2010 की पोस्ट में मैंने ग्रंथ का संक्षिप्त और एक प्रकार से अधूरा परिचय दिया था। उसके बारे में इस स्थल पर विस्तार से बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी इतना कहना चाहूंगा कि इसमें व्यावहारिक जीवन से संबंधित सार्थक नीति की तमाम बातें कथाओं के माध्यम से समझाई गयी हैं । इन कथाओं में अधिकतर पात्र मनुष्येतर प्राणी यथा लोमड़ी, शेर, बैल, कौआ आदि हैं। कथाएं आपस में शृंखलाबद्ध तरीके जुड़ी हुई हैं अर्थात्‍ एक कथा में दूसरी कथा और उसमें तीसरी आदि के क्रम से कथाओं का बखान किया गया है। उक्त ग्रंथ पांच खंडों में विभक्त है जिन्हें “तंत्र” पुकारा गया है। ये हैं:

1. मित्रभेदः, 2. मित्रसंप्राप्तिः, 3. काकोलूकीयम्, 4. लब्धप्रणाशम्, एवं 5. अपरीक्षितकारकम् ।

प्रत्येक तंत्र में किसी एक प्रकार की विषयवस्तु लेकर कथाएं रची गई हैं, जैसे मित्रभेदः में वे कथाएं हैं जो दिखाती हैं कि किस प्रकार प्रगाढ़ मित्रों के बीच फूट डालकर अपना हित साधा जा सकता है। इसी प्रकार अंतिम तंत्र अपरीक्षितकारकम्‍ में वे कथाएं हैं जो दर्शाती हैं कि समुचित सोचविचार के बिना किया जाने वाला कार्य कैसे घातक हो सकता है।

पंचतन्त्र का आरंभ कुछ यों होता है: सुना जाता है कि दक्षिण देश में महिलारोप्य नामक नगर हुआ करता था। वहां अमरशक्ति नाम के हर प्रकार से योग्य राजा शासन करते थे। उनके तीन पुत्र थे जिनके नाम क्रमश: बहुशक्ति, उग्रशक्ति तथा अनंतशक्ति थे। कुबुद्धि प्रकार के वे तीनों राजपुत्र शास्त्रादि के अध्ययन में बिल्कुल भी रुचि नहीं लेते थे। राजा उनके बारे में सोच-सोचकर दुःखी रहते थे। उन्होंने एक बार अपने मन के बोझ की बात मंत्रियों के सामने रखते हुए राजपुत्रों को विवेकशील एवं शिक्षित बनाने के उपाय के बारे में पूछा। सोचविचार के बाद मंत्रियों ने उन्हें बताया कि शास्त्रों एवं अनेक विद्याओं के ज्ञाता एक ब्राह्मण राज्य में हैं। उन्हीं के संरक्षण में राजपुत्रों को सौंप दिया जाए। ब्राह्मण ने राजपुत्रों को सुधारने का जिम्मा ले लिया इस शर्त के साथ कि वे छः महीने तक उनके साथ रहेंगे और राजा या अन्य कोई उनके कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगा। ये ब्राह्मण स्वयं पंचतंत्र ग्रंथ के रचयिता विष्णुशर्मा थे। माना जा सकता है कि विष्णुशर्मा ने सरल, रोचक, एवं शिक्षाप्रद कथाओं के माध्यम से राजपुत्रों में विद्याध्ययन के प्रति रुचि जगाई।

मैं यहां पर उक्त ग्रंथ की एक कथा प्रस्तुत करते हुए नीतिप्रद श्लोकों का उल्लेख कर रहा हूं।

एक बार एक बहेलिये ने पक्षियों को पकड़ने के लिए जंगल में चारा डालते हुए जाल फैला दिया। कुछ समय बाद कबूतरों का एक झुंड उधर आया और वहां पड़े चारे को खाने के लिए लालायित हुआ। कबूतरों के मुखिया/राजा, चित्रग्रीव, ने झुंड के सदस्यों से कहा, “इतना सारा चारा यहां पर कैसे और कहां से आया होगा यह सोचने की बात है। अवश्य ही कुछ रहस्य है और हमें इससे बचना चाहिए।”

झुंड के सदस्यों ने कहा, “आप यों ही सशंकित हो रहे हैं। इसे चुगने पर कोई खतरा नहीं होगा।” और वे सभी नीचे उतर गए और जाल में फंस गए।

स्वयं को विपत्ति में पड़ा हुआ पाने पर कतोतराज चित्रग्रीव ने शेष कबूतरों से कहा, “तुम लोग धैर्य से काम लेना। अब हम एक कार्य कर सकते हैं। जाल समेत यहां से उड़ चलें और हिरण्यक नामक मेरे घनिष्ठ मित्र चूहे के पास पहुंचें। वह जंगल ही में एक पेड़ के जड़ के पास बने बिल में रहता है।”

उस पेड़ के पास पहुंचने पर चित्रग्रीव ने मित्र हिरण्यक चूहे को मदद के लिए पुकारा। हिरण्यक ने जानी-पहचानी सी आवाज सुनी तो उसने बिल के अंदर से ही पूछा, “कौन है बाहर मुझे पुकारने वाला? नाम-पता तो बताओ।”

चित्रग्रीव ने जवाब दिया, “भाई, मैं हूं तुम्हारा मित्र कपोतराज चित्रग्रीव। मैं विपत्ति में फंस गया हूं, इसलिए शीघ्र मेरी मदद करो।”

हिरण्यक ने बिल से बाहर निकलने पर देखा कि उसका मित्र अपने साथी कबूतरों के  साथ जाल में फंसा हुआ है। वह शीघ्र चित्रग्रीव के पास पहुंचा और उसके बंधन काटने लगा। कपोतराज ने उसे मना किया और कहा, “पहले इनके बंधन काटो और अंत में मेरे।”

हिरण्यक ने आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा, “पहले तुम्हें मुक्त होना चाहिए। बाद में देर हो जाए, या मैं थक जाऊं, अथवा मेरे दांत टूट जाएं तो तुम्हें मुक्त करना संभव नहीं हो पाएगा।”

“मैं इन सब का मुखिया हूं, राजा हूं। मेरा कर्तव्य है कि पहले प्रजा का हित साधूं न कि अपना। मुझे त्याग करना पड़े तो कोई बात नहीं; इनकी मुक्ति पहले होनी चाहिए।” कपोतराज ने उत्तर दिया।

हिरण्यक ने सहमति जताते हुए कहा, “मित्र, मैं तो देखना चाहता था कि तुम राजा के तौर पर कितने स्वार्थी हो। मुझे विश्वास था ही तुम योग्य राजा के अनुरूप ही निर्णय लोगे।” और उसने तेजी से उन सभी के बंधन काट डाले। तब दोनों मित्रों के बीच कर्तव्याकर्तव्य और कुशलक्षेम की संक्षिप्त बातें हुई और अंत में चित्रग्रीव ने हिरण्यक के प्रति आभार प्रकट करते हुए विदा ली। हिरण्यक भी सतर्क अपने बिल में सुरक्षित चला गया।

उसी पेड़ की एक डाली पर लघुपतनक नामक एक कौआ भी रहता था। वह उस घटना को देख रहा था और दोनों के बीच हुए वार्तालाप को ध्यान से सुन रहा था। चूहे हिरण्यक की विद्वतापूर्ण बातें उसे खूब भाईं और उसे लगा कि उससे मित्रता की जानी चाहिए। तब वह बिल के पास आकर बोला, “अरे हिरण्यक भाई, बाहर आओ, मैं भी तुमसे मित्रता करना चाहता हूं।”

हिरण्यक ने उससे उसका परिचय जानना चाहा। उस कौवे ने बताया कि वह लघुपतनक नाम का कौआ है जो उसी पेड़ पर रहता है। अपने बिल में सुरक्षित टिके हुए  हाजिरजवाब हिरण्यक ने आपत्ति जाहिर की, “अरे काक लघुपतनक, तुम्हारे-मेरे मध्य मित्रता कैसे संभव है? मेरी प्रजाति तो तुम्हारी प्रजाति के लिए भक्ष्य है। मैं शिकार और तुम शिकारी। मैं तो तुम्हारी मौजूदगी में बिल के बाहर भी निकलने की हिम्मत नहीं सकता, दोस्ती तो बहुत दूर की बात है।”

हिरण्यक ने बिल के अंदर से ही लघुपतनक से कहा कि परस्पर संबंध स्थापित करते समय दो जनों को अधोलिखित नीति-श्लोक पर ध्यान देना चाहिए:

ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् ।

तयोर्मैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥२९॥

(पञ्चतंत्र, द्वितीय तंत्र मित्रसंप्राप्ति)

(ययोः एव समम् वित्तम् ययोः एव समम् कुलम् तयोः मैत्री विवाहः च न तु पुष्ट-विपुष्टयोः ।)

शब्दार्थ – जिनका (दो व्यक्तियों का) समान वित्त हो, जिनका कुल समान हो, उन्हीं में परस्पर मित्रता एवं विवाह ठीक है न कि सक्षम एवं असक्षम के बीच।

अर्थात् दो जनों के मध्य यारी-दोस्ती और वैवाहिक संबंध तभी स्थापित होने चाहिए जब वे समकक्ष कुलों से जुड़े हों और उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में समानता हो। जहां दोनों के बीच आर्थिक असमानता हो या दोनों की सामाजिक प्रतिष्ठा के स्तर में अंतर हो वहां संबंध नहीं बनाए जाने चाहिए।

इसके आगे भी हिरण्यक समझाया:

यो मित्रं कुरुते मूढ आत्मनोऽसदृशं कुधीः ।

हीनं वाप्यधिकं वापि हास्यतां यात्यसौ जनः ॥३०॥

(यथा उपर्युक्त)

यः मित्रम् कुरुते मूढः आत्मनः असदृशम् कुधीः हीनम् वा अपि अधिकम् वा अपि हास्यताम् याति असौ जनः ।)

शब्दार्थ – जो कुबुद्धि अपने असमान, अपने से हीनतर हो अथवा श्रेष्ठतर, के साथ मित्रता करता है वह जगहंसाई का पात्र बन जाता है।

जो व्यक्ति अपने से सर्वथा भिन्न आर्थिक अथवा सामाजिक स्तर के व्यक्ति के साथ मित्रता अथवा पारिवारिक संबंध स्थापित करता है वह मूर्ख कहा जाएगा। ऐसा व्यक्ति अपने से श्रेष्टतर स्थिति वाले व्यक्ति द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता है। मानव समाज में ऐसा सदैव नहीं देखने को मिलता है जहां दो, विशेषतः जब जने वैचारिक कारणों से मित्र बनते हैं। किंतु वैवाहिक मामलों में यह काफी हद तक सही है। हीनतर स्थिति वाले व्यक्ति का कभी-कभी स्पष्ट तौर पर तिरस्कार होता है। ऐसी संभावनाओं के कारण ही बराबरी के रिश्ते को उचित माना जाता है।

नीति की इस प्रकार की बातों से लघुपतनक हिरण्यक से बहुत प्रभावित हुआ। उसने समझाने की कोशिश की, “मैं तुम्हें धोखा देने के विचार से मित्रता की बात नहीं करता। मैं वास्तव में गंभीर हूं क्योंकि मैं तुमसे विद्वता की बातें सुनना चाहता हूं, तुम्हारे साथ विचारों का आदान-प्रदान करना चाहता हूं। तुम मेरा विश्वास करो।”

विश्वास की बात पर हिरण्यक ने उत्तर दिया:

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत् ।

विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृतन्ति ॥४४॥

(यथा उपर्युक्त)

(न विश्वसेत् अविश्वस्ते विश्वस्ते अपि न विश्वसेत् विश्वासात् भयम् उत्पन्नम् मूलानि अपि निकृतन्ति ।)

शब्दार्थ – अविश्वसनीय व्यक्ति का तो विश्वास न ही करे और विश्वसनीय पर भी विश्वास न करे। विश्वास करने पर जो संकट पैदा होता है वह जड़ों को भी काट डालता है। तात्पर्य यह कि अपने विश्वस्त पर भी पूरा विश्वास नहीं ही होना चाहिए क्योंकि वह भी धोखा दे सकता है।

न वध्यते ह्यविश्वस्तो दुर्बलोऽपि बलोत्कटैः ।

विश्वस्ताश्चाशु बध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः ॥४५॥

(यथा उपर्युक्त)

(न वध्यते हि अविश्वस्तः दुर्बलः अपि बल-उत्कटैः विश्वस्ताः च आशु बध्यन्ते बलवन्तः अपि दुर्बलैः ।)

शब्दार्थ – विश्वास न हो जिसे (अविश्वस्त) ऐसा दुर्बल व्यक्ति बलशाली द्वारा भी नहीं मारा जाता है। विश्वस्त व्यक्ति तो दुर्बल के द्वारा भी शीघ्र मारा जाता है।

इन दो छंदों का उल्लेख अपनी टिप्पणी के साथ मैंने २०१० की एक प्रविष्टि (७ फरवरी) में किया है। अतः यहां पर उस टिप्पणी का पुनरुल्लेख नहीं कर रहा हूं।

टिप्पणी – उपर्युक्त छंद ४४ में द्वितीय चरण का पाठ “विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत्” है। मेरे पास पंचतंत्र की चौखंबा विद्याभवन द्वारा प्रकाशित (वाराणसी, १९९४) की प्रति है। उसमें यही पाठ है। मुझे लगता है कि इसके बदले “विश्वस्ते नाति विश्वसेत्” होता तो अधिक उपयुक्त होता। उस स्थिति में उसका अर्थ अधिक स्वीकार्य होता। अर्थ होता “विश्वस्त व्यक्ति पर भी अधिक विश्वास नही करना चाहिए।” यानी उस पर भी थोड़ी-बहुत शंका बनी रहनी चाहिए। हो सकता है किसी अन्य संस्करण में ऐसा ही हो।

हिरण्यक को विश्वास दिलाने का लघुपतनक ने काफी प्रयास किया । उसने, “ठीक है, तुम्हें विश्वास नहीं होता कि मैं तुम्हें हानि नहीं पहुंचाऊंगा। तुम मित्रता न करो न सही। फिर भी अपने बिल में सुरक्षित अनुभव करते हुए मुझसे बातें तो कर ही सकते हो। मैं रोज तुम्हारी पांडित्य भरी बातें सुनने आया करूंगा, इतना तो कर सकते हो न?”

हिरण्यक ने उसकी बात मान ली। इसके बाद उन दोनों के बीच प्रायः प्रतिदिन मुलाकातें होने लगीं, पहला बिल के अंदर मुहाने पर सुरक्षित और दूसरा बिल के बाहर। दोनों के बीच विविध विषयों पर वार्तालापों का सिलसिला चल पड़ा । हिरण्यक के मन में शनैः-शनैः लघुपतनक के प्रति विश्वास एवं लगाव जगने लगा। लघुपत्तनक दिन के समय बीन-बटोर कर लाई गईं भोज्य वस्तुएं हिरण्यक को भेंट करने लगा और इसी प्रकार हिरण्यक भी रात में खोज-बीन कर लाईं चीजें लघुपतनक को खिलाने लगा। इस प्रकार के लंबे सान्निध्य के बाद हिरण्यक को लगने लगा कि लघुपतक उसे धोखा नहीं देगा। वह बिल के बाहर आने लगा। दोनों की मित्रता हो जाती है। साथ-साथ उठना-बैठना, खेलना-कूदना होने लगा।

यह है पंचतंत्र के दूसरे तंत्र, मित्रसंप्राप्ति, की एक कथा। उक्त कहानी यही पर खत्म नहीं होती। कथा के दोनों पात्र मित्र बन जाते हैं कालांतर में वे उस स्थान को छोड़कर एक नए मित्र कछुए के पास पहुंचते हैं और वहां जुड़ती है एक और कथा। और यह सिलसिला आगे बढ़ता है। – योगेन्द्र जोशी