‘दानं भोगं नाशः …’ – पञ्चतन्त्र के नीतिवचन: धन की गति तीन प्रकार की

समाज में धन की महत्ता सर्वत्र प्रायः सबके द्वारा स्वीकारी जाती है, और धनसंचय के माध्यम से स्वयं को सुरक्षित रखने का प्रयत्न कमोबेश सभी लोग करते हुए देखे जाते हैं । कदाचित् विरले लोग ही इस प्रश्न पर तार्किक चिंतन के साथ विचार करते होंगे कि धन की कितनी आवश्यकता किसी को सामान्यतः हो सकती है । यदि किसी मनुष्य को असीमित मात्रा में धन प्राप्त होने जा रहा हो तो क्या उसने उस पूरे धन को स्वीकार कर लेना चाहिए, या उसने इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि किस प्रयोजन से एवं किस सीमा तक उस धन के प्रति लालायित होना चाहिए । यह प्रश्न मेरे मन में वर्षों से घर किया हुए है । नीतिग्रंथों में प्राचीन भारतीय चिंतकों के एतद्संबंधित विचार पढ़ने को मिल जाते हैं । ऐसा ही एक शिक्षाप्रद एवं चर्चित ग्रंथ पंचतंत्र है । मुझे उसमें धन के बारे में गंभीर सोच देखने को मिलती है । मैं उस ग्रंथ से चुनकर दो श्लोकों को यहां पर उद्धृत कर रहा हूं:

(स्रोत: विष्णुशर्मारचित पञ्चतन्त्र, भाग 1 – मित्रसंप्राप्ति, श्लोक १५३ एवं १५४, क्रमशः)

दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः ।
पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥

(दातव्यम्, भोक्तव्यम्, धन-विषये सञ्चयः न कर्तव्यः, पश्य इह मधुकरिणाम् सञ्चितम् अर्थम् हरन्ति अन्ये ।)

अर्थः (धन का दो प्रकार से उपयोग होना चाहिए ।) धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए । किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए । ध्यान से देखो कि मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं ।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि मनुष्य को धन का उपभोग कर लेना चाहिए अथवा उसे जरूरतमंदों को दान में दे देना चाहिए । अवश्य ही उक्त नीतिकार इस बात को समझता होगा कि धन कमाने के तुरंत बाद ही उसका उपभोग संभव नहीं है । उसका संचय तो आवश्यक है ही, ताकि कालांतर में उसे उपयोग में लिया जा सके । उसका कहने का तात्पर्य यही होगा कि उपभोग या दान की योजना व्यक्ति के विचार में स्पष्ट होनी चाहिए । धनोपार्जन एवं तत्पश्चात् उसका संचय बिना विचार के निरर्थक है । बिना योजना के संचित वह धन न तो व्यक्ति के भोग में खर्च होगा और न ही दान में । नीतिकार ने मधुमक्खियों का उदाहरण देकर यह कहना चाहा है कि संचित धन देर-सबेर दूसरों के पास चला जाना है । मधुमक्खियों का दृष्टांत कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण है । वे बेचारी तो शहद का संचय भविष्य में अंडों से निकले लारवाओं के लिए जमा करती हैं, जिनके विकसित होने में वह शहद भोज्य पदार्थ का कार्य करता है । यह प्रकृति द्वारा निर्धारित सुनियोजित प्रक्रिया है । किंतु उस शहद को मनुष्य अथवा अन्य जीवधारी लूट ले जाते हैं । मनुष्य के संचित धन को भले ही कोई खुल्लमखुल्ला न लूटे, फिर भी वह दूसरों के हाथ जाना ही जाना है, यदि उसे भोग या दान में न खर्चा जाए । कैसे, यह आगे स्पष्ट किया जा रहा है ।

दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति ॥

(दानम्, भोगम्, नाशः, तिस्रः गतयः भवन्ति वित्तस्य, यः न ददाति, न भुङ्क्ते, तस्य तृतिया गतिः भवति ।)

अर्थः धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है । पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश । जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है ।

इस स्थल पर धन के ‘नाश’ शब्द की व्याख्या आवश्यक है । मेरा मानना है कि धन किसी प्रयोजन के लिए ही अर्जित किया जाना चाहिए । अगर कोई प्रयोजन ही न हो तो वह धन बेकार है । जीवन भर ऐसे धन का उपार्जन करके, उसका संचय करके और अंत तक उसकी रक्षा करते हुए व्यक्ति जब दिवंगत हो जाए तब वह धन नष्ट कहा जाना चाहिए । वह किसके काम आ रहा है, किसी के सार्थक काम में आ रहा है कि नहीं, ये बातें यह उस दिवंगत व्यक्ति के लिए कोई माने नहीं रखती हैं ।

अवश्य ही कुछ जन यह तर्क पेश करेंगे कि वह धन दिवंगत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों के काम आएगा । तब मोटे तौर पर मैं दो स्थितियों की कल्पना करता हूं । पहली तो यह कि वे उत्तराधिकारी स्वयं धनोपार्जन में समर्थ और पर्याप्त से अधिक स्व्यमेव अर्जित संपदा का भरपूर भोग एवं दान नहीं कर पा रहे हों । तब भला वे पितरों की छोड़ी संपदा का ही क्या सदुपयोग कर पायेंगे ? उनके लिए भी वह संपदा अर्थहीन सिद्ध हो जाएगी । दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि वे उत्तराधिकारी स्वयं अयोग्य सिद्ध हो जाए और पुरखों की छोड़ी संपदा पर निर्भर करते हुए उसी के सहारे जीवन निर्वाह करें । उनमें कदाचित् यह सोच पैदा हो कि जब पुरखों ने हमारे लिए धन-संपदा छोड़ी ही है तो हम क्यों चिंता करें । सच पूछें तो इस प्रकार की कोई भी स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण एवं कष्टप्रद होगी । कोई नहीं चाहेगा कि ऐसी नौबत पैदा हो । तब अकर्मण्य वारिसों के हाथ में पहुंची संपदा नष्ट ही हो रही है यही कहा जाएगा । एक उक्ति है: “पूत सपूत का धन संचय, पूत कपूत का धन संचय ।” जिसका भावार्थ यही है कि सुपुत्र (तात्पर्य योग्य संतान से है) के लिए धन संचय अनावश्यक है, और कुपुत्र (अयोग्य संतान) के लिए भी ऐसा धन छोड़ जाना अंततः व्यर्थ सिद्ध होना है ।

कुल मिलाकर पंचतंत्र के रचयिता के मतानुसार धन का भोग और दान करने के बजाय महज उसका संचय करते रहना उसके नाश के तुल्य ही है । – योगेन्द्र जोशी

सुभाषित वचन प्रशंसा – यथा ‘सुभाषितरत्नभांडागार’ ग्रंथ में वर्णित

‘सुभाषितरत्नभांडागारम्’ संस्कृत साहित्य का एक अमूल्य ग्रंथ है । इसमें विभिन्न स्रोतों से छंदों के रूप में प्राप्य उक्तियों का संकलन किया गया । (ध्यान रहे कि संस्कृत साहित्य में पद्यात्मक रचनाएं छंदों में लिखित रहती हैं, जिन्हें बोलचाल में अक्सर श्लोकों के नाम से जाना जाता है । परंतु श्लोक शब्द मूलतः अनुष्टुभ् छंद के लिए प्रयुक्त होता है, जिसमें आठ-आठ वर्णों के चार चरण होते हैं ।) मेरे पास उक्त ग्रंथ की नारायण राम आचार्य ‘काव्यतीर्थ’ द्वारा संशोधित एक प्रति है (प्रकाशकः चौखंबा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली, १९९१) । इस ग्रंथ के आरंभ में लिखित परिचय में कहा गया है कि संबंधित संस्करण ‘निर्णय सागर प्रेस’ द्वारा पूर्व में प्रकाशित (१९३५) पुस्तक पर आधारित है । ग्रंथ के इतिहास के बारे में विशेष कुछ नहीं कहा गया है । सांकेतिक तौर पर इतना बताया गया है कि इस ग्रंथ में समय-समय पर कवियों/विद्वानों ने विभिन्न स्रोतों से उक्तियां स्वीकार करके शामिल की हैं । इससे यही लगता है कि इसका मूल लेखक कोई नहीं । इनमें से कई उक्तियों के स्रोत ज्ञात हैं और उनके संदर्भ का ग्रंथ में उल्लेख किया गया है, किंतु अधिकांश उक्तियां के बारे में ठीक से नहीं मालूम । वे जनसामान्य में प्रचलित रही हैं यही ग्रंथ का मत है ।

कथित ग्रंथ में विविध विषयों से संबंधित छंद सम्मिलित हैं, यथा देवी-देवताओं की स्तुति, ज्ञान के विधाओं की महत्ता, साहित्य-संगीत-कला की प्रशंसा, मित्रता-शत्रुता-चाटुकारिता जैसे लौकिक व्यवहार पर टिप्पणियां, कवि-कल्पनाओं की बातें, पेड़-पौधों-औषधियों की उपयोगिता आदि-आदि । ग्रंथ सात प्रकरणों में विभक्त है । उसके द्वितीय प्रकरण, ‘सामान्यप्रकरणम्’, के आरंभ में ‘सुभाषितप्रशंसा’ सम्मिलित है । इसके तीन छंदों का मैं यहां पर उल्लेख कर रहा हूं:

(सुभाषितरत्नभांडागार, सामान्यप्रकरणम्, क्रमशः ३, ४ एवं ६)
सुभाषितमयैर्द्रव्यैः सङ्ग्रहं न करोति यः ।
सो९पि प्रस्तावयज्ञेषु कां प्रदास्यति दक्षिणाम् ।।
(यः सुभाषित-मयैः द्रव्यैः सङ्ग्रहं न करोति सः अपि प्रस्ताव-यज्ञेषु कां दक्षिणाम् प्रदास्यति ?)
भावर्थः सुभाषित कथन रूपी संंपदा का जो संग्रह नहीं करता वह प्रसंगविशेष की चर्चा के यज्ञ में भला क्या दक्षिणा देगा ? समुचित वार्तालाप में भाग लेना एक यज्ञ है और उस यज्ञ में हम दूसरों के प्रति सुभाषित शब्दों की आहुति दे सकते हैं । ऐसे अवसर पर एक व्यक्ति से मीठे बोलों की अपेक्षा की जाती है, किंतु जिसने सुभाषण की संपदा न अर्जित की हो यानी अपना स्वभाव तदनुरूप न ढाला हो वह ऐसे अवसरों पर औरों को क्या दे सकता है ?

संसारकटुवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे ।
सुभाषितरसास्वादः सङ्गतिः सुजने जने ।।
(संसार-कटु-वृक्षस्य अमृत-उपमे द्वे फले, सुभाषित-रस-आस्वादः सुजने जने सङ्गतिः ।)
भावार्थः संसार रूपी कड़ुवे पेड़ से अमृत तुल्य दो ही फल उपलब्ध हो सकते हैं, एक है मीठे बोलों का रसास्वादन और दूसरा है सज्जनों की संगति । यह संसार कष्टों का भंडार है, पग-पग पर निराशाप्रद स्थितियों का सामना करना पड़ता है । ऐसे संसार में दूसरों से कुछएक मधुर बोल सुनने को मिल जाएं और सद्व्यवहार के धनी लोगों का सान्निध्य मिल जाए तो आदमी को तसल्ली हो जाती है । मीठे बोल और सद्व्यवहार की कोई कीमत नहीं होती है, परंतु ये अन्य लोगों को अपने कष्ट भूलने में मदद करती हैं । कष्टमय संसार में इतना ही बहुत है ।

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ।।

(पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलम्, अन्नं, सुभाषितम्; मूढैः पाषाण-खण्डेषु रत्न-संज्ञा विधीयते ।)
भावार्थः इस पृथ्वी पर असल रत्न तीन ही हैं, और ये हैं जल, अन्न तथा सुखद बोल । वे लोग वस्तुतः मूर्ख हैं जो पत्थर के टुकड़ों को रत्न मान के चलते हैं । अन्न तथा जल जीवन-धारण के आधारभूत आवश्यक तत्वों के प्रतीक हैं और अन्य सभी वस्तुओं का महत्त्व इन्हीं के बाद है । संसार का आनंद मधुर वचनों को सुनने में है । ये ही सब वास्तविक रत्न हैं । ये जीवन में मिल जाएं तो पत्थर के रत्नों की आवश्यकता ही क्या रह जाती है, और ये नहीं तो उन पाषाण-रत्नों से क्या सुख मिलेगा ?

क्या है सुभाषित ? वे शब्द जो दूसरों को मानसिक क्लेश पहुंचाने के उद्येश्य से न बोले गये हों, जिन्हें सुनने पर एक प्रकार की सुखानुभूति होती है, जो असत्य पर आधारित न हों, जिनमें दूसरों के प्रति निरादर-भाव न झलकता हो, और जिनमें नैतिकता, बुद्धिमत्ता तथा विवेकशीलता निहित हो, आदि । कहना तो सरल है, किंतु दूसरों के समक्ष प्रिय वचन बोलना गंभीर आत्मसंयम पर निर्भर करता है । सामान्यतः मनुष्य अहंभाव से ग्रस्त रहता है, और जब वह बहुत कुछ अपने अहं के प्रतिकूल होते देखता है तो असहिष्णु हो उठता है । तब संयमित वचन बाल पाने की सामर्थ्य खो बैठता है ।

उपरिलिखित छंदों में प्रथम दो का संदर्भ सुभाषितरत्नभांडागार में दिया गया है । प्रथम का स्रोत पंचतंत्र बताया गया है और दूसरे का हितोपदेश । मुझे पंचतंत्र में जो छंद मिला उसके दो-एक शब्द भिन्न है । मुझे यह ‘श्लोक’ पढ़ने को मिला:
सुभाषितमयद्रव्यसङ्ग्रहं न करोति यः ।
स तु प्रस्तावयज्ञेषु कां प्रदास्यति दक्षिणाम् ।।

(पञ्चतन्त्र, प्रथम तंत्र, १७१)

इसी प्रकार अगले श्लोक के शब्द भी कुछ भिन्न हैं:
संसारविषवृक्षस्य द्वे एव रसवत्फले ।
काव्यामृतरसास्वादः सङ्गमः सुजनैः सह ।।

(हितोपदेश, प्रथम भाग, १५४)

फिर भी भावार्थ कमोबेश वही हैं । तीसरा श्लोक कदाचित् जनश्रुत पर आधारित है । – योगेन्द्र जोशी

पञ्चतन्त्र नीतिवचन: आसन्नमेव नृपतिर्भजते …

पञ्चतन्त्र की कथाएं सुविख्यात हैं । इसकी अधिकतर कथाओं में कथाकार विष्णुदत्त शर्मा ने पशुपात्रों को शामिल किया है और उन्हीं के मुख से नीति-विषयक बहुत-सी बातें कहलवायी हैं, जो वस्तुतः मानव समाज के लिए ही अर्थपूर्ण हैं । इन कथाओं में एक स्थल पर इस श्लोक का उल्लेख हैः

आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं विद्याविहीनमकुलीनमसंस्कृतं वा ।
प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च यत्पार्श्वतो भवति तत्परिवेष्टयन्ति ।।

(पञ्चतन्त्र, प्रथम तन्त्र, 36)

इस श्लोक के अर्थ कुछ यूं दिये जा सकते है: राजा अपने निकटस्थ मनुष्य को ही महत्त्व देता है, भले ही वह विद्याविहीन हो, कुलीन न हो, अथवा सुसंस्कृत न हो । प्रायः होता यह है कि राजा, स्त्री एवं लता अपने निकट जो होता है उसी का परिवेष्टन करते हैं (यानी उसी से लिपटते या उसका आश्रय लेते हैं) ।

कुलीन का शाब्दिक अर्थ होता है अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति । पर व्यापक अर्थ में उस व्यक्ति को कुलीन कहा जायेगा जिसमें श्रेष्ठ गुण हों, अच्छे संस्कार पड़े हों । सुसंस्कृत वह व्यक्ति है जो शिष्ट व्यवहार करे, जो अपने मतभेद को भी रोषपूर्ण शब्दों में व्यक्त न करे और दूसरों के प्रति आदरभाव रखे ।

आज के युग में राजा का मतलब उस व्यक्ति से है जो किसी व्यवस्था के शीर्ष पर हो । ऐसा व्यक्ति जिन लोगों से घिरा रहता है उन्हीं की सुनता है, उनकी योग्यता का समुचित मूल्यांकन किये बिना । ये लोग आम तौर पर चाटुकार होते हैं । अगर आप राजा तक पहुंच बना लें तो वह आपकी सुनेगा न कि औरों की । यह बात व्यवहार में हम सभी देखते आ रहे हैं ।

यह भी सत्य है कि वानस्पतिक लता अपने निकट के पेड़ से लिपटकर ही आगे चढ़ती है । परन्तु स्त्रियों के लिए श्लोक में कही गयी बात कितनी सटीक है कहना मुश्किल है । स्त्री को प्रमदा कहा गया है, विशेषतः तरुणी को । कदाचित् हर स्त्री के लिए प्रमदा संबोधन ठीक नहीं होगा । इस शब्द का संबंध मद से है और संभव है कि प्रमदा वह स्त्री हो जो अपने मदमाते व्यवहार से पुरुषों को अपनी ओर खींचे और तत्पश्चात् उन्हीं का आश्रय ले या उन पर निर्भर हो जाये । यूं यह भी कुछ हद तक सही है कि जिस पुरूष के संपर्क में वे आती हैं उसका स्थायी आश्रय पाने का प्रयास वे प्रायः करती हैं । – योगेन्द