महाभारत महाकाव्य में मूषक एवं विडाल की अल्पकालिक मित्रता की कथा

निकट भविष्य में देश में लोकसभा चुनाव होने हैं। अपने-अपने हित साधने या अस्तित्व बचाने के लिए राजनैतिक दल मेल-बेमेल गठबंधन बनाने में जुटे हैं। बेमेल गठबंधनों को देखने पर मुझे महाकाव्य महाभारत (शान्ति पर्व, अध्याय १३८) में वर्णित विडाल (बिलाव) एवं मूषक (मूस) की अल्पकालिक मित्रता की एक कथा याद आ रही है। उसी कथा से संबंधित कुछएक नीतिवचनों का उल्लेख यहां पर कर रहा हूं।

 

संक्षेप में कथा कुछ इस प्रकार है — किसी वन में एक विशाल पेड़ था, जिसके जड़ के पास एक मूस (बड़े आकार का चूहा) बिल बनाकर रहता था। उसी पेड़ पर एक बिलाव (बिल्ला) भी रहा करता था। बिल्ले से बचते हुए मूस बिल के बाहर भोजन की तलाश में निकला करता था।

एक बार एक बहेलिये ने पेड़ के पास जाल बिछा दिया, जंगली जानवरों एवं पक्षियों को फंसाकर कब्जे में लेने के लिए। उसका इरादा दूसरे दिन प्रातः आकर उन पशु-पक्षियों को ले जाने का था जो जाल में फंसे हों। दुर्भाग्य से वह बिलाव जाल में फंस गया। उसे जाल में फंसा देख चूहा आश्वस्त हो गया और निर्भय होकर इधर-उधर भोजन तलाशने लगा। कुछ देर में उसे एक नेवला दिखाई दिया जो उस मूस की गंध पाकर उस स्थान के आसपास पहुंचा और उसे मारने के लिए मौके का इंतिजार करने लगा। मूस को पेड़ की एक डाल पर बैठा हुआ एक और दुश्मन उल्लू भी नजर आया। मूस को तीन-तीन शत्रु आसपास नजर आए।

वस्तुस्थिति को देख उसने सोचा, “अपने बिल की ओर जाना अभी मेरे लिए सुरक्षित नहीं है। तीनों शत्रुओं में मेरा सबसे बड़ा शत्रु, जिससे शेष दो भी दूरी बनाए रखते हैं, जाल में फंसा असहाय है। अपनी खुद की विवशता देख मुझे मारने का प्रयास नहीं करेगा। अतः उसी के सान्निध्य में पहुंचकर अपने को सुरक्षित रखना बुद्धिमत्ता होगी। उसकी सुरक्षा का आश्वासन देकर मैं स्वयं उसका विश्वास पा सकता हूं।”

उसने बिल्ले के पास जाकर कहा, “मित्र बिडाल, आप इस समय आपत्ति में फंसे हैं। जाल काटकर मैं आपकी सहायता कर सकता हूं, बशर्ते आप मेरी सुरक्षा के लिए बचनबद्ध होवें।”

बिल्ले ने कहा, “ठीक है मुझे मंजूर है। परन्तु मुझे करना क्या है?”

“आप मुझे अपने संरक्षण में ले लें ताकि मैं सुरक्षित रात बिता सकूं। मैं आपको वचन देता हूं कि प्रातः बहेलिये के आने तक मैं आपको पाश-मुक्त कर दूंगा।” मूस ने कहा।

बिल्ले ने उसकी बात मान ली। उसने समझ लिया था कि उस परिस्थिति में कोई उसे बचाने नहीं आने वाला। मूस ही उसका हित साध सकता था, इसलिए उसकी बात मानना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। इसके बाद वह बीच-बीच में मूस को उसके वचन की याद दिलाता और पूछता कि वह कब उसके बंधन काटेगा। प्रातःकाल होते-होते मूस ने जाल के कई तंतुओं को काट लिए, लेकिन कुछ बंधन जानबूझकर छोड़े रखा।

बिल्ला उसको याद दिला रहा था कि जब उन दोनों ने परस्पर मित्रता कर ली है तो वह जाल के बंधन काटकर उसे मुक्त क्यों नहीं कर रहा है। तब मूस ने बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए बिल्ले को ये नीतिवचन सुनाए:

न कश्चित्कस्यचिन्मित्रं न कश्चित्‍कस्यचिद्‍ रिपु: ।

अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥११०॥

(महाभारत, शान्तिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व, अध्याय १३८)

(कश्चित् कस्यचित् मित्रम् न, कश्चित् कस्यचित् रिपु: न, मित्राणि तथा रिपवः अर्थत: तु निबध्यन्ते ।)

अर्थ – न कोई किसी का मित्र होता है और न ही शत्रु। अपने-अपने स्वार्थवश ही मित्र तथा शत्रु परस्पर जुड़ते हैं। [वैकल्पिक अर्थ – मनुष्य से जुड़ते हैं।]

और

शत्रुरूपा हि सुहृदो मित्ररूपाश्च शत्रवः ।

संधितास्ते न बुध्यन्ते कामक्रोधवशं गताः ॥१३८॥

(यथा उपर्युक्त)

(सुहृदः शत्रुरूपाः हि शत्रवः च मित्ररूपाः, संधिताः ते काम-क्रोध-वशं गताः न बुध्यन्ते ।)

अर्थ – परिस्थिति के अनुरूप सुहृज्जन भी शत्रुरूप धारण कर लेते हैं (शत्रु बन जाते हैं) और शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। परस्पर संधि (समझौते) से जुड़े होने पर भी काम (प्रबल इच्छा) एवं क्रोध के वशीभूत होने पर (उनके व्यवहार से) समझ में नहीं आता कि वे शत्रु हैं या मित्र?

उक्त दो छंदों के माध्यम से चूहे ने यह स्पष्ट किया कि मित्रता एवं शत्रुता का आधार स्वार्थ होता है। फलतः परिस्थितियां बदल जाने पर मित्रता-शत्रुता के भाव भी बदल जाते हैं। परस्पर मित्रता से बंधे होने पर भी जब व्यक्ति के मन में प्रबल इच्छा-भाव जगता है या उसे आक्रोश घेर लेता है मित्रता का विचार बदल जाता है।

मूस के कहने का मंतव्य यह है कि जब दो जने मित्रता में बंधे होते हैं तब भी विपरीत परिस्थिति पैदा हो जाने पर अपनी प्रबल इच्छा अथवा गुस्सा के वशीभूत होने पर वे मित्रता का भी ध्यान खो बैठते हैं। उसने स्पष्ट संकेत बिल्ले को दिया कि यदि वह जाल से मुक्त हो गया तो वह मित्रता का वचन भुला सकता है और उसी (मूस) पर हमला कर सकता है। इसलिए वह उसे (बिल्ले को) को मुक्त करने को उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करेगा।

आगे मूस इस तथ्य की ओर ध्यान खींचता है कि

नास्ति मैत्री स्थिरा नाम न च ध्रुवमसौहृदम् ।

अर्थयुक्त्यानुजायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥१४१॥

(यथा उपर्युक्त)

(मैत्री नाम स्थिरा न अस्ति, असौहृदम् च न ध्रुवम्, मित्राणि तथा रिपवः अर्थ-युक्त्या अनुजायन्ते ।)

अर्थ – अवश्य ही मित्रता स्थायी नहीं होती और विद्वेष भी स्थायी नहीं होता। स्वार्थ से(अर्थात् अपने-अपने हित साधने के लिए) ही लोग मित्र एवं शत्रु बनते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि मित्रता एवं शत्रुता मौके-मौके की बातें है। जब व्यक्ति को किसी से अपने स्वार्थ सिद्ध करने हों तो वह मित्रता कर लेता है। किन्तु जब उनके हित टकराने लगते हैं तो वह व्यक्ति शत्रुता पर उतर आता है। उसने बिलाव को याद दिलाया कि उन दोनों की मित्रता अस्थायी है और कभी भी टूट सकती है।

मूस के अनुसार हमारे सामाजिक रिश्ते दरअसल स्थार्थ्यजनित ही होते हैं जैसा अगले छंद में कहा गया है:

अर्थयुक्त्या हि जायन्ते पिता माता सुतस्तथा ।

मातुला भागिनेयाश्च तथासम्बन्धिबान्धवाः ॥१४५॥

(यथा उपर्युक्त)

(पिता माता सुत: तथा च मातुलाः भागिनेया: तथा सम्बन्धि-बान्धवाः अर्थ-युक्त्या हि जायन्ते ।)

अर्थ – माता, पिता, पुत्र, मामा, भांजा इत्यादि संबंधी एवं बंधुबान्धव आदि के परस्पर संबंध स्वार्थ के कारण बनते हैं।

स्वार्थ में कितनी शक्ति है यह अगले नीति-छंद से स्पष्ट होता है:

पुत्रं हि मातापितरौ त्यजतः पतितं प्रियम् ।

लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम् ॥१४६॥
(यथा उपर्युक्त)

(पतितम् प्रियम् पुत्रं हि माता-पितरौ त्यजतः, लोक: रक्षति च आत्मानम् स्वार्थस्य सारताम् पश्य ।)

अर्थ –मार्गभ्रष्ट (चारित्रिक तौर से गिरे) पुत्र (संतान) को माता-पिता भी त्याग देते हैं। निश्चय ही मनुष्य पहले अपनी रक्षा करता है। देखो स्वार्थ का सार इसी तथ्य में निहित है।

अर्थात् यदि संतान के कारण अपनी प्रतिष्ठा गिरने का डर हो तब माता-पिता भी उसका बहिष्कार कर डालते हैं। ऐसा कुछ आज के समाज में देखने को कम ही मिलता है। इस युग में बहिष्कार-योग्य व्यक्ति का बचाव करने माता-पिता ही नहीं अपितु संबंधी, परिचित, मित्र आदि भी मैदान में कूद पड़ते हैं। शायद प्राचीन काल में कभी स्थिति भिन्न रही होगी।

इन नीति-वचनों के द्वारा मूस स्पष्ट कर देता है कि वह बिलाव की मित्रता के प्रति पूर्णतः आश्वस्त नहीं हो सकता है।

इस कथा का अंत इस प्रकार है — प्रातःकाल मूस एवं बिलाव बहेलिये को निकट आता हुए दिखते हैं। तब सही क्षण पर मूस अपना वचन निभाते हुए जाल के शेष बंधन काटकर बिलाव को बंधन-मुक्त कर देता है और तेजी से अपने बिल की ओर भाग जाता है। बिलाव भी बहेलिए को पास आ चुका देखकर पेड़ की ओर भागकर उसमें चढ़ जाता है। इसके साथ ही उन दोनों के बीच की अल्पकालिक मित्रता समाप्त हो जाती है।

इस स्थल पर एक टिप्पणी करना समीचीन होगा। प्राचीन संस्कृत साहित्य में शिक्षाप्रद संदेश देने के ऐसे दृष्टांत देखने को मिल जाते हैं जिनमें पशु-पक्षियों को पात्रों के तौर पर प्रयोग में लिया गया हो। पंचतंत्र एवं हितोपदेश ऐसी शैली या परंपरा के सुविख्यात उदाहरण हैं। महाभारत महाकाव्य ग्रंथ में भी किसी-किसी स्थल पर पशु-पक्षियों के माध्यम से दिए गए नीति संदेश पढ़ने को मिल जाते हैं। इस विधि से दिए गए नीति-संदेश मनोरंजक होते हैं न कि शुष्क एवं उबाऊ। – योगेन्द्र जोशी

“अर्थनाशं मनस्तापं … मतिमान्न न प्रकाशयेत्” आदि चाणक्यनीति वचन

“चाण्क्यनीतिदर्पण” एक छोटी पुस्तिका है जिसके सभी छंदों में नीतिवचन निहित हैं। इस ग्रंथ के रचयिता विष्णुशर्मा बताए जाते हैं। विष्णुशर्मा को ही चणक-पुत्र होने के नाते चाणक्य और राजनीति के दांवपेंचों के ज्ञाता होने के नाते कौटिल्य कहा जाता है।

उक्त ग्रंथ के सातवें अध्याय में २१ छंद हैं और उनमें व्यावहारिक जीवन में कब कैसे समाज के समक्ष व्यवहार करना उचित एवं उपयोगी होगा यह बताया गया है। उनमें से ४ छंदों का उल्लेख मैं यहां पर कर रहा हूं। ये मुझे खास तौर पर दिलचस्प एवं विचारणीय लगे। ये हैं:

अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च ।

वञ्चनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥१॥

(अर्थ-नाशं मनस्-तापम्  गृहे दुः-चरितानि च वञ्चनम् च अपमानम्  च मतिमान् न प्रकाशयेत्।)

ये सभी श्लोक सरल संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं अतः उनके अर्थ समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

उपरिलिखित पहले श्लोक का निहितार्थ यह है कि सामान्य जीवन में व्यक्ति तमाम प्रकार के खट्टे-मीठे अनुभव पाता है। उनका उल्लेख दूसरों के समक्ष करने लिए वह अक्सर उत्साहित हो उठता है। जहां तक सुखद अनुभवों की बात है दूसरों को बताने से नुकसान की संभावना नहीं रहती है या कम रहती है। लेकिन कड़वे अनुभवों और परेशानियों के बारे में ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। यह संभव है कुछ गिने-चुने लोग व्यक्ति के प्रति सहानुभूति रखें और आवश्यकतानुसार उपयोगी सलाह एवं सहायता भी दें। किंतु ऐसी उदार वृत्ति कम लोगों में ही देखने को मिलती है। कई ऐसे लोग होते हैं जो व्यक्ति की बातों का मन ही मन आनंद लेते हैं, उसकी पीठ पीछे जग-हंसाई करने/कराने से नहीं चूकते। मेरे जीवन का अनुभव यही रहा है कि ऐसे जनों के मन की कुटिलता भांपना आसान नहीं होता।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए चाणक्य का मत है कि धन की हानि, अनिष्ट घटनाओं से प्राप्त मानसिक कष्ट, घर-परिवार में दुःखद किंतु गोपनीय घटनाएं, ठगे जाने, और अपमानिन होने की बातों का खुलासा बुद्धिमान व्यक्ति न करे। उन्हें अपने मन ही तक सीमित रखे।

शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम् ॥

गजं हस्तसहस्रेण देशत्यागेन दुर्जनम् ॥७॥

(शकटम् पञ्च-हस्तेन दश-हस्तेन वाजिनम् गजम् हस्त-सहस्रेण देश-त्यागेन दुर्जनम्।)

इस श्लोक के माध्यम से चाणक्य दुर्जनों के सान्निध्य से दूर रहने की सलाह देते हैं। वे कहते है गाड़ी से पांच हाथ की दूरी बनाए रखना चाहिए। घोड़े से दस हाथ और हाथी से हजार हाथ की दूरी रखनी चाहिए। किंतु दुर्जन से तो दूरी बनाए रखने के लिए स्थान ही त्याग देना चाहिए।

पांच दस आदि शब्द प्रतीकात्मक भर हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि गाड़ी के नजदीक नहीं पहुंचना चाहिए ताकि संभावित दुर्घटना से बचा जा सके। प्राचीन काल में गाड़ी घोड़े से खिंचा जाने वाला वाहन हुआ करता था। गाड़ी के घोड़े से अधिक खतरा तो खुले घोड़े से रहता है। अतः उससे और भी अधिक दूरी रखनी चाहिए। हाथी घोड़े से भी अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है इसलिए उससे बचने के लिए सुरक्षित दूरी और भी अधिक होगी। चाणक्य का मत है कि दुर्जन व्यक्ति कब कैसे अहित कर सकता है यह अनुमान लगाना ही कठिन है। ऐसे व्यक्ति से बचने के लिए दुर्जन वाले स्थान को ही छोड़ देना चाहिए। यहां पर देश शब्द का अर्थ उस सीमित स्थान से है जो दुर्जन के प्रभाव क्षेत्र में आता हो। उदाहरणार्थ पड़ोसी दुर्जन हो तो पड़ोस से हट जाना चाहिए। यदि दुर्जन गांव या मोहल्ले में उत्पात मचाता हो तो गांव-मोहल्ले को ही बदल लेना चाहिए, इत्यादि।

नात्यल्पं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम् ॥

छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपा: ॥१२॥

(न अति-अल्पम् सरलैः भाव्यम् गत्वा पश्य वन-स्थलीम् छिद्यन्ते सरलाः तत्र कुब्जाः तिष्ठन्ति पादपा:।)

उक्त तीसरे छंद में सरल स्वभाव से होने वाले नुकसान की ओर संकेत किया गया है।

मनुष्य को बहुत सरल स्वभाव का नहीं होना चाहिए। अर्थात् व्यावहारिक जीवन में थोड़ा बहुत कुटिलता, दुराव-छिपाव, सच छिपा के रखना, आदि भी आवश्यक होता है। ये तथाकथित “दोष” दूसरे का अहित करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी स्वयं की हानि कोई अन्य न करने पावे इस विचार से अपनाए जाने चाहिए, क्योंकि कई बार मनुष्य की सिधाई का नाजायज लाभ दूसरे चालाक जन उठाते हैं। नीतिवेत्ता चाणक्य इस बात को समझाने के लिए पेड़ों का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि वन में जाकर देखो कि किस प्रकार सीधे पेड़ों को काटा जाता है और टेड़े-मेड़े पेड़ों को छोड़ दिया जाता है। ध्यान रहे कि प्रायः सभी उद्येश्यों के लिए सीधी लकड़ी पसंद की जाती है। इसलिए सीधे पेड़ों को ही काटे जाने के लिए चुना जाता है। मेरा खुद का अनुभव रहा है कि कार्यालयों में सीधे-सरल व्यक्ति के ऊपर कार्य लाद दिए जाते हैं और चालाक व्यक्ति काम के बोझ से बच जाता है।

अंत में चौथा नीति वचन यह है:

यस्यार्थस्तस्य मित्राणि यस्यार्थस्तस्य बान्धवाः ॥

यस्यार्थः स पुमांल्लोके यस्यार्थः स च जीवति ॥१५॥

(यस्य अर्थः तस्य मित्राणि यस्य अर्थः तस्य बान्धवाः यस्य अर्थः स पुमान् लोके यस्य अर्थः स च जीवति।)

इस श्लोक में धन की महत्ता का जिक्र किया गया है।

नीतिवेत्ता का मानना है कि जिस व्यक्ति के पास धन-संपदा होती है उसी के मित्र होते भी होती हैं। अर्थात् जिसके पास धन होता है उसी से अन्य जन मित्रता करते हैं, अन्यथा उससे दूर रहने की कोशिश करते हैं। निर्धन से मित्रता कोई नहीं करना चाहता। इसी प्रकार जो धनवान हो उसी के बंधु-बांधव होते है। नाते-रिश्तेदार धनवान से ही संबंध रखते हैं, अन्यथा उससे दूरी बनाए रहने में ही भलाई देखते हैं। जिसके पास धन हो वही पुरुष माना जाता है यानी उसी को प्रतिष्ठित, पुरुषार्थवान, कर्मठ समझा जाता है। और धनवान व्यक्ति ही जीने का सुख पाता है। उसे धनहीन की तरह जिंदगी ढोनी नहीं पड़ती है।

मानव जीवन में धन कितनी अहमियत रखता है यह तो इस युग में सभी अनुभव करते हैं। किंतु चाण्क्य के उक्त वचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि उस काल में भी सामाजिक संबंध धन-संपदा के होने न होने पर निर्भय करते थे। मानव समाज में धन की महत्ता सदा से ही रही है. परंतु वर्तमान युग में धन को ही सर्वोपरि माना जाता है। सब उसी की ओर भागते हुए देखे जा सकते हैं। -योगेन्द्र जोशी

“वित्तं सर्वसाधनम् उच्यते” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (3)

संस्कृत नीतिग्रंथ पंचतंत्र के एक प्रकरण में इस बात का उल्लेख पढ़ने को मिलता है कि मनुष्य समाज में धन-संपदा की महत्ता को प्रायः सर्वत्र स्वीकारा जाता है । अपने चिट्ठे की पिछली दो प्रविष्टियों (जून 6 एवं जून 15) में मैंने पंचतंत्र के तत्संबंधित कुछ श्लोकों का जिक्र किया था । यह भी बताया था कि उक्त पुस्तक का एक पशु पात्र (सियार) अपने भाई को पैसे की अहमियत समझाते हुए धनोपार्जन के लिए प्रेरित करता है । अवश्य ही जो बातें कही गई हैं उनमें अतिशयोक्ति है । इसी पुस्तक में अन्यत्र संपदाजनित समस्याओं का उल्लेख भी है, जो यह स्पष्ट करती हैं कि धन को लेकर समाज में मतभिन्नता भी देखने को मिलती है । अतः जो नीतिवचन मौजूदा संदर्भ में कही गई हैं उनका मूल्यांकन स्वविवेक से किया जाना चाहिए । मतभिन्नता संबंधी नीतिवचनों का जिक्र मैं भविष्य में कभी करूंगा । अभी इस चर्चा के अगले एवं अंतिम तीन श्लोक आगे प्रस्तुत कर रहा हूं:

अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्याण्यखिलान्यपि ।
एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते ॥8॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(अशनात् इन्द्रियाणि इव स्युः कार्याणि अखिलानि अपि एतस्मात् कारणात् वित्तं सर्व-साधन् उच्यते ।)

अर्थः भोजन का जो संबंध इंद्रियों के पोषण से है वही संबंध धन का समस्त कार्यों के संपादन से है । इसलिए धन को सभी उद्येश्यों की प्राप्ति अथवा कर्मों को पूरा करने का साधन कहा गया है ।

इस तथ्य को सभी लोग स्वीकार करेंगे कि चाहे धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करने हों या याचकों को दान देेना हो, धन चाहिए ही । शारीरिक स्वास्थ्य, मनोरंजन, एवं सुखसुविधाएं आदि सभी के लिए धन-दौलत चाहिए । आज के जमाने में तो मु्फ्त में सेवा देने वाले अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं । एक जमाना था जब सामाजिक कार्य संपन्न करने में परस्पर सहयोग एवं मदद देने की परंपरा थी, परंतु अब सर्वत्र धन का ही बोलबाला है ।

अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते ।
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः ॥9॥
(यथा उपर्युक्त)
(अर्थ-अर्थी जीवलोकः, अ‌यं श्मशानम् अपि सेवते, त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः ।)

अर्थः यह लोक धन का भूख होता है, अतः उसके लिए श्मशान का कार्य भी कार्य करने को तैयार रहता है । धन की प्राप्ति के लिए तो वह अपने ही जन्मदाता हो छोड़ दूर देश भी चला जाता है ।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि जीवन-धारण बिना धन के संभव नहीं हैं, अतः मनुष्य धनोपार्जन के लिए कोई भी व्यवसाय अपनाने को विवश होता है । कुछ कामधंधे समाज में अधिक प्रतिष्ठित माने जाते हैं, अतः लोग उनकी ओर दौड़ते हैं और सौभाग्य से उन्हें पा जाते हैं । किंतु सभी भाग्यवान एवं पर्याप्त योग्य नहीं होते । उन्हें उस कार्य में लगना पड़ता है जिसे निकृष्ट श्रेणी का माना जाता है । अथवा धनोपार्जन के लिए घर से दूर निकलना पड़ता है । आज के जमाने में ये बातें सामान्य हो चुकी हैं ।

गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः ।
अर्थे तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ॥10॥
(यथा उपर्युक्त)
(गत-वयसाम् अपि पुंसां येषाम् अर्थाः भवन्ति ते तरुणाः, अर्थे तु ये हीनाः वृद्धाः ते यौवने अपि स्युः ।)

अर्थः उम्र ढल जाने पर भी वे पुरुष युवा रहते हैं जिनके पास धन रहता है । इसके विपरीत जो धन से क्षीण होते हैं वे युवावस्था में भी बुढ़ा जाते हैं ।

इस श्लोक की मैं दो प्रकार से व्याख्या करता हूं । पहली व्याख्या तो यह है धनवान व्यक्ति पौष्टिक भोजन एवं चिकित्सकीय सुविधा से हृष्टपुष्ट एवं स्वस्थ रह सकता है । तदनुसार उस पर बुढ़ापे के लक्षण देर से दिखेंगे । जिसके पास खाने-पीने को ही पर्याप्त न हो, अपना कारगर इलाज न करवा सके, वह तो जल्दी ही बूढ़ा दिखेगा । संपन्न देशों में लोगों की औसत उम्र अधिक देखी गई है । अतः इस कथन में दम है ।

दूसरी संभव व्याख्या यों हैः धनवान व्यक्ति धन के बल पर लंबे समय तक यौनसुख भोग सकता है, चाटुकार उसे घेरे रहेंगे और कहेंगे, “अभी तो आप एकदम जवान हैं ।” कृत्रिम साधनों से भी वह युवा दिख सकता है और युवक-युवतियों के आकर्षण का केंद्र बने रह सकता है । जब मन युवा रहे जो वार्धक्य कैसा ? – योगेन्द्र जोशी

“धनिनां परोऽपि स्वजनायते” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (2)

संस्कृत नीतिग्रंथ पंचतंत्र के एक प्रकरण में इस बात का वर्णन मिलता है कि मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा का बहुत महत्त्व है । उक्त तथ्य से संबंधित तीन श्लोकों का उल्लेख मैंने पिछली पोस्ट
में किया है । इस स्थल पर में तीन अन्य श्लोकों की चर्चा कर रहा हूं । ये श्लोक आगे उद्धृत हैं:

इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते ।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ॥5॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(इह लोके हि धनिनां परः अपि स्वजनायते स्वजनः अपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ।)

अर्थः इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है । और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग भी दुर्जन (बुरे अथवा दूरी बनाये रखने वाले) हो जाते हैं ।

उक्त बातें प्राचीन काल में किस हद तक सही रही होंगी यह कहना कठिन है । परंतु आज के विशुद्ध भौतिकवादी युग में ये पूरी तरह खरी उतरती हैं । बहुत कम लोग होंगे जो अपने भाई-बहनों तक के साथ मिलकर अपनी संपदा का भोग करना चाहेंगे । “हम कमाएं और वे खाएं यह भला कैसे हो सकता है ?” यह सोच सबके मन में रहती है । अतः उनसे दूरी बनाए रखने में ही उनकी संपदा परस्पर बंटने से बच सकती है । इसीलिए नीतिकार कहता है कि अगर आप अपनी धनसंपदा खो बैठते हैं तो आपके निकट संबंधी भी आपके नहीं रह जाते हैं । दूसरी ओर किसी धनी से संबंध बढ़ाने में लाभ की संभावना बनी रहती है, इसलिए लोग उसके ‘अपने’ बनने की फिराक में अक्सर देखे जाते हैं ।

अर्थेभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतस्ततः ।
प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः ॥6॥
(यथा उपर्युक्त)
(अर्थेभ्यः अपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतः ततः प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इव आपगाः ।)

अर्थः चारों तरफ से एकत्रित करके बढ़ाये गये धनसंपदा से ही विविध कार्यों का निष्पादन होता है, जैसे पर्वतों से नदियों का उद्गम होता है ।

इस कथन के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि वह जैसे भी हो, जहां से भी हो, अपनी धनसंपदा बढ़ाता जाए । जब ढेर सारा धन आपके पास इकट्ठा हो तो उस धन के माध्यम से सभी कार्य एक-एक कर संपन्न होते चले जाएंगे । “हर स्रोत से धन इकट्ठा करे” का अर्थ क्या यह समझा जाए कि आर्थिक भ्रष्टाचार भी मान्य रास्ता है ? शायद हां, तभी तो सर्वत्र भ्रष्टाचार का तांडव देखने को मिल रहा है ।

पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्यो९पि गम्यते ।
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥7॥
(यथा उपर्युक्त)
(पूज्यते यत् अपूज्यः अपि यत् अगम्यः अपि गम्यते वन्द्यते यत् अवन्द्यः अपि स प्रभावः धनस्य च ।)

अर्थः धन का प्रभाव यह होता है कि जो सम्मान के अयोग्य हो उसकी भी पूजा होती है, जो पास जाने योग्य नहीं होता है उसके पास भी जाया जाता है, जिसकी वंदना (प्रशंसा) का पात्र नहीं होता उसकी भी स्तुति होती है ।

संस्कृत में एक उक्ति है: “धनेन अकुलीनाः कुलीनाः भवन्ति धनम् अर्जयध्वम् ।” अर्थात् धन के बल पर अकुलीन जन भी कुलीन हो जाते हैं, इसलिए धनोपार्जन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि समाज में सामान्य अप्रतिष्ठित व्यक्ति ढेर-सी धनसंपदा जमा कर लेता है तो वह सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान का हकदार हो जाता है । लोग उसके आगे-पीछे घूमना शुरू कर देते हैं । इसके विपरीत प्रतिष्ठित व्यक्ति जब दुर्भाग्य से अपनी संपदा खो बैठता है तो उसे सामाजिक प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ती है । लोग उसका सम्मान करना भूलने लगते हैं, उससे मिलने से भी कतराते हैं ।

धन की महिमा वास्तव में अपरंपार है ! – योगेन्द्र जोशी

“अर्थम् एकं प्रसाधयेत्” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (1)

पंचतंत्र संस्कृत साहित्य का सुविख्यात नीतिग्रंथ है, जिसका संक्षिप्त परिचय मैंने अन्यत्र दे रखा है । ग्रंथ के अंतर्गत एक प्रकरण में व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा की महत्ता का वर्णन मिलता है । उसके दो सियार पात्रों – वस्तुतः दो भाइयों, दमनक एवं करटक – में से एक दूसरे के समक्ष अधिकाधिक मात्रा में धनसंपदा अर्जित करने का प्रस्ताव रखता है । दूसरे के “बहुत अधिक धन क्यों?” के उत्तर में वह धन के विविध लाभों को गिनाना आंरभ करता है और धन से सभी कुछ संभव है इस बात पर जोर डालता है । ऐसा नहीं है कि पंचतंत्र में धन को ही महत्त्व दिया गया हो । किसी अन्य स्थल पर तो ग्रंथकार ने उपभोग या दान न किए जाने पर धनसंपदा के नाश की भी बात की है । वस्तुतः ग्रंथ में परिस्थिति के अनुसार पशुपात्रों के माध्यम से कर्तव्य-अकर्तव्य की नीतिगत बातें कही गई हैं । याद दिला दूं कि पंचतंत्र के पात्र पशुगण हैं, जो मनुष्यों की भांति व्यवहार करते हैं, और मनुष्य जीवन की समस्याओं से जूझ रहे होते हैं । यहां पर उस सियार पात्र के धनोपार्जन संबंधी कथनों को उद्धृत किया जा रहा है । प्रस्तुत हैं प्रथम तीन श्लोक:

न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति ।
यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥2॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(न हि तत् विद्यते किञ्चित् यत् अर्थेन न सिद्ध्यति यत्नेन मतिमान् तस्मात् अर्थम् एकं प्रसाधयेत् ।)

अर्थः ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे धन के द्वारा न पाया जा सकता है । अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को एकमेव धन अर्जित करने का प्रयत्न करना चाहिए ।

भौतिक सुख-सुविधाएं धन के माध्यम से एकत्र की जा सकती हैं । इतना ही नहीं सामाजिक संबंध भी धन से प्रभावित होते हैं । ऐसी ही तमाम बातें धन से संभव हो पाती हैं । इनका उल्लेख आगे किया गया हैः

यस्यार्थाः तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः ।
यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥3॥
(यथा उपर्युक्त)
(यस्य अर्थाः तस्य मित्राणि यस्य अर्थाः तस्य बान्धवाः यस्य अर्थाः सः पुमान् लोके यस्य अर्थाः सः च पण्डितः ।

 अर्थः जिस व्यक्ति के पास धन हो उसी के मित्र होते हैं, उसी के बंधुबांधव होते हैं, वही संसार में वस्तुतः पुरुष (सफल व्यक्ति) होता है, और वही पंडित या जानकार होता है ।

आज के सामाजिक जीवन में ये बातें सही सिद्ध होती दिखाई देती हैं । आपके पास धन-दौलत है तो यार-दोस्त, रिश्तेदार, परिचित आदि आपको घेरे रहेंगे, अन्यथा आपसे देरी बनाए रहेंगे । जिसने धनोपार्जन कर लिया वही सफल माना जाता है, उसी की योग्यता की बातें की जाती हैं, उसकी हां में हां मिलाई जाती है, मानो कि उसे ही व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो । कदाचित् धन की ऐसी खूबी प्राचीन काल में भी स्वीकारी गई होगी । आगे देखिए:

न सा विद्या न तद्दानं न तच्छिल्पं न सा कला ।
न तत्स्थैर्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयते ॥4॥
(यथा उपर्युक्त)
(न सा विद्या न तत् दानं न तत् शिल्पं न सा कला न तत् स्थैर्यं हि धनिनां याचकैः यत् न गीयते ।)

अर्थः ऐसी कोई विद्या, दान शिल्प (हुनर), कला, स्थिरता या वचनबद्धता नहीं है जिनके धनिकों में होने का गुणगान याचकवृंद द्वारा न किया जाता हो ।

संपन्न व्यक्ति की अनुकंपा प्राप्त करने और मौके-बेमौके उससे मदद पाने के लिए लोग प्रशंसा के बोल कहते देखे जाते हैं । उसको खुश करने के लिए लोग यह कहने में भी नहीं हिचकते हैं कि वह अनेकों गुणों का धनी है । राजनीति के क्षेत्र में ऐसे अनेकों ‘महापुरुष’ मिल जाएंगे, जिनके गुणगान में लोगों ने ‘चालीसाएं’ तक लिख डाली हैं । धनिकों के प्रति चाटुकारिता एक आम बात है ऐसा ग्रंथकार का मत है । – योगेन्द्र जोशी

‘दानं भोगं नाशः …’ – पञ्चतन्त्र के नीतिवचन: धन की गति तीन प्रकार की

समाज में धन की महत्ता सर्वत्र प्रायः सबके द्वारा स्वीकारी जाती है, और धनसंचय के माध्यम से स्वयं को सुरक्षित रखने का प्रयत्न कमोबेश सभी लोग करते हुए देखे जाते हैं । कदाचित् विरले लोग ही इस प्रश्न पर तार्किक चिंतन के साथ विचार करते होंगे कि धन की कितनी आवश्यकता किसी को सामान्यतः हो सकती है । यदि किसी मनुष्य को असीमित मात्रा में धन प्राप्त होने जा रहा हो तो क्या उसने उस पूरे धन को स्वीकार कर लेना चाहिए, या उसने इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि किस प्रयोजन से एवं किस सीमा तक उस धन के प्रति लालायित होना चाहिए । यह प्रश्न मेरे मन में वर्षों से घर किया हुए है । नीतिग्रंथों में प्राचीन भारतीय चिंतकों के एतद्संबंधित विचार पढ़ने को मिल जाते हैं । ऐसा ही एक शिक्षाप्रद एवं चर्चित ग्रंथ पंचतंत्र है । मुझे उसमें धन के बारे में गंभीर सोच देखने को मिलती है । मैं उस ग्रंथ से चुनकर दो श्लोकों को यहां पर उद्धृत कर रहा हूं:

(स्रोत: विष्णुशर्मारचित पञ्चतन्त्र, भाग 1 – मित्रसंप्राप्ति, श्लोक १५३ एवं १५४, क्रमशः)

दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः ।
पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥

(दातव्यम्, भोक्तव्यम्, धन-विषये सञ्चयः न कर्तव्यः, पश्य इह मधुकरिणाम् सञ्चितम् अर्थम् हरन्ति अन्ये ।)

अर्थः (धन का दो प्रकार से उपयोग होना चाहिए ।) धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए । किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए । ध्यान से देखो कि मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं ।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि मनुष्य को धन का उपभोग कर लेना चाहिए अथवा उसे जरूरतमंदों को दान में दे देना चाहिए । अवश्य ही उक्त नीतिकार इस बात को समझता होगा कि धन कमाने के तुरंत बाद ही उसका उपभोग संभव नहीं है । उसका संचय तो आवश्यक है ही, ताकि कालांतर में उसे उपयोग में लिया जा सके । उसका कहने का तात्पर्य यही होगा कि उपभोग या दान की योजना व्यक्ति के विचार में स्पष्ट होनी चाहिए । धनोपार्जन एवं तत्पश्चात् उसका संचय बिना विचार के निरर्थक है । बिना योजना के संचित वह धन न तो व्यक्ति के भोग में खर्च होगा और न ही दान में । नीतिकार ने मधुमक्खियों का उदाहरण देकर यह कहना चाहा है कि संचित धन देर-सबेर दूसरों के पास चला जाना है । मधुमक्खियों का दृष्टांत कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण है । वे बेचारी तो शहद का संचय भविष्य में अंडों से निकले लारवाओं के लिए जमा करती हैं, जिनके विकसित होने में वह शहद भोज्य पदार्थ का कार्य करता है । यह प्रकृति द्वारा निर्धारित सुनियोजित प्रक्रिया है । किंतु उस शहद को मनुष्य अथवा अन्य जीवधारी लूट ले जाते हैं । मनुष्य के संचित धन को भले ही कोई खुल्लमखुल्ला न लूटे, फिर भी वह दूसरों के हाथ जाना ही जाना है, यदि उसे भोग या दान में न खर्चा जाए । कैसे, यह आगे स्पष्ट किया जा रहा है ।

दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति ॥

(दानम्, भोगम्, नाशः, तिस्रः गतयः भवन्ति वित्तस्य, यः न ददाति, न भुङ्क्ते, तस्य तृतिया गतिः भवति ।)

अर्थः धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है । पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश । जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है ।

इस स्थल पर धन के ‘नाश’ शब्द की व्याख्या आवश्यक है । मेरा मानना है कि धन किसी प्रयोजन के लिए ही अर्जित किया जाना चाहिए । अगर कोई प्रयोजन ही न हो तो वह धन बेकार है । जीवन भर ऐसे धन का उपार्जन करके, उसका संचय करके और अंत तक उसकी रक्षा करते हुए व्यक्ति जब दिवंगत हो जाए तब वह धन नष्ट कहा जाना चाहिए । वह किसके काम आ रहा है, किसी के सार्थक काम में आ रहा है कि नहीं, ये बातें यह उस दिवंगत व्यक्ति के लिए कोई माने नहीं रखती हैं ।

अवश्य ही कुछ जन यह तर्क पेश करेंगे कि वह धन दिवंगत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों के काम आएगा । तब मोटे तौर पर मैं दो स्थितियों की कल्पना करता हूं । पहली तो यह कि वे उत्तराधिकारी स्वयं धनोपार्जन में समर्थ और पर्याप्त से अधिक स्व्यमेव अर्जित संपदा का भरपूर भोग एवं दान नहीं कर पा रहे हों । तब भला वे पितरों की छोड़ी संपदा का ही क्या सदुपयोग कर पायेंगे ? उनके लिए भी वह संपदा अर्थहीन सिद्ध हो जाएगी । दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि वे उत्तराधिकारी स्वयं अयोग्य सिद्ध हो जाए और पुरखों की छोड़ी संपदा पर निर्भर करते हुए उसी के सहारे जीवन निर्वाह करें । उनमें कदाचित् यह सोच पैदा हो कि जब पुरखों ने हमारे लिए धन-संपदा छोड़ी ही है तो हम क्यों चिंता करें । सच पूछें तो इस प्रकार की कोई भी स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण एवं कष्टप्रद होगी । कोई नहीं चाहेगा कि ऐसी नौबत पैदा हो । तब अकर्मण्य वारिसों के हाथ में पहुंची संपदा नष्ट ही हो रही है यही कहा जाएगा । एक उक्ति है: “पूत सपूत का धन संचय, पूत कपूत का धन संचय ।” जिसका भावार्थ यही है कि सुपुत्र (तात्पर्य योग्य संतान से है) के लिए धन संचय अनावश्यक है, और कुपुत्र (अयोग्य संतान) के लिए भी ऐसा धन छोड़ जाना अंततः व्यर्थ सिद्ध होना है ।

कुल मिलाकर पंचतंत्र के रचयिता के मतानुसार धन का भोग और दान करने के बजाय महज उसका संचय करते रहना उसके नाश के तुल्य ही है । – योगेन्द्र जोशी

भर्तृहरि-नीतिशतकम् के वचन – असंभव है मूर्ख जन को संतुष्ट कर पाना

भर्तृहरि राजा द्वारा विरचित शतकत्रयम् संस्कृत साहित्य की छोटी किंतु गंभीर अर्थ रखने वाली चर्चित रचना है । कहा जाता है कि उन्हें प्रौढ़ावस्था पार करते-करते वैराग्य हो गया था और तदनुसार उन्होंने राजकार्य से संन्यास ग्रहण कर लिया था । उनके बारे में संक्षेप में मैंने किसी अन्य ब्लॉग-प्रविष्टि में दो-चार शब्द लिखे हैं । अपनी उक्त रचना के प्रथम खंड, ‘नीतिशतकम्‌’, के आरंभ में उन्होंने यह कहा है कि मूर्ख व्यक्ति को समझाना असंभव-सा कार्य है । इस संदर्भ में उनके तीन छंद मुझे रोचक लगे, जिनका उल्लेख मैं आगे कर रहा हूं ।

अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ॥
(भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्, श्लोक 3)
अज्ञः सुखम् आराध्यः, सुखतरम् आराध्यते विशेषज्ञः, ज्ञान-लव-दुः-विदग्धं ब्रह्मा अपि तं नरं न रञ्जयति ।

अर्थः गैरजानकार मनुष्य को समझाना सामान्यतः सरल होता है । उससे भी आसान होता है जानकार या विशेषज्ञ अर्थात् चर्चा में निहित विषय को जानने वाले को समझाना । किंतु जो व्यक्ति अल्पज्ञ होता है, जिसकी जानकारी आधी-अधूरी होती है, उसे समझाना तो स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के भी वश से बाहर होता है ।

“अधजल गगरी छलकत जात” की उक्ति अल्पज्ञ जनों के लिए ही प्रयोग में ली जाती है । ऐसे लोगों को अक्सर अपने ज्ञान के बारे में भ्रम रहता है । गैरजानकार या अज्ञ व्यक्ति मुझे नहीं मालूम कहने में नहीं हिचकता है और जानकार की बात स्वीकारने में नहीं हिचकता है । विशेषज्ञ भी आपने ज्ञान की सीमाओं को समझता है, अतः उनके साथ तार्किक विमर्ष संभव हो पाता है, परंतु अल्पज्ञ अपनी जिद पर अड़ा रहता है

अगले छंद में कवि भर्तृहरि मूर्ख को समझाने के प्रयास की तुलना कठिनाई से साध्य कार्यों से करते हैं, और इस प्रयास को सर्वाधिक दुरूह कार्य बताते हैं ।

प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरदंष्ट्रान्तरात्
समुद्रमपि सन्तरेत् प्रचलदुर्मिमालाकुलाम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 4)
प्रसह्य मणिम् उद्धरेत् मकर-दंष्ट्र-अन्तरात्, समुद्रम् अपि सन्तरेत् प्रचलत्-उर्मि-माला-आकुलाम्, भुजङ्गम् अपि कोपितं शिरसि पुष्पवत् धारयेत्, न तु प्रति-निविष्ट-मूर्ख-जन-चित्तम् आराधयेत् ।

अर्थः मनुष्य कठिन प्रयास करते हुए मगरमच्छ की दंतपंक्ति के बीच से मणि बाहर ला सकता है, वह उठती-गिरती लहरों से व्याप्त समुद्र को तैरकर पार कर सकता है, क्रुद्ध सर्प को फूलों की भांति सिर पर धारण कर सकता है, किंतु दुराग्रह से ग्रस्त मूर्ख व्यक्ति को अपनी बातों से संतुष्ट नहीं कर सकता है ।

जिन कार्यों की बात की गयी है उन्हें सामान्यतः कोई नहीं कर सकता है; कोई भी उन्हें करने का दुस्साहस नहीं करना चाहेगा । फिर भी उन्हें करने में सफलता की आशा की जा सकती है, परंतु तुलनया देखें तो मूर्ख का पक्ष जीतना उनसे भी कठिनतर होता है ।

इसके आगे राजा भर्तृहरि यह कहने में भी नहीं चूकते हैं कि असंभव माना जाने वाला कार्य कदाचित् संभव हो जाए, लेकिन मूर्ख को संतुष्ट कर पाना फिर भी संभव नहीं है ।

लभेत् सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः ।
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक 5)
लभेत् सिकतासु तैलम् अपि यत्नतः पीडयन्, पिबेत् च मृग-तृष्णिकासु सलिलं पिपासा-आर्दितः, कदाचित् अपि पर्यटन् शश-विषाणम् आसादयेत्, न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥

अर्थः कठिन प्रयास करने से संभव है कि कोई बालू से भी तेल निकाल सके, पूर्णतः जलहीन मरुस्थलीय क्षेत्र में दृश्यमान मृगमरीचिका में भी उसके लिए जल पाकर प्यास बुझाना मुमकिन हो जावे, और घूमते-खोजने अंततः उसे खरगोश के सिर पर सींग भी मिल जावे, परंतु दुराग्रह-ग्रस्त मूर्ख को संतुष्ट कर पाना उसके लिए संभव नहीं ।

उक्त छंद में अतिरंजना का अंलकार प्रयुक्त है । यह सभी जानते हैं कि बालू से तेल लिकालना, जल का भ्रम पैदा करने वाली मृगतृष्णा में वास्तविक जल पाकर प्यास बुझाना, और खरगोश के सिर पर सींग खोज लेना जैसी बातें वस्तुतः असंभव हैं । कवि का मत है कि मूर्ख को सहमत कर पाना इन सभी असंभव कार्यों से भी अधिक कठिन है ।

एक प्रश्न है जिसका उत्तर देना मुझे कठिन लगता है । मूर्ख किसे कहा जाए इसका निर्धारण कौन करे, किसे निर्णय लेने का अधिकार मिले ? स्वयं को मूर्ख कौन कहेगा ? मेरे मत में वह व्यक्ति जो अपने विचारों एवं कर्मों को संभव विकल्पों के सापेक्ष तौलने को तैयार नहीं होता, खुले दिमाग से अन्य संभावनाओं पर ध्यान नहीं देता, आवश्यकतानुसार अपने विचार नहीं बदलता, अपने आचरण का मूल्यांकन करते हुए उसे नहीं सुधारता और सर्वज्ञ होने या दूसरों से अधिक जानकार होने के भ्रम में जीता है वही मूर्ख है । आप इस पर विचार करें । – योगेन्द्र जोशी

‘न अकार्यम् अस्ति क्रुद्धस्य’ – रामायण में उल्लिखित नीति वचन

वाल्मीकीय रामायण में लंकादहन के प्रसंग का उल्लेख है । कथा है कि रावण के द्वारा सीताहरण के पश्चात् भ्राताद्वय राम एवं लक्ष्मण सीता की खोज में निकल पड़ते हैं । इस दौरान ऋष्यमूक पर्वत पर उनकी भेंट हनुमान्-सुग्रीव से भेंट होती है और दोनों पक्षों के बीच मित्रता हो जाती है । सुग्रीव राम द्वारा उपकृत होते हैं और बदले में सुग्रीव सीता की खोज में अपनी वानरसेना को लगा देते हैं । सीता की तलाश में हनुमान् रावणनगरी लंका पहुंचते जहां उन्हें अशोकवन में सीता के दर्शन होते हैं । सीता के समक्ष वे अपना परिचय एवं साक्ष प्रस्तुत करते हैं । दोनों के बीच वार्तालाप होता है, और बाद में सीता से अनुमति लेकर हनुमान् अशोकवन में भ्रमण करने एवं वहां के फल-फूलों का आस्वादन करने निकल पड़ते हैं ।

अशोकवन के रक्षकों से उनका संघर्ष होता है, कइयों को वे धराशायी करते हैं, और अंत में पकड़ लिए जाते हैं । उन्हें रावण की सभा में पेश किया जाता है, जहां निर्णय लिया जाता है कि राम के दूत के तौर आए हनुमान् को मारना उचित नहीं । सांकेतिक दंड के तौर पर उनके पूंछ पर ढेर-सारे कपड़े एवं ज्वलनशील पदार्थ लपेटकर आग लगा दी जाती है । जलती पूंछ के सहारे गुस्से से आग-बबूला होकर हनुमान् लंका जलाने निकल पड़ते हैं । लंका नगरी जल उठती है, भवन ध्वस्त हो जाते हैं, लोग हताहत होते हैं । पूंछ की अग्नि जब शांत हो जाती है और उनका गुस्सा ठंडा पड़ जाता है तो अनायास उन्हें सीता का स्मरण हो आता है । वे सोचते हैं कि इस अग्निकांड में तो अशोकवन भी जल उठा होगा । कहीं देवी सीता को तो हानि नहीं पहुंची होगी, क्या धधकते अशोकवन की आग से वे आहत तो नहीं हो गयीं ? ऐसे प्रश्न उनके मन में उठते हैं, और वे चिंतित हो जाते हैं । वे अशोकवन की ओर लौट पड़ते हैं, सीता की कुशल पाने ।

उस समय उन्हें अपने मन में उठे क्रोध को लेकर पश्चाताप होता है । यह सोचकर उन्हें दुःख होता है कि क्रोध के वशीभूत होकर उन्होंने अनर्थ कर डाला । वे अपने मूल उद्येश्य से भटक गये । आदि, आदि । अधोलिखित श्लोकों में तात्क्षधिक क्रोध संबंधी उनके मनोभावों को काव्यरचयिता वाल्मीकि ने इस प्रकार व्यक्त किया है:

(वाल्मीकिरचित रामायण, सुन्दरकांड, अध्याय ५५, श्लोक ३ से ६, क्रमशः)

धन्या खलु महात्मानो ये बुध्या कोपमुपत्थितम् ।
निरुन्धन्ति महात्मानो दिप्तमग्निमिवाम्भसा ॥

(यथा) महात्मानः दिप्तम् अग्निम् अम्भसा निरुन्धन्ति (तथा) इव ये महात्मानः उपत्थितम् कोपम् बुध्या (निरुन्धन्ति ते) खलु धन्या  

वे महात्माजन धन्य हैं जो मन में उठे क्रोध को स्वविवेक से रोक लेते हैं, कुछ वैसे ही जैसे अधिसंख्य लोग जलती अग्नि को जल छिड़ककर शांत करते हैं ।

क्रुद्धः पापं न कुर्यात् कः क्रृद्धो हन्यात् गुरूनपि ।
क्रुद्धः परुषया वाचा नरः साधूनधिक्षिपेत् ॥

कः क्रुद्धः पापं न कुर्यात्, क्रृद्धः गुरून् अपि हन्यात्, क्रुद्धः नरः परुषया वाचा साधून् अधिक्षिपेत् ।

क्रोध से भरा हुआ कौन व्यक्ति पापकर्म नहीं कर बैठता है ? कुद्ध मनुष्य बड़े एवं पूज्य जनों को तक मार डालता है । ऐसा व्यक्ति कटु वचनों से साधुजनों पर भी निराधार आक्षेप लगाता है ।

वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् ।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते क्वचित् ॥

प्रकुपितः वाच्य-अवाच्यं न विजानाति, क्रुद्धस्य कर्हिचित् अकार्यम् न अस्ति, क्वचित् अवाच्यं न विद्यते ।

गुस्से से भरा मनुष्य को किसी भी समय क्या कहना चाहिए और क्या नहीं का ज्ञान नहीं रहता है । ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ भी अकार्य (न करने योग्य) नहीं होता है और न ही कहीं अवाच्य (न बोलने योग्य) रह जाता है ।

यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमयैव निरस्यति ।
यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते ॥

यथा उरगः जीर्णां त्वचं (निरस्यति तथा इव) यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमया एव निरस्यति सः वै पुरुषः उच्यते ।

जिस प्रकार सांप अपनी जीर्ण-शीर्ण हो चुकी त्वचा (केंचुल) को शरीर से उतार फेंकता है, उसी प्रकार अपने सिर पर चढ़े क्रोध को क्षमाभाव के साथ छोड़ देता है वही वास्तव में पुरुष है, यानी गुणों का धनी श्लाघ्य व्यक्ति है ।

हनुमान् को सीता सकुशल मिल जाती हैं, और उन्हें तसल्ली हो जाती है ।

लंकादहन की घटना कितनी वास्तविक है अथवा कितनी अतिरंजित है इस पर अपने-अपने मत हो सकते हैं । किंतु क्रोध को लेकर जो विचार उक्त श्लोकों में व्यक्त हैं उनसे असहमत नहीं हुआ जा सकता है । क्रोधाविष्ट व्यक्ति अपना विवेक खो बैठता है और तात्क्षणिक आवेश में कुछ भी कर बैठता है । इस प्रकार के अनुभव हमें जीवन में पग-पग पर होते रहते हैं, जैसे राह चलते कोई आपसे टकरा जाए तो आप उस पर एकदम बरस पड़ेंगे, गाली-गलौज कर बैठेंगे, कदाचित् हाथ भी उठा देंगे । उस समय आप उसकी बात सुनने को भी तैयार नहीं होंगे । घटना को लेकर जो विचार प्रतिक्रिया-स्वरूप आप के मन में उठेंगे वे तुरंत ही कार्य रूप में बदल जायेंगे । अंत में जब वास्तविकता का ज्ञान आपको हो जाए और उसके प्रति विश्वास जग जाये तब आप अपने व्यवहार के प्रति खिन्न हो सकते हैं । तब भी अहम्भाव से ग्रस्त होकर आप अपने को सही ठहराने का प्रयास करेंगे ।

मनुष्य में अनेकों भाव स्वाभाविक रूप से होते हैं, जैसे दूसरों के प्रति सहानुभूति, श्रद्धाभाव, उपकार की प्रवृत्ति, वस्तुएं अर्जित करने की इच्छा, प्रशंसा सुनने की लालसा, आनंदित होने का भाव, इत्यादि । अहम्भाव कदाचित् सबके ऊपर रहता है । इन भावों में से कुछ दूसरों के हित में होते हैं तो कुछ कभी-कभी उनके लिए कष्टप्रद या हानिकर । विवेकशील व्यक्ति आत्मसंयम का सहारा लेकर स्वयं को कमजोर भावों से मुक्त करने का यत्न करता है । प्रयास करना कठिन होता है, किंतु निष्फल नहीं होता । समय बीतने के साथ आप कमियों को जीतते हैं, और त्वरित प्रतिक्रिया के स्वभाव से मुक्त हो जाते हैं । कदाचित् इसी को प्राचीन मनीषियों ने तप कहा है । – योगेन्द्र जोशी

पंचतंत्र नीति वचन: विश्वसनीय पर भी पूर्ण विश्वास घातक हो सकता है

पंडित विष्णुशर्मा प्रणीत पंचतंत्र में व्यावहारिक जीवन से संबंधित सार्थक नीति की तमाम बातें कथाओं के माध्यम से समझाई गयी हैं । ग्रंथ का दिलचस्प पहलू यह है कि इन कथाओं के अधिकतर पात्र पशु हैं, जो सामान्य मनुष्यों की तरह समस्याओं का साक्षात्कार करते हैं, उनके समाधान का रास्ता खोजते हैं, और उन पर परस्पर बहस एवं सलाह-मशविरे में शरीक होते हैं । इसके दो प्रमुख पात्र करटक तथा दमनक नाम के सियार हैं, जो जंगल के राजा शेर के मंत्री ‘सियार’ के बेटे हैं । पंचतंत्र के एक प्रकरण में विश्वास किस पर करें और कितना करें की चर्चा करते समय करटक भाई दमनक को समझाता है कि किसी पर भी अतिशय विश्वास विनाश का कारण बन सकता है । उसी संदर्भ में उक्त ग्रंथ में अधोलिखित श्लोक उपलब्ध हैं (पंचतंत्र, द्वितीय तंत्र – मित्रसंप्राप्ति, श्लोक क्रमशः 44 एवं 45):

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत् ।

विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि विकृन्तति ।।44।।

(अविश्वस्ते न विश्वसेद्, विश्वस्ते अपि न विश्वसेत्, विश्वासाद् उत्पन्नं भयं मूलानि अपि विकृन्तति ।)
विश्वास न करने योग्य व्यक्ति में निःसंदेह भरोसा नहीं करना चाहिए, किंतु जिस व्यक्ति को विश्वसनीय पाया जाए उस पर भी एक सीमा से अधिक भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि विश्वास करने से पैदा हुए भय अर्थात् संकट (या परेशानी) व्यक्ति के मूल को काट डालता है । कहने का तात्पर्य यह है कि अति विश्वास मनुष्य को कभी-कभी ऐसी दुरवस्था की स्थिति में धकेल देता है, जिससे पार पाना कठिन होता है । उसे अपने अस्तित्व का आधार भी खोना पड़ जाता है ।

न वध्यते ह्यविश्वस्तो दुर्बलोऽपि बलोत्कटैः ।

विश्वस्ताश्चाशु वध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः ।।45।।

(अविश्वस्तः दुर्बलः हि बलोत्कटैः अपि न वध्यते, अपि च विश्वस्ताः बलवन्तः दुर्बलैः आशु वध्यन्ते ।)
जो दूसरे में विश्वास नहीं करता है वह बलवानों के द्वारा भी नहीं मारा जाता है, किंतु जो विश्वास करता है उसका नाश बलवान् होते हुए भी दुर्बलों द्वारा किया जाता है । तात्पर्य यह है कि जिसने कभी धोखा न दिया हो और जिसका आचरण सदैव भरोसे के योग्य लगा हो वह कमजोर होकर भी समर्थ को नुकसान पहुंचा सकता है । इसके विपरीत कमजोर व्यक्ति भी पर्याप्त सावधानी बरतते हुए समर्थ व्यक्ति से स्वयं को बचा सकता है ।

वास्तव में जो व्यक्ति पूर्ण विश्वास का पात्र बन चुका हो, उसके लिए भी यह नहीं कहा जा सकता है कि भविष्य में वह कभी धोखा नहीं देगा । मनुष्य का व्यवहार कब बदल जाएगा इस बात का ही कोई भरोसा नहीं । ऐसे में बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह सदा सावधान रहे और यह मानकर चले कि अमुक व्यक्ति आज नहीं तो कल धोखा दे सकता है । यह देखने में आता ही है कि व्यापारिक संबंधों में घनिष्ट मित्र भी ठगी पर उतर आते हैं । व्यक्ति के स्वयं के बेटे-बेटियां तक कभी-कभी वंचक की भूमिका में उतर आते हैं । इसीलिए कहा जाता है कि वृद्धावस्था के लिए मनुष्य को अपनी कारगर व्यवस्था समय रहते कर लेनी चाहिए और अपने बच्चों के भरोसे भी आंख मूंदकर नहीं बैठना चाहिए । कब किसकी नीयत बदल चाए कहा नहीं जा सकता है । मानव व्यवहार विचित्र, अस्थाई एवं परिवर्तनशील होता है । – योगेन्द्र जोशी

नीति वचन: गच्छन् पिपिलिको याति …

माध्यमिक स्तर की किसी कक्षा में संस्कृत विषयक पुस्तक में मैंने कभी नीति संबंधी एक श्लोक पढ़ा था । वह श्लोक मुझे आज भी याद है, यद्यपि उसका मूल स्रोत का ज्ञान मुझे नहीं है । उसके शब्द इस प्रकार हैं:
गच्छन् पिपिलिको याति योजनानां शतान्यपि ।
अगच्छन् वैनतेयः पदमेकं न गच्छति ।।

(गच्छन् पिपिलिकः योजनानां शतानि अपि याति । अगच्छन् वैनतेयः एकं पदं न गच्छति ।)

श्लोक का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार दिया जा सकता हैः लगातार चल रही चींटी सैकड़ों योजनों की दूरी तय कर लेती है, परंतु न चल रहा गरुड़ एक कदम आगे नहीं बढ़ पाता है ।

अवश्य ही चींटी के संदर्भ में सैकड़ों योजनों की दूरी अतिशयोक्ति मानी जायेगी । उसकी गति अति सामान्य रहती है और उसके सामर्थ्य की तुलना गरुड़ से नहीं की जा सकती है, जो पलक झपकते ही कई मीटर दूर जा सकता है । परंतु सामर्थ्य के इस भेद का ही महत्त्व पर्याप्त नहीं है । महत्त्व तो उस संकल्प का भी है जिसको लेकर आगे बढ़ा जाता है । श्लोक का तात्पर्य मात्र यह है कि लगातार चलायमान चींटी अपने गंतव्य की ओर अग्रसर रहते हुए न जाने कितनी दूरी तय कर लेती है । दूसरी तरफ निष्क्रिय पड़ा हुआ गरुड़ वहीं का वहीं रह जाता है । जब तक वह आगे बढ़ने का संकल्प न ले और उस हेतु प्रयत्न न करे वह आगे नहीं वढ़ेगा ।

इस श्लोक में वस्तुतः वही सीख व्यक्त की गयी है जो कछुए और खरगोश की सुपरिचित कहानी के माध्यम से बच्चों को बतायी जाती है । किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास का किया जाना पहली आवश्यकता होती है । उसके पश्चात् ही आवश्यक सामर्थ्य का महत्त्व है । सामर्थ्य अधिक होगी तो सफलता शीघ्र और सरलता से मिलेगी, अन्यथा उसमें विलंब और कठिनाई होगी । लेकिन कुछ कर गुजरने का विचार ही मन में न आवे और व्यक्ति उस दिशा में ही प्रयत्न करने को ही तैयार न हो तो सफलता की आशा करना मूर्खता कही जायेगी ।

हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो अपने-अपने क्षेत्र में महारत रखते हों । उनकी शैक्षिक तथा व्यावसायिक योग्यता पर शंका नहीं की जा सकती । किंतु वे अपनी समस्त ऊर्जा एवं कार्य-क्षमता को अधिकांशतः स्वहित साधने में ही लगा देते हैं । सामाजिक दायित्वों के प्रति समर्पण भाव उनमें अपर्याप्त रहता है । समर्पण भाव नहीं तो समाज हित की दिशा में कदम नहीं । फलतः समाज वांछित प्रगति नहीं कर पा रहा है ।

आजकल अपने देश में लोकसभा के लिए चुनाव चल रहे हैं और इस समय देश के सामने खड़ी तमाम चुनौतियों की बात भी की जा रही है । जनप्रतिनिधि बनने के लिए उत्सुक राजनेता शासन चलाने की अपनी तथा अपने दल की सामर्थ्य एवं योग्यता का दावा कर रहे हैं । परंतु क्या वे चुने जाने पर उपयुक्त दिशा में कदम उठायेंगे ? या चुनौतियों की अनदेखी करते हुए सत्तासुख में बैठे रह जायेंगे ? यही त्रासदी है देश की कि समस्याओं के निराकरण का लक्ष्य ये जनप्रतिनिधि भूल जाते हैं ।
सृष्टि की अमूर्त नियंता शक्ति से मेरी प्रार्थना है कि उनमें सन्मति का उदय होवे । – योगेन्द्र

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