“न विश्वसेत् अविश्वस्ते …” – पंचतंत्र में वर्णित कौवे एवं चूहे की नीतिकथा

पंचतंत्र के नीतिवचनों पर आधारित अपनी 7 फरवरी 2010 की पोस्ट में मैंने ग्रंथ का संक्षिप्त और एक प्रकार से अधूरा परिचय दिया था। उसके बारे में इस स्थल पर विस्तार से बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी इतना कहना चाहूंगा कि इसमें व्यावहारिक जीवन से संबंधित सार्थक नीति की तमाम बातें कथाओं के माध्यम से समझाई गयी हैं । इन कथाओं में अधिकतर पात्र मनुष्येतर प्राणी यथा लोमड़ी, शेर, बैल, कौआ आदि हैं। कथाएं आपस में शृंखलाबद्ध तरीके जुड़ी हुई हैं अर्थात्‍ एक कथा में दूसरी कथा और उसमें तीसरी आदि के क्रम से कथाओं का बखान किया गया है। उक्त ग्रंथ पांच खंडों में विभक्त है जिन्हें “तंत्र” पुकारा गया है। ये हैं:

1. मित्रभेदः, 2. मित्रसंप्राप्तिः, 3. काकोलूकीयम्, 4. लब्धप्रणाशम्, एवं 5. अपरीक्षितकारकम् ।

प्रत्येक तंत्र में किसी एक प्रकार की विषयवस्तु लेकर कथाएं रची गई हैं, जैसे मित्रभेदः में वे कथाएं हैं जो दिखाती हैं कि किस प्रकार प्रगाढ़ मित्रों के बीच फूट डालकर अपना हित साधा जा सकता है। इसी प्रकार अंतिम तंत्र अपरीक्षितकारकम्‍ में वे कथाएं हैं जो दर्शाती हैं कि समुचित सोचविचार के बिना किया जाने वाला कार्य कैसे घातक हो सकता है।

पंचतन्त्र का आरंभ कुछ यों होता है: सुना जाता है कि दक्षिण देश में महिलारोप्य नामक नगर हुआ करता था। वहां अमरशक्ति नाम के हर प्रकार से योग्य राजा शासन करते थे। उनके तीन पुत्र थे जिनके नाम क्रमश: बहुशक्ति, उग्रशक्ति तथा अनंतशक्ति थे। कुबुद्धि प्रकार के वे तीनों राजपुत्र शास्त्रादि के अध्ययन में बिल्कुल भी रुचि नहीं लेते थे। राजा उनके बारे में सोच-सोचकर दुःखी रहते थे। उन्होंने एक बार अपने मन के बोझ की बात मंत्रियों के सामने रखते हुए राजपुत्रों को विवेकशील एवं शिक्षित बनाने के उपाय के बारे में पूछा। सोचविचार के बाद मंत्रियों ने उन्हें बताया कि शास्त्रों एवं अनेक विद्याओं के ज्ञाता एक ब्राह्मण राज्य में हैं। उन्हीं के संरक्षण में राजपुत्रों को सौंप दिया जाए। ब्राह्मण ने राजपुत्रों को सुधारने का जिम्मा ले लिया इस शर्त के साथ कि वे छः महीने तक उनके साथ रहेंगे और राजा या अन्य कोई उनके कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगा। ये ब्राह्मण स्वयं पंचतंत्र ग्रंथ के रचयिता विष्णुशर्मा थे। माना जा सकता है कि विष्णुशर्मा ने सरल, रोचक, एवं शिक्षाप्रद कथाओं के माध्यम से राजपुत्रों में विद्याध्ययन के प्रति रुचि जगाई।

मैं यहां पर उक्त ग्रंथ की एक कथा प्रस्तुत करते हुए नीतिप्रद श्लोकों का उल्लेख कर रहा हूं।

एक बार एक बहेलिये ने पक्षियों को पकड़ने के लिए जंगल में चारा डालते हुए जाल फैला दिया। कुछ समय बाद कबूतरों का एक झुंड उधर आया और वहां पड़े चारे को खाने के लिए लालायित हुआ। कबूतरों के मुखिया/राजा, चित्रग्रीव, ने झुंड के सदस्यों से कहा, “इतना सारा चारा यहां पर कैसे और कहां से आया होगा यह सोचने की बात है। अवश्य ही कुछ रहस्य है और हमें इससे बचना चाहिए।”

झुंड के सदस्यों ने कहा, “आप यों ही सशंकित हो रहे हैं। इसे चुगने पर कोई खतरा नहीं होगा।” और वे सभी नीचे उतर गए और जाल में फंस गए।

स्वयं को विपत्ति में पड़ा हुआ पाने पर कतोतराज चित्रग्रीव ने शेष कबूतरों से कहा, “तुम लोग धैर्य से काम लेना। अब हम एक कार्य कर सकते हैं। जाल समेत यहां से उड़ चलें और हिरण्यक नामक मेरे घनिष्ठ मित्र चूहे के पास पहुंचें। वह जंगल ही में एक पेड़ के जड़ के पास बने बिल में रहता है।”

उस पेड़ के पास पहुंचने पर चित्रग्रीव ने मित्र हिरण्यक चूहे को मदद के लिए पुकारा। हिरण्यक ने जानी-पहचानी सी आवाज सुनी तो उसने बिल के अंदर से ही पूछा, “कौन है बाहर मुझे पुकारने वाला? नाम-पता तो बताओ।”

चित्रग्रीव ने जवाब दिया, “भाई, मैं हूं तुम्हारा मित्र कपोतराज चित्रग्रीव। मैं विपत्ति में फंस गया हूं, इसलिए शीघ्र मेरी मदद करो।”

हिरण्यक ने बिल से बाहर निकलने पर देखा कि उसका मित्र अपने साथी कबूतरों के  साथ जाल में फंसा हुआ है। वह शीघ्र चित्रग्रीव के पास पहुंचा और उसके बंधन काटने लगा। कपोतराज ने उसे मना किया और कहा, “पहले इनके बंधन काटो और अंत में मेरे।”

हिरण्यक ने आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा, “पहले तुम्हें मुक्त होना चाहिए। बाद में देर हो जाए, या मैं थक जाऊं, अथवा मेरे दांत टूट जाएं तो तुम्हें मुक्त करना संभव नहीं हो पाएगा।”

“मैं इन सब का मुखिया हूं, राजा हूं। मेरा कर्तव्य है कि पहले प्रजा का हित साधूं न कि अपना। मुझे त्याग करना पड़े तो कोई बात नहीं; इनकी मुक्ति पहले होनी चाहिए।” कपोतराज ने उत्तर दिया।

हिरण्यक ने सहमति जताते हुए कहा, “मित्र, मैं तो देखना चाहता था कि तुम राजा के तौर पर कितने स्वार्थी हो। मुझे विश्वास था ही तुम योग्य राजा के अनुरूप ही निर्णय लोगे।” और उसने तेजी से उन सभी के बंधन काट डाले। तब दोनों मित्रों के बीच कर्तव्याकर्तव्य और कुशलक्षेम की संक्षिप्त बातें हुई और अंत में चित्रग्रीव ने हिरण्यक के प्रति आभार प्रकट करते हुए विदा ली। हिरण्यक भी सतर्क अपने बिल में सुरक्षित चला गया।

उसी पेड़ की एक डाली पर लघुपतनक नामक एक कौआ भी रहता था। वह उस घटना को देख रहा था और दोनों के बीच हुए वार्तालाप को ध्यान से सुन रहा था। चूहे हिरण्यक की विद्वतापूर्ण बातें उसे खूब भाईं और उसे लगा कि उससे मित्रता की जानी चाहिए। तब वह बिल के पास आकर बोला, “अरे हिरण्यक भाई, बाहर आओ, मैं भी तुमसे मित्रता करना चाहता हूं।”

हिरण्यक ने उससे उसका परिचय जानना चाहा। उस कौवे ने बताया कि वह लघुपतनक नाम का कौआ है जो उसी पेड़ पर रहता है। अपने बिल में सुरक्षित टिके हुए  हाजिरजवाब हिरण्यक ने आपत्ति जाहिर की, “अरे काक लघुपतनक, तुम्हारे-मेरे मध्य मित्रता कैसे संभव है? मेरी प्रजाति तो तुम्हारी प्रजाति के लिए भक्ष्य है। मैं शिकार और तुम शिकारी। मैं तो तुम्हारी मौजूदगी में बिल के बाहर भी निकलने की हिम्मत नहीं सकता, दोस्ती तो बहुत दूर की बात है।”

हिरण्यक ने बिल के अंदर से ही लघुपतनक से कहा कि परस्पर संबंध स्थापित करते समय दो जनों को अधोलिखित नीति-श्लोक पर ध्यान देना चाहिए:

ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् ।

तयोर्मैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥२९॥

(पञ्चतंत्र, द्वितीय तंत्र मित्रसंप्राप्ति)

(ययोः एव समम् वित्तम् ययोः एव समम् कुलम् तयोः मैत्री विवाहः च न तु पुष्ट-विपुष्टयोः ।)

शब्दार्थ – जिनका (दो व्यक्तियों का) समान वित्त हो, जिनका कुल समान हो, उन्हीं में परस्पर मित्रता एवं विवाह ठीक है न कि सक्षम एवं असक्षम के बीच।

अर्थात् दो जनों के मध्य यारी-दोस्ती और वैवाहिक संबंध तभी स्थापित होने चाहिए जब वे समकक्ष कुलों से जुड़े हों और उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में समानता हो। जहां दोनों के बीच आर्थिक असमानता हो या दोनों की सामाजिक प्रतिष्ठा के स्तर में अंतर हो वहां संबंध नहीं बनाए जाने चाहिए।

इसके आगे भी हिरण्यक समझाया:

यो मित्रं कुरुते मूढ आत्मनोऽसदृशं कुधीः ।

हीनं वाप्यधिकं वापि हास्यतां यात्यसौ जनः ॥३०॥

(यथा उपर्युक्त)

यः मित्रम् कुरुते मूढः आत्मनः असदृशम् कुधीः हीनम् वा अपि अधिकम् वा अपि हास्यताम् याति असौ जनः ।)

शब्दार्थ – जो कुबुद्धि अपने असमान, अपने से हीनतर हो अथवा श्रेष्ठतर, के साथ मित्रता करता है वह जगहंसाई का पात्र बन जाता है।

जो व्यक्ति अपने से सर्वथा भिन्न आर्थिक अथवा सामाजिक स्तर के व्यक्ति के साथ मित्रता अथवा पारिवारिक संबंध स्थापित करता है वह मूर्ख कहा जाएगा। ऐसा व्यक्ति अपने से श्रेष्टतर स्थिति वाले व्यक्ति द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता है। मानव समाज में ऐसा सदैव नहीं देखने को मिलता है जहां दो, विशेषतः जब जने वैचारिक कारणों से मित्र बनते हैं। किंतु वैवाहिक मामलों में यह काफी हद तक सही है। हीनतर स्थिति वाले व्यक्ति का कभी-कभी स्पष्ट तौर पर तिरस्कार होता है। ऐसी संभावनाओं के कारण ही बराबरी के रिश्ते को उचित माना जाता है।

नीति की इस प्रकार की बातों से लघुपतनक हिरण्यक से बहुत प्रभावित हुआ। उसने समझाने की कोशिश की, “मैं तुम्हें धोखा देने के विचार से मित्रता की बात नहीं करता। मैं वास्तव में गंभीर हूं क्योंकि मैं तुमसे विद्वता की बातें सुनना चाहता हूं, तुम्हारे साथ विचारों का आदान-प्रदान करना चाहता हूं। तुम मेरा विश्वास करो।”

विश्वास की बात पर हिरण्यक ने उत्तर दिया:

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत् ।

विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृतन्ति ॥४४॥

(यथा उपर्युक्त)

(न विश्वसेत् अविश्वस्ते विश्वस्ते अपि न विश्वसेत् विश्वासात् भयम् उत्पन्नम् मूलानि अपि निकृतन्ति ।)

शब्दार्थ – अविश्वसनीय व्यक्ति का तो विश्वास न ही करे और विश्वसनीय पर भी विश्वास न करे। विश्वास करने पर जो संकट पैदा होता है वह जड़ों को भी काट डालता है। तात्पर्य यह कि अपने विश्वस्त पर भी पूरा विश्वास नहीं ही होना चाहिए क्योंकि वह भी धोखा दे सकता है।

न वध्यते ह्यविश्वस्तो दुर्बलोऽपि बलोत्कटैः ।

विश्वस्ताश्चाशु बध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः ॥४५॥

(यथा उपर्युक्त)

(न वध्यते हि अविश्वस्तः दुर्बलः अपि बल-उत्कटैः विश्वस्ताः च आशु बध्यन्ते बलवन्तः अपि दुर्बलैः ।)

शब्दार्थ – विश्वास न हो जिसे (अविश्वस्त) ऐसा दुर्बल व्यक्ति बलशाली द्वारा भी नहीं मारा जाता है। विश्वस्त व्यक्ति तो दुर्बल के द्वारा भी शीघ्र मारा जाता है।

इन दो छंदों का उल्लेख अपनी टिप्पणी के साथ मैंने २०१० की एक प्रविष्टि (७ फरवरी) में किया है। अतः यहां पर उस टिप्पणी का पुनरुल्लेख नहीं कर रहा हूं।

टिप्पणी – उपर्युक्त छंद ४४ में द्वितीय चरण का पाठ “विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत्” है। मेरे पास पंचतंत्र की चौखंबा विद्याभवन द्वारा प्रकाशित (वाराणसी, १९९४) की प्रति है। उसमें यही पाठ है। मुझे लगता है कि इसके बदले “विश्वस्ते नाति विश्वसेत्” होता तो अधिक उपयुक्त होता। उस स्थिति में उसका अर्थ अधिक स्वीकार्य होता। अर्थ होता “विश्वस्त व्यक्ति पर भी अधिक विश्वास नही करना चाहिए।” यानी उस पर भी थोड़ी-बहुत शंका बनी रहनी चाहिए। हो सकता है किसी अन्य संस्करण में ऐसा ही हो।

हिरण्यक को विश्वास दिलाने का लघुपतनक ने काफी प्रयास किया । उसने, “ठीक है, तुम्हें विश्वास नहीं होता कि मैं तुम्हें हानि नहीं पहुंचाऊंगा। तुम मित्रता न करो न सही। फिर भी अपने बिल में सुरक्षित अनुभव करते हुए मुझसे बातें तो कर ही सकते हो। मैं रोज तुम्हारी पांडित्य भरी बातें सुनने आया करूंगा, इतना तो कर सकते हो न?”

हिरण्यक ने उसकी बात मान ली। इसके बाद उन दोनों के बीच प्रायः प्रतिदिन मुलाकातें होने लगीं, पहला बिल के अंदर मुहाने पर सुरक्षित और दूसरा बिल के बाहर। दोनों के बीच विविध विषयों पर वार्तालापों का सिलसिला चल पड़ा । हिरण्यक के मन में शनैः-शनैः लघुपतनक के प्रति विश्वास एवं लगाव जगने लगा। लघुपत्तनक दिन के समय बीन-बटोर कर लाई गईं भोज्य वस्तुएं हिरण्यक को भेंट करने लगा और इसी प्रकार हिरण्यक भी रात में खोज-बीन कर लाईं चीजें लघुपतनक को खिलाने लगा। इस प्रकार के लंबे सान्निध्य के बाद हिरण्यक को लगने लगा कि लघुपतक उसे धोखा नहीं देगा। वह बिल के बाहर आने लगा। दोनों की मित्रता हो जाती है। साथ-साथ उठना-बैठना, खेलना-कूदना होने लगा।

यह है पंचतंत्र के दूसरे तंत्र, मित्रसंप्राप्ति, की एक कथा। उक्त कहानी यही पर खत्म नहीं होती। कथा के दोनों पात्र मित्र बन जाते हैं कालांतर में वे उस स्थान को छोड़कर एक नए मित्र कछुए के पास पहुंचते हैं और वहां जुड़ती है एक और कथा। और यह सिलसिला आगे बढ़ता है। – योगेन्द्र जोशी

“वित्तं सर्वसाधनम् उच्यते” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (3)

संस्कृत नीतिग्रंथ पंचतंत्र के एक प्रकरण में इस बात का उल्लेख पढ़ने को मिलता है कि मनुष्य समाज में धन-संपदा की महत्ता को प्रायः सर्वत्र स्वीकारा जाता है । अपने चिट्ठे की पिछली दो प्रविष्टियों (जून 6 एवं जून 15) में मैंने पंचतंत्र के तत्संबंधित कुछ श्लोकों का जिक्र किया था । यह भी बताया था कि उक्त पुस्तक का एक पशु पात्र (सियार) अपने भाई को पैसे की अहमियत समझाते हुए धनोपार्जन के लिए प्रेरित करता है । अवश्य ही जो बातें कही गई हैं उनमें अतिशयोक्ति है । इसी पुस्तक में अन्यत्र संपदाजनित समस्याओं का उल्लेख भी है, जो यह स्पष्ट करती हैं कि धन को लेकर समाज में मतभिन्नता भी देखने को मिलती है । अतः जो नीतिवचन मौजूदा संदर्भ में कही गई हैं उनका मूल्यांकन स्वविवेक से किया जाना चाहिए । मतभिन्नता संबंधी नीतिवचनों का जिक्र मैं भविष्य में कभी करूंगा । अभी इस चर्चा के अगले एवं अंतिम तीन श्लोक आगे प्रस्तुत कर रहा हूं:

अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्याण्यखिलान्यपि ।
एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते ॥8॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(अशनात् इन्द्रियाणि इव स्युः कार्याणि अखिलानि अपि एतस्मात् कारणात् वित्तं सर्व-साधन् उच्यते ।)

अर्थः भोजन का जो संबंध इंद्रियों के पोषण से है वही संबंध धन का समस्त कार्यों के संपादन से है । इसलिए धन को सभी उद्येश्यों की प्राप्ति अथवा कर्मों को पूरा करने का साधन कहा गया है ।

इस तथ्य को सभी लोग स्वीकार करेंगे कि चाहे धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करने हों या याचकों को दान देेना हो, धन चाहिए ही । शारीरिक स्वास्थ्य, मनोरंजन, एवं सुखसुविधाएं आदि सभी के लिए धन-दौलत चाहिए । आज के जमाने में तो मु्फ्त में सेवा देने वाले अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं । एक जमाना था जब सामाजिक कार्य संपन्न करने में परस्पर सहयोग एवं मदद देने की परंपरा थी, परंतु अब सर्वत्र धन का ही बोलबाला है ।

अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते ।
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः ॥9॥
(यथा उपर्युक्त)
(अर्थ-अर्थी जीवलोकः, अ‌यं श्मशानम् अपि सेवते, त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः ।)

अर्थः यह लोक धन का भूख होता है, अतः उसके लिए श्मशान का कार्य भी कार्य करने को तैयार रहता है । धन की प्राप्ति के लिए तो वह अपने ही जन्मदाता हो छोड़ दूर देश भी चला जाता है ।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि जीवन-धारण बिना धन के संभव नहीं हैं, अतः मनुष्य धनोपार्जन के लिए कोई भी व्यवसाय अपनाने को विवश होता है । कुछ कामधंधे समाज में अधिक प्रतिष्ठित माने जाते हैं, अतः लोग उनकी ओर दौड़ते हैं और सौभाग्य से उन्हें पा जाते हैं । किंतु सभी भाग्यवान एवं पर्याप्त योग्य नहीं होते । उन्हें उस कार्य में लगना पड़ता है जिसे निकृष्ट श्रेणी का माना जाता है । अथवा धनोपार्जन के लिए घर से दूर निकलना पड़ता है । आज के जमाने में ये बातें सामान्य हो चुकी हैं ।

गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः ।
अर्थे तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ॥10॥
(यथा उपर्युक्त)
(गत-वयसाम् अपि पुंसां येषाम् अर्थाः भवन्ति ते तरुणाः, अर्थे तु ये हीनाः वृद्धाः ते यौवने अपि स्युः ।)

अर्थः उम्र ढल जाने पर भी वे पुरुष युवा रहते हैं जिनके पास धन रहता है । इसके विपरीत जो धन से क्षीण होते हैं वे युवावस्था में भी बुढ़ा जाते हैं ।

इस श्लोक की मैं दो प्रकार से व्याख्या करता हूं । पहली व्याख्या तो यह है धनवान व्यक्ति पौष्टिक भोजन एवं चिकित्सकीय सुविधा से हृष्टपुष्ट एवं स्वस्थ रह सकता है । तदनुसार उस पर बुढ़ापे के लक्षण देर से दिखेंगे । जिसके पास खाने-पीने को ही पर्याप्त न हो, अपना कारगर इलाज न करवा सके, वह तो जल्दी ही बूढ़ा दिखेगा । संपन्न देशों में लोगों की औसत उम्र अधिक देखी गई है । अतः इस कथन में दम है ।

दूसरी संभव व्याख्या यों हैः धनवान व्यक्ति धन के बल पर लंबे समय तक यौनसुख भोग सकता है, चाटुकार उसे घेरे रहेंगे और कहेंगे, “अभी तो आप एकदम जवान हैं ।” कृत्रिम साधनों से भी वह युवा दिख सकता है और युवक-युवतियों के आकर्षण का केंद्र बने रह सकता है । जब मन युवा रहे जो वार्धक्य कैसा ? – योगेन्द्र जोशी

“धनिनां परोऽपि स्वजनायते” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (2)

संस्कृत नीतिग्रंथ पंचतंत्र के एक प्रकरण में इस बात का वर्णन मिलता है कि मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा का बहुत महत्त्व है । उक्त तथ्य से संबंधित तीन श्लोकों का उल्लेख मैंने पिछली पोस्ट
में किया है । इस स्थल पर में तीन अन्य श्लोकों की चर्चा कर रहा हूं । ये श्लोक आगे उद्धृत हैं:

इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते ।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ॥5॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(इह लोके हि धनिनां परः अपि स्वजनायते स्वजनः अपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ।)

अर्थः इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है । और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग भी दुर्जन (बुरे अथवा दूरी बनाये रखने वाले) हो जाते हैं ।

उक्त बातें प्राचीन काल में किस हद तक सही रही होंगी यह कहना कठिन है । परंतु आज के विशुद्ध भौतिकवादी युग में ये पूरी तरह खरी उतरती हैं । बहुत कम लोग होंगे जो अपने भाई-बहनों तक के साथ मिलकर अपनी संपदा का भोग करना चाहेंगे । “हम कमाएं और वे खाएं यह भला कैसे हो सकता है ?” यह सोच सबके मन में रहती है । अतः उनसे दूरी बनाए रखने में ही उनकी संपदा परस्पर बंटने से बच सकती है । इसीलिए नीतिकार कहता है कि अगर आप अपनी धनसंपदा खो बैठते हैं तो आपके निकट संबंधी भी आपके नहीं रह जाते हैं । दूसरी ओर किसी धनी से संबंध बढ़ाने में लाभ की संभावना बनी रहती है, इसलिए लोग उसके ‘अपने’ बनने की फिराक में अक्सर देखे जाते हैं ।

अर्थेभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतस्ततः ।
प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः ॥6॥
(यथा उपर्युक्त)
(अर्थेभ्यः अपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतः ततः प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इव आपगाः ।)

अर्थः चारों तरफ से एकत्रित करके बढ़ाये गये धनसंपदा से ही विविध कार्यों का निष्पादन होता है, जैसे पर्वतों से नदियों का उद्गम होता है ।

इस कथन के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि वह जैसे भी हो, जहां से भी हो, अपनी धनसंपदा बढ़ाता जाए । जब ढेर सारा धन आपके पास इकट्ठा हो तो उस धन के माध्यम से सभी कार्य एक-एक कर संपन्न होते चले जाएंगे । “हर स्रोत से धन इकट्ठा करे” का अर्थ क्या यह समझा जाए कि आर्थिक भ्रष्टाचार भी मान्य रास्ता है ? शायद हां, तभी तो सर्वत्र भ्रष्टाचार का तांडव देखने को मिल रहा है ।

पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्यो९पि गम्यते ।
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥7॥
(यथा उपर्युक्त)
(पूज्यते यत् अपूज्यः अपि यत् अगम्यः अपि गम्यते वन्द्यते यत् अवन्द्यः अपि स प्रभावः धनस्य च ।)

अर्थः धन का प्रभाव यह होता है कि जो सम्मान के अयोग्य हो उसकी भी पूजा होती है, जो पास जाने योग्य नहीं होता है उसके पास भी जाया जाता है, जिसकी वंदना (प्रशंसा) का पात्र नहीं होता उसकी भी स्तुति होती है ।

संस्कृत में एक उक्ति है: “धनेन अकुलीनाः कुलीनाः भवन्ति धनम् अर्जयध्वम् ।” अर्थात् धन के बल पर अकुलीन जन भी कुलीन हो जाते हैं, इसलिए धनोपार्जन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि समाज में सामान्य अप्रतिष्ठित व्यक्ति ढेर-सी धनसंपदा जमा कर लेता है तो वह सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान का हकदार हो जाता है । लोग उसके आगे-पीछे घूमना शुरू कर देते हैं । इसके विपरीत प्रतिष्ठित व्यक्ति जब दुर्भाग्य से अपनी संपदा खो बैठता है तो उसे सामाजिक प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ती है । लोग उसका सम्मान करना भूलने लगते हैं, उससे मिलने से भी कतराते हैं ।

धन की महिमा वास्तव में अपरंपार है ! – योगेन्द्र जोशी

“अर्थम् एकं प्रसाधयेत्” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (1)

पंचतंत्र संस्कृत साहित्य का सुविख्यात नीतिग्रंथ है, जिसका संक्षिप्त परिचय मैंने अन्यत्र दे रखा है । ग्रंथ के अंतर्गत एक प्रकरण में व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा की महत्ता का वर्णन मिलता है । उसके दो सियार पात्रों – वस्तुतः दो भाइयों, दमनक एवं करटक – में से एक दूसरे के समक्ष अधिकाधिक मात्रा में धनसंपदा अर्जित करने का प्रस्ताव रखता है । दूसरे के “बहुत अधिक धन क्यों?” के उत्तर में वह धन के विविध लाभों को गिनाना आंरभ करता है और धन से सभी कुछ संभव है इस बात पर जोर डालता है । ऐसा नहीं है कि पंचतंत्र में धन को ही महत्त्व दिया गया हो । किसी अन्य स्थल पर तो ग्रंथकार ने उपभोग या दान न किए जाने पर धनसंपदा के नाश की भी बात की है । वस्तुतः ग्रंथ में परिस्थिति के अनुसार पशुपात्रों के माध्यम से कर्तव्य-अकर्तव्य की नीतिगत बातें कही गई हैं । याद दिला दूं कि पंचतंत्र के पात्र पशुगण हैं, जो मनुष्यों की भांति व्यवहार करते हैं, और मनुष्य जीवन की समस्याओं से जूझ रहे होते हैं । यहां पर उस सियार पात्र के धनोपार्जन संबंधी कथनों को उद्धृत किया जा रहा है । प्रस्तुत हैं प्रथम तीन श्लोक:

न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति ।
यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥2॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(न हि तत् विद्यते किञ्चित् यत् अर्थेन न सिद्ध्यति यत्नेन मतिमान् तस्मात् अर्थम् एकं प्रसाधयेत् ।)

अर्थः ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे धन के द्वारा न पाया जा सकता है । अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को एकमेव धन अर्जित करने का प्रयत्न करना चाहिए ।

भौतिक सुख-सुविधाएं धन के माध्यम से एकत्र की जा सकती हैं । इतना ही नहीं सामाजिक संबंध भी धन से प्रभावित होते हैं । ऐसी ही तमाम बातें धन से संभव हो पाती हैं । इनका उल्लेख आगे किया गया हैः

यस्यार्थाः तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः ।
यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥3॥
(यथा उपर्युक्त)
(यस्य अर्थाः तस्य मित्राणि यस्य अर्थाः तस्य बान्धवाः यस्य अर्थाः सः पुमान् लोके यस्य अर्थाः सः च पण्डितः ।

 अर्थः जिस व्यक्ति के पास धन हो उसी के मित्र होते हैं, उसी के बंधुबांधव होते हैं, वही संसार में वस्तुतः पुरुष (सफल व्यक्ति) होता है, और वही पंडित या जानकार होता है ।

आज के सामाजिक जीवन में ये बातें सही सिद्ध होती दिखाई देती हैं । आपके पास धन-दौलत है तो यार-दोस्त, रिश्तेदार, परिचित आदि आपको घेरे रहेंगे, अन्यथा आपसे देरी बनाए रहेंगे । जिसने धनोपार्जन कर लिया वही सफल माना जाता है, उसी की योग्यता की बातें की जाती हैं, उसकी हां में हां मिलाई जाती है, मानो कि उसे ही व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो । कदाचित् धन की ऐसी खूबी प्राचीन काल में भी स्वीकारी गई होगी । आगे देखिए:

न सा विद्या न तद्दानं न तच्छिल्पं न सा कला ।
न तत्स्थैर्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयते ॥4॥
(यथा उपर्युक्त)
(न सा विद्या न तत् दानं न तत् शिल्पं न सा कला न तत् स्थैर्यं हि धनिनां याचकैः यत् न गीयते ।)

अर्थः ऐसी कोई विद्या, दान शिल्प (हुनर), कला, स्थिरता या वचनबद्धता नहीं है जिनके धनिकों में होने का गुणगान याचकवृंद द्वारा न किया जाता हो ।

संपन्न व्यक्ति की अनुकंपा प्राप्त करने और मौके-बेमौके उससे मदद पाने के लिए लोग प्रशंसा के बोल कहते देखे जाते हैं । उसको खुश करने के लिए लोग यह कहने में भी नहीं हिचकते हैं कि वह अनेकों गुणों का धनी है । राजनीति के क्षेत्र में ऐसे अनेकों ‘महापुरुष’ मिल जाएंगे, जिनके गुणगान में लोगों ने ‘चालीसाएं’ तक लिख डाली हैं । धनिकों के प्रति चाटुकारिता एक आम बात है ऐसा ग्रंथकार का मत है । – योगेन्द्र जोशी

‘दानं भोगं नाशः …’ – पञ्चतन्त्र के नीतिवचन: धन की गति तीन प्रकार की

समाज में धन की महत्ता सर्वत्र प्रायः सबके द्वारा स्वीकारी जाती है, और धनसंचय के माध्यम से स्वयं को सुरक्षित रखने का प्रयत्न कमोबेश सभी लोग करते हुए देखे जाते हैं । कदाचित् विरले लोग ही इस प्रश्न पर तार्किक चिंतन के साथ विचार करते होंगे कि धन की कितनी आवश्यकता किसी को सामान्यतः हो सकती है । यदि किसी मनुष्य को असीमित मात्रा में धन प्राप्त होने जा रहा हो तो क्या उसने उस पूरे धन को स्वीकार कर लेना चाहिए, या उसने इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि किस प्रयोजन से एवं किस सीमा तक उस धन के प्रति लालायित होना चाहिए । यह प्रश्न मेरे मन में वर्षों से घर किया हुए है । नीतिग्रंथों में प्राचीन भारतीय चिंतकों के एतद्संबंधित विचार पढ़ने को मिल जाते हैं । ऐसा ही एक शिक्षाप्रद एवं चर्चित ग्रंथ पंचतंत्र है । मुझे उसमें धन के बारे में गंभीर सोच देखने को मिलती है । मैं उस ग्रंथ से चुनकर दो श्लोकों को यहां पर उद्धृत कर रहा हूं:

(स्रोत: विष्णुशर्मारचित पञ्चतन्त्र, भाग 1 – मित्रसंप्राप्ति, श्लोक १५३ एवं १५४, क्रमशः)

दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः ।
पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥

(दातव्यम्, भोक्तव्यम्, धन-विषये सञ्चयः न कर्तव्यः, पश्य इह मधुकरिणाम् सञ्चितम् अर्थम् हरन्ति अन्ये ।)

अर्थः (धन का दो प्रकार से उपयोग होना चाहिए ।) धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए । किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए । ध्यान से देखो कि मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं ।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि मनुष्य को धन का उपभोग कर लेना चाहिए अथवा उसे जरूरतमंदों को दान में दे देना चाहिए । अवश्य ही उक्त नीतिकार इस बात को समझता होगा कि धन कमाने के तुरंत बाद ही उसका उपभोग संभव नहीं है । उसका संचय तो आवश्यक है ही, ताकि कालांतर में उसे उपयोग में लिया जा सके । उसका कहने का तात्पर्य यही होगा कि उपभोग या दान की योजना व्यक्ति के विचार में स्पष्ट होनी चाहिए । धनोपार्जन एवं तत्पश्चात् उसका संचय बिना विचार के निरर्थक है । बिना योजना के संचित वह धन न तो व्यक्ति के भोग में खर्च होगा और न ही दान में । नीतिकार ने मधुमक्खियों का उदाहरण देकर यह कहना चाहा है कि संचित धन देर-सबेर दूसरों के पास चला जाना है । मधुमक्खियों का दृष्टांत कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण है । वे बेचारी तो शहद का संचय भविष्य में अंडों से निकले लारवाओं के लिए जमा करती हैं, जिनके विकसित होने में वह शहद भोज्य पदार्थ का कार्य करता है । यह प्रकृति द्वारा निर्धारित सुनियोजित प्रक्रिया है । किंतु उस शहद को मनुष्य अथवा अन्य जीवधारी लूट ले जाते हैं । मनुष्य के संचित धन को भले ही कोई खुल्लमखुल्ला न लूटे, फिर भी वह दूसरों के हाथ जाना ही जाना है, यदि उसे भोग या दान में न खर्चा जाए । कैसे, यह आगे स्पष्ट किया जा रहा है ।

दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति ॥

(दानम्, भोगम्, नाशः, तिस्रः गतयः भवन्ति वित्तस्य, यः न ददाति, न भुङ्क्ते, तस्य तृतिया गतिः भवति ।)

अर्थः धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है । पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश । जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है ।

इस स्थल पर धन के ‘नाश’ शब्द की व्याख्या आवश्यक है । मेरा मानना है कि धन किसी प्रयोजन के लिए ही अर्जित किया जाना चाहिए । अगर कोई प्रयोजन ही न हो तो वह धन बेकार है । जीवन भर ऐसे धन का उपार्जन करके, उसका संचय करके और अंत तक उसकी रक्षा करते हुए व्यक्ति जब दिवंगत हो जाए तब वह धन नष्ट कहा जाना चाहिए । वह किसके काम आ रहा है, किसी के सार्थक काम में आ रहा है कि नहीं, ये बातें यह उस दिवंगत व्यक्ति के लिए कोई माने नहीं रखती हैं ।

अवश्य ही कुछ जन यह तर्क पेश करेंगे कि वह धन दिवंगत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों के काम आएगा । तब मोटे तौर पर मैं दो स्थितियों की कल्पना करता हूं । पहली तो यह कि वे उत्तराधिकारी स्वयं धनोपार्जन में समर्थ और पर्याप्त से अधिक स्व्यमेव अर्जित संपदा का भरपूर भोग एवं दान नहीं कर पा रहे हों । तब भला वे पितरों की छोड़ी संपदा का ही क्या सदुपयोग कर पायेंगे ? उनके लिए भी वह संपदा अर्थहीन सिद्ध हो जाएगी । दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि वे उत्तराधिकारी स्वयं अयोग्य सिद्ध हो जाए और पुरखों की छोड़ी संपदा पर निर्भर करते हुए उसी के सहारे जीवन निर्वाह करें । उनमें कदाचित् यह सोच पैदा हो कि जब पुरखों ने हमारे लिए धन-संपदा छोड़ी ही है तो हम क्यों चिंता करें । सच पूछें तो इस प्रकार की कोई भी स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण एवं कष्टप्रद होगी । कोई नहीं चाहेगा कि ऐसी नौबत पैदा हो । तब अकर्मण्य वारिसों के हाथ में पहुंची संपदा नष्ट ही हो रही है यही कहा जाएगा । एक उक्ति है: “पूत सपूत का धन संचय, पूत कपूत का धन संचय ।” जिसका भावार्थ यही है कि सुपुत्र (तात्पर्य योग्य संतान से है) के लिए धन संचय अनावश्यक है, और कुपुत्र (अयोग्य संतान) के लिए भी ऐसा धन छोड़ जाना अंततः व्यर्थ सिद्ध होना है ।

कुल मिलाकर पंचतंत्र के रचयिता के मतानुसार धन का भोग और दान करने के बजाय महज उसका संचय करते रहना उसके नाश के तुल्य ही है । – योगेन्द्र जोशी

हितोपदेश के नीतिवचन: एक, विद्या की महत्ता

नीतिवचनों से सुसंपन्न साहित्य संस्कृत भाषा में प्रचुरता से उपलब्ध है । रामायण, महाभारत तथा विभिन्न पुराणों में नीति संबंधी बातों का उल्लेख बहुतायत में दिखाई देता है । किंतु बच्चों-किशोरों के लिए सुग्राह्य रूप में उपयोगी बातों के लिए पंडित विष्णुशर्मा द्वारा रचित ‘पंचतंत्र’ सर्वाधिक चर्चित है । इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें नीति और बुद्धिमत्ता की बातें उन कथाओं के माध्यम से कही गयी हैं जिनके पात्र पश-पक्षी रहे हैं । पंचपंत्र से कुछ कम विख्यात और कुछ छोटा और अपेक्षया सरल एक और ग्रंथ उपलब्ध है ‘हितोपदेश’ । इसमें भी कथाओं के पात्र पश-पक्षी ही हैं ।

मेरे पास ‘हितोपदेश’ की चौखंबा संस्कृत प्रतिष्ठान के द्वारा प्रकाशित प्रति है, जिसके अनुसार इस ग्रंथ के रचयिता श्री नारायण पंडित थे । लेकिन ग्रंथ के रचनाकाल का उल्लेख नहीं है किया गया है । आगे यह भी कहा गया है कि ग्रंथ वस्तुतः मौलिक नहीं है, बल्कि उसे अन्य संस्कृत ग्रंथों, विशेषतया पंचतंत्र, से विविध सामग्री जुटाकर रचा गया था । ग्रंथ के आरंभिक दो श्लोकों में भगवान् शिव की प्रार्थना और ग्रंथ के महत्त्व का उल्लेख है । तत्पश्चात् तीसरे से आठवें श्लोकों में विद्या की अर्थवत्ता की बातें कही गयी हैं । नौवें में यह स्पष्ट किया गया है कि ग्रंथ पंचतंत्र तथा अन्य स्थलों से जुटाई गयी जानकारी पर आधारित है । बाद में एक राजा तथा उसके मूर्ख संतानों के उल्लेख के साथ विभिन्न कथाएं एक सूत्र में पिरोई गयी हैं ।

मैं यहां पर विद्या की महत्ता को दर्शाने वाले तीसरे एवं चौथे श्लोकों का उल्लेख कर रहा हूं:

अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ।।

(हितोपदेश, श्लोक ३)

{प्राज्ञः अजर(वत्) अमरवत् (च) विद्याम् अर्थं च चिन्तयेत् (तथा च) मृत्युना केशेषु गृहीतः इव धर्मम् आचरेत् ।}

सूझबूझ वाला मनुष्य विद्या एवं धन अर्जित करने का विचार यूं करे जैसे कि वह बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्त हो । किंतु साथ में धर्माचरण भी यूं करे जैसे कि काल उसके बाल पकड़कर बैठा हो और कभी भी उसे इहलोक से उठा सकता हो । तात्पर्य यह है कि मृत्यु अवश्यंभावी है, और कभी भी आ सकती है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए धर्मकर्म में संलग्न रहे । फिर भी काल के भय से पुरुषार्थ करना न छोड़े, और जब तक जीवन है वह विद्या तथा धन के लिए प्रयत्नशील रहे ।

सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्घत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ।।

(हितोपदेश, श्लोक ४)

{(विद्वज्जनाः) सर्वदा अहार्यत्वात् अनर्घत्वात् अक्षयत्वात् च सर्वे(षु) द्रव्येषु विद्या एव अनुत्तमम् द्रव्यम् (अस्ति इति) आहुः ।}

विद्वान् लोग कभी न चुराये जाने, अनमोल होने तथा कभी क्षय न होने के कारणों से सभी द्रव्यों, यानी सुख-संपदा-संतुष्टि के आधारों, में से विद्या को ही सर्वोत्तम होने की बात करते हैं । वस्तुतः विद्या है तो बहुत कुछ संभव है यह बात बुद्धिमान लोग सदा से ही कहते आये हैं । विद्याहीन मनुष्य कई मानों में निरर्थक जीवन जीता है यह बात मानी ही जाती है ।
– योगेन्द्र

पञ्चतन्त्र नीतिवचन: आसन्नमेव नृपतिर्भजते …

पञ्चतन्त्र की कथाएं सुविख्यात हैं । इसकी अधिकतर कथाओं में कथाकार विष्णुदत्त शर्मा ने पशुपात्रों को शामिल किया है और उन्हीं के मुख से नीति-विषयक बहुत-सी बातें कहलवायी हैं, जो वस्तुतः मानव समाज के लिए ही अर्थपूर्ण हैं । इन कथाओं में एक स्थल पर इस श्लोक का उल्लेख हैः

आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं विद्याविहीनमकुलीनमसंस्कृतं वा ।
प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च यत्पार्श्वतो भवति तत्परिवेष्टयन्ति ।।

(पञ्चतन्त्र, प्रथम तन्त्र, 36)

इस श्लोक के अर्थ कुछ यूं दिये जा सकते है: राजा अपने निकटस्थ मनुष्य को ही महत्त्व देता है, भले ही वह विद्याविहीन हो, कुलीन न हो, अथवा सुसंस्कृत न हो । प्रायः होता यह है कि राजा, स्त्री एवं लता अपने निकट जो होता है उसी का परिवेष्टन करते हैं (यानी उसी से लिपटते या उसका आश्रय लेते हैं) ।

कुलीन का शाब्दिक अर्थ होता है अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति । पर व्यापक अर्थ में उस व्यक्ति को कुलीन कहा जायेगा जिसमें श्रेष्ठ गुण हों, अच्छे संस्कार पड़े हों । सुसंस्कृत वह व्यक्ति है जो शिष्ट व्यवहार करे, जो अपने मतभेद को भी रोषपूर्ण शब्दों में व्यक्त न करे और दूसरों के प्रति आदरभाव रखे ।

आज के युग में राजा का मतलब उस व्यक्ति से है जो किसी व्यवस्था के शीर्ष पर हो । ऐसा व्यक्ति जिन लोगों से घिरा रहता है उन्हीं की सुनता है, उनकी योग्यता का समुचित मूल्यांकन किये बिना । ये लोग आम तौर पर चाटुकार होते हैं । अगर आप राजा तक पहुंच बना लें तो वह आपकी सुनेगा न कि औरों की । यह बात व्यवहार में हम सभी देखते आ रहे हैं ।

यह भी सत्य है कि वानस्पतिक लता अपने निकट के पेड़ से लिपटकर ही आगे चढ़ती है । परन्तु स्त्रियों के लिए श्लोक में कही गयी बात कितनी सटीक है कहना मुश्किल है । स्त्री को प्रमदा कहा गया है, विशेषतः तरुणी को । कदाचित् हर स्त्री के लिए प्रमदा संबोधन ठीक नहीं होगा । इस शब्द का संबंध मद से है और संभव है कि प्रमदा वह स्त्री हो जो अपने मदमाते व्यवहार से पुरुषों को अपनी ओर खींचे और तत्पश्चात् उन्हीं का आश्रय ले या उन पर निर्भर हो जाये । यूं यह भी कुछ हद तक सही है कि जिस पुरूष के संपर्क में वे आती हैं उसका स्थायी आश्रय पाने का प्रयास वे प्रायः करती हैं । – योगेन्द