महाभारत महाकाव्य में मूषक एवं विडाल की अल्पकालिक मित्रता की कथा

निकट भविष्य में देश में लोकसभा चुनाव होने हैं। अपने-अपने हित साधने या अस्तित्व बचाने के लिए राजनैतिक दल मेल-बेमेल गठबंधन बनाने में जुटे हैं। बेमेल गठबंधनों को देखने पर मुझे महाकाव्य महाभारत (शान्ति पर्व, अध्याय १३८) में वर्णित विडाल (बिलाव) एवं मूषक (मूस) की अल्पकालिक मित्रता की एक कथा याद आ रही है। उसी कथा से संबंधित कुछएक नीतिवचनों का उल्लेख यहां पर कर रहा हूं।

 

संक्षेप में कथा कुछ इस प्रकार है — किसी वन में एक विशाल पेड़ था, जिसके जड़ के पास एक मूस (बड़े आकार का चूहा) बिल बनाकर रहता था। उसी पेड़ पर एक बिलाव (बिल्ला) भी रहा करता था। बिल्ले से बचते हुए मूस बिल के बाहर भोजन की तलाश में निकला करता था।

एक बार एक बहेलिये ने पेड़ के पास जाल बिछा दिया, जंगली जानवरों एवं पक्षियों को फंसाकर कब्जे में लेने के लिए। उसका इरादा दूसरे दिन प्रातः आकर उन पशु-पक्षियों को ले जाने का था जो जाल में फंसे हों। दुर्भाग्य से वह बिलाव जाल में फंस गया। उसे जाल में फंसा देख चूहा आश्वस्त हो गया और निर्भय होकर इधर-उधर भोजन तलाशने लगा। कुछ देर में उसे एक नेवला दिखाई दिया जो उस मूस की गंध पाकर उस स्थान के आसपास पहुंचा और उसे मारने के लिए मौके का इंतिजार करने लगा। मूस को पेड़ की एक डाल पर बैठा हुआ एक और दुश्मन उल्लू भी नजर आया। मूस को तीन-तीन शत्रु आसपास नजर आए।

वस्तुस्थिति को देख उसने सोचा, “अपने बिल की ओर जाना अभी मेरे लिए सुरक्षित नहीं है। तीनों शत्रुओं में मेरा सबसे बड़ा शत्रु, जिससे शेष दो भी दूरी बनाए रखते हैं, जाल में फंसा असहाय है। अपनी खुद की विवशता देख मुझे मारने का प्रयास नहीं करेगा। अतः उसी के सान्निध्य में पहुंचकर अपने को सुरक्षित रखना बुद्धिमत्ता होगी। उसकी सुरक्षा का आश्वासन देकर मैं स्वयं उसका विश्वास पा सकता हूं।”

उसने बिल्ले के पास जाकर कहा, “मित्र बिडाल, आप इस समय आपत्ति में फंसे हैं। जाल काटकर मैं आपकी सहायता कर सकता हूं, बशर्ते आप मेरी सुरक्षा के लिए बचनबद्ध होवें।”

बिल्ले ने कहा, “ठीक है मुझे मंजूर है। परन्तु मुझे करना क्या है?”

“आप मुझे अपने संरक्षण में ले लें ताकि मैं सुरक्षित रात बिता सकूं। मैं आपको वचन देता हूं कि प्रातः बहेलिये के आने तक मैं आपको पाश-मुक्त कर दूंगा।” मूस ने कहा।

बिल्ले ने उसकी बात मान ली। उसने समझ लिया था कि उस परिस्थिति में कोई उसे बचाने नहीं आने वाला। मूस ही उसका हित साध सकता था, इसलिए उसकी बात मानना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। इसके बाद वह बीच-बीच में मूस को उसके वचन की याद दिलाता और पूछता कि वह कब उसके बंधन काटेगा। प्रातःकाल होते-होते मूस ने जाल के कई तंतुओं को काट लिए, लेकिन कुछ बंधन जानबूझकर छोड़े रखा।

बिल्ला उसको याद दिला रहा था कि जब उन दोनों ने परस्पर मित्रता कर ली है तो वह जाल के बंधन काटकर उसे मुक्त क्यों नहीं कर रहा है। तब मूस ने बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए बिल्ले को ये नीतिवचन सुनाए:

न कश्चित्कस्यचिन्मित्रं न कश्चित्‍कस्यचिद्‍ रिपु: ।

अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥११०॥

(महाभारत, शान्तिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व, अध्याय १३८)

(कश्चित् कस्यचित् मित्रम् न, कश्चित् कस्यचित् रिपु: न, मित्राणि तथा रिपवः अर्थत: तु निबध्यन्ते ।)

अर्थ – न कोई किसी का मित्र होता है और न ही शत्रु। अपने-अपने स्वार्थवश ही मित्र तथा शत्रु परस्पर जुड़ते हैं। [वैकल्पिक अर्थ – मनुष्य से जुड़ते हैं।]

और

शत्रुरूपा हि सुहृदो मित्ररूपाश्च शत्रवः ।

संधितास्ते न बुध्यन्ते कामक्रोधवशं गताः ॥१३८॥

(यथा उपर्युक्त)

(सुहृदः शत्रुरूपाः हि शत्रवः च मित्ररूपाः, संधिताः ते काम-क्रोध-वशं गताः न बुध्यन्ते ।)

अर्थ – परिस्थिति के अनुरूप सुहृज्जन भी शत्रुरूप धारण कर लेते हैं (शत्रु बन जाते हैं) और शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। परस्पर संधि (समझौते) से जुड़े होने पर भी काम (प्रबल इच्छा) एवं क्रोध के वशीभूत होने पर (उनके व्यवहार से) समझ में नहीं आता कि वे शत्रु हैं या मित्र?

उक्त दो छंदों के माध्यम से चूहे ने यह स्पष्ट किया कि मित्रता एवं शत्रुता का आधार स्वार्थ होता है। फलतः परिस्थितियां बदल जाने पर मित्रता-शत्रुता के भाव भी बदल जाते हैं। परस्पर मित्रता से बंधे होने पर भी जब व्यक्ति के मन में प्रबल इच्छा-भाव जगता है या उसे आक्रोश घेर लेता है मित्रता का विचार बदल जाता है।

मूस के कहने का मंतव्य यह है कि जब दो जने मित्रता में बंधे होते हैं तब भी विपरीत परिस्थिति पैदा हो जाने पर अपनी प्रबल इच्छा अथवा गुस्सा के वशीभूत होने पर वे मित्रता का भी ध्यान खो बैठते हैं। उसने स्पष्ट संकेत बिल्ले को दिया कि यदि वह जाल से मुक्त हो गया तो वह मित्रता का वचन भुला सकता है और उसी (मूस) पर हमला कर सकता है। इसलिए वह उसे (बिल्ले को) को मुक्त करने को उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करेगा।

आगे मूस इस तथ्य की ओर ध्यान खींचता है कि

नास्ति मैत्री स्थिरा नाम न च ध्रुवमसौहृदम् ।

अर्थयुक्त्यानुजायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥१४१॥

(यथा उपर्युक्त)

(मैत्री नाम स्थिरा न अस्ति, असौहृदम् च न ध्रुवम्, मित्राणि तथा रिपवः अर्थ-युक्त्या अनुजायन्ते ।)

अर्थ – अवश्य ही मित्रता स्थायी नहीं होती और विद्वेष भी स्थायी नहीं होता। स्वार्थ से(अर्थात् अपने-अपने हित साधने के लिए) ही लोग मित्र एवं शत्रु बनते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि मित्रता एवं शत्रुता मौके-मौके की बातें है। जब व्यक्ति को किसी से अपने स्वार्थ सिद्ध करने हों तो वह मित्रता कर लेता है। किन्तु जब उनके हित टकराने लगते हैं तो वह व्यक्ति शत्रुता पर उतर आता है। उसने बिलाव को याद दिलाया कि उन दोनों की मित्रता अस्थायी है और कभी भी टूट सकती है।

मूस के अनुसार हमारे सामाजिक रिश्ते दरअसल स्थार्थ्यजनित ही होते हैं जैसा अगले छंद में कहा गया है:

अर्थयुक्त्या हि जायन्ते पिता माता सुतस्तथा ।

मातुला भागिनेयाश्च तथासम्बन्धिबान्धवाः ॥१४५॥

(यथा उपर्युक्त)

(पिता माता सुत: तथा च मातुलाः भागिनेया: तथा सम्बन्धि-बान्धवाः अर्थ-युक्त्या हि जायन्ते ।)

अर्थ – माता, पिता, पुत्र, मामा, भांजा इत्यादि संबंधी एवं बंधुबान्धव आदि के परस्पर संबंध स्वार्थ के कारण बनते हैं।

स्वार्थ में कितनी शक्ति है यह अगले नीति-छंद से स्पष्ट होता है:

पुत्रं हि मातापितरौ त्यजतः पतितं प्रियम् ।

लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम् ॥१४६॥
(यथा उपर्युक्त)

(पतितम् प्रियम् पुत्रं हि माता-पितरौ त्यजतः, लोक: रक्षति च आत्मानम् स्वार्थस्य सारताम् पश्य ।)

अर्थ –मार्गभ्रष्ट (चारित्रिक तौर से गिरे) पुत्र (संतान) को माता-पिता भी त्याग देते हैं। निश्चय ही मनुष्य पहले अपनी रक्षा करता है। देखो स्वार्थ का सार इसी तथ्य में निहित है।

अर्थात् यदि संतान के कारण अपनी प्रतिष्ठा गिरने का डर हो तब माता-पिता भी उसका बहिष्कार कर डालते हैं। ऐसा कुछ आज के समाज में देखने को कम ही मिलता है। इस युग में बहिष्कार-योग्य व्यक्ति का बचाव करने माता-पिता ही नहीं अपितु संबंधी, परिचित, मित्र आदि भी मैदान में कूद पड़ते हैं। शायद प्राचीन काल में कभी स्थिति भिन्न रही होगी।

इन नीति-वचनों के द्वारा मूस स्पष्ट कर देता है कि वह बिलाव की मित्रता के प्रति पूर्णतः आश्वस्त नहीं हो सकता है।

इस कथा का अंत इस प्रकार है — प्रातःकाल मूस एवं बिलाव बहेलिये को निकट आता हुए दिखते हैं। तब सही क्षण पर मूस अपना वचन निभाते हुए जाल के शेष बंधन काटकर बिलाव को बंधन-मुक्त कर देता है और तेजी से अपने बिल की ओर भाग जाता है। बिलाव भी बहेलिए को पास आ चुका देखकर पेड़ की ओर भागकर उसमें चढ़ जाता है। इसके साथ ही उन दोनों के बीच की अल्पकालिक मित्रता समाप्त हो जाती है।

इस स्थल पर एक टिप्पणी करना समीचीन होगा। प्राचीन संस्कृत साहित्य में शिक्षाप्रद संदेश देने के ऐसे दृष्टांत देखने को मिल जाते हैं जिनमें पशु-पक्षियों को पात्रों के तौर पर प्रयोग में लिया गया हो। पंचतंत्र एवं हितोपदेश ऐसी शैली या परंपरा के सुविख्यात उदाहरण हैं। महाभारत महाकाव्य ग्रंथ में भी किसी-किसी स्थल पर पशु-पक्षियों के माध्यम से दिए गए नीति संदेश पढ़ने को मिल जाते हैं। इस विधि से दिए गए नीति-संदेश मनोरंजक होते हैं न कि शुष्क एवं उबाऊ। – योगेन्द्र जोशी

“न विश्वसेत् अविश्वस्ते …” – पंचतंत्र में वर्णित कौवे एवं चूहे की नीतिकथा

पंचतंत्र के नीतिवचनों पर आधारित अपनी 7 फरवरी 2010 की पोस्ट में मैंने ग्रंथ का संक्षिप्त और एक प्रकार से अधूरा परिचय दिया था। उसके बारे में इस स्थल पर विस्तार से बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी इतना कहना चाहूंगा कि इसमें व्यावहारिक जीवन से संबंधित सार्थक नीति की तमाम बातें कथाओं के माध्यम से समझाई गयी हैं । इन कथाओं में अधिकतर पात्र मनुष्येतर प्राणी यथा लोमड़ी, शेर, बैल, कौआ आदि हैं। कथाएं आपस में शृंखलाबद्ध तरीके जुड़ी हुई हैं अर्थात्‍ एक कथा में दूसरी कथा और उसमें तीसरी आदि के क्रम से कथाओं का बखान किया गया है। उक्त ग्रंथ पांच खंडों में विभक्त है जिन्हें “तंत्र” पुकारा गया है। ये हैं:

1. मित्रभेदः, 2. मित्रसंप्राप्तिः, 3. काकोलूकीयम्, 4. लब्धप्रणाशम्, एवं 5. अपरीक्षितकारकम् ।

प्रत्येक तंत्र में किसी एक प्रकार की विषयवस्तु लेकर कथाएं रची गई हैं, जैसे मित्रभेदः में वे कथाएं हैं जो दिखाती हैं कि किस प्रकार प्रगाढ़ मित्रों के बीच फूट डालकर अपना हित साधा जा सकता है। इसी प्रकार अंतिम तंत्र अपरीक्षितकारकम्‍ में वे कथाएं हैं जो दर्शाती हैं कि समुचित सोचविचार के बिना किया जाने वाला कार्य कैसे घातक हो सकता है।

पंचतन्त्र का आरंभ कुछ यों होता है: सुना जाता है कि दक्षिण देश में महिलारोप्य नामक नगर हुआ करता था। वहां अमरशक्ति नाम के हर प्रकार से योग्य राजा शासन करते थे। उनके तीन पुत्र थे जिनके नाम क्रमश: बहुशक्ति, उग्रशक्ति तथा अनंतशक्ति थे। कुबुद्धि प्रकार के वे तीनों राजपुत्र शास्त्रादि के अध्ययन में बिल्कुल भी रुचि नहीं लेते थे। राजा उनके बारे में सोच-सोचकर दुःखी रहते थे। उन्होंने एक बार अपने मन के बोझ की बात मंत्रियों के सामने रखते हुए राजपुत्रों को विवेकशील एवं शिक्षित बनाने के उपाय के बारे में पूछा। सोचविचार के बाद मंत्रियों ने उन्हें बताया कि शास्त्रों एवं अनेक विद्याओं के ज्ञाता एक ब्राह्मण राज्य में हैं। उन्हीं के संरक्षण में राजपुत्रों को सौंप दिया जाए। ब्राह्मण ने राजपुत्रों को सुधारने का जिम्मा ले लिया इस शर्त के साथ कि वे छः महीने तक उनके साथ रहेंगे और राजा या अन्य कोई उनके कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगा। ये ब्राह्मण स्वयं पंचतंत्र ग्रंथ के रचयिता विष्णुशर्मा थे। माना जा सकता है कि विष्णुशर्मा ने सरल, रोचक, एवं शिक्षाप्रद कथाओं के माध्यम से राजपुत्रों में विद्याध्ययन के प्रति रुचि जगाई।

मैं यहां पर उक्त ग्रंथ की एक कथा प्रस्तुत करते हुए नीतिप्रद श्लोकों का उल्लेख कर रहा हूं।

एक बार एक बहेलिये ने पक्षियों को पकड़ने के लिए जंगल में चारा डालते हुए जाल फैला दिया। कुछ समय बाद कबूतरों का एक झुंड उधर आया और वहां पड़े चारे को खाने के लिए लालायित हुआ। कबूतरों के मुखिया/राजा, चित्रग्रीव, ने झुंड के सदस्यों से कहा, “इतना सारा चारा यहां पर कैसे और कहां से आया होगा यह सोचने की बात है। अवश्य ही कुछ रहस्य है और हमें इससे बचना चाहिए।”

झुंड के सदस्यों ने कहा, “आप यों ही सशंकित हो रहे हैं। इसे चुगने पर कोई खतरा नहीं होगा।” और वे सभी नीचे उतर गए और जाल में फंस गए।

स्वयं को विपत्ति में पड़ा हुआ पाने पर कतोतराज चित्रग्रीव ने शेष कबूतरों से कहा, “तुम लोग धैर्य से काम लेना। अब हम एक कार्य कर सकते हैं। जाल समेत यहां से उड़ चलें और हिरण्यक नामक मेरे घनिष्ठ मित्र चूहे के पास पहुंचें। वह जंगल ही में एक पेड़ के जड़ के पास बने बिल में रहता है।”

उस पेड़ के पास पहुंचने पर चित्रग्रीव ने मित्र हिरण्यक चूहे को मदद के लिए पुकारा। हिरण्यक ने जानी-पहचानी सी आवाज सुनी तो उसने बिल के अंदर से ही पूछा, “कौन है बाहर मुझे पुकारने वाला? नाम-पता तो बताओ।”

चित्रग्रीव ने जवाब दिया, “भाई, मैं हूं तुम्हारा मित्र कपोतराज चित्रग्रीव। मैं विपत्ति में फंस गया हूं, इसलिए शीघ्र मेरी मदद करो।”

हिरण्यक ने बिल से बाहर निकलने पर देखा कि उसका मित्र अपने साथी कबूतरों के  साथ जाल में फंसा हुआ है। वह शीघ्र चित्रग्रीव के पास पहुंचा और उसके बंधन काटने लगा। कपोतराज ने उसे मना किया और कहा, “पहले इनके बंधन काटो और अंत में मेरे।”

हिरण्यक ने आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा, “पहले तुम्हें मुक्त होना चाहिए। बाद में देर हो जाए, या मैं थक जाऊं, अथवा मेरे दांत टूट जाएं तो तुम्हें मुक्त करना संभव नहीं हो पाएगा।”

“मैं इन सब का मुखिया हूं, राजा हूं। मेरा कर्तव्य है कि पहले प्रजा का हित साधूं न कि अपना। मुझे त्याग करना पड़े तो कोई बात नहीं; इनकी मुक्ति पहले होनी चाहिए।” कपोतराज ने उत्तर दिया।

हिरण्यक ने सहमति जताते हुए कहा, “मित्र, मैं तो देखना चाहता था कि तुम राजा के तौर पर कितने स्वार्थी हो। मुझे विश्वास था ही तुम योग्य राजा के अनुरूप ही निर्णय लोगे।” और उसने तेजी से उन सभी के बंधन काट डाले। तब दोनों मित्रों के बीच कर्तव्याकर्तव्य और कुशलक्षेम की संक्षिप्त बातें हुई और अंत में चित्रग्रीव ने हिरण्यक के प्रति आभार प्रकट करते हुए विदा ली। हिरण्यक भी सतर्क अपने बिल में सुरक्षित चला गया।

उसी पेड़ की एक डाली पर लघुपतनक नामक एक कौआ भी रहता था। वह उस घटना को देख रहा था और दोनों के बीच हुए वार्तालाप को ध्यान से सुन रहा था। चूहे हिरण्यक की विद्वतापूर्ण बातें उसे खूब भाईं और उसे लगा कि उससे मित्रता की जानी चाहिए। तब वह बिल के पास आकर बोला, “अरे हिरण्यक भाई, बाहर आओ, मैं भी तुमसे मित्रता करना चाहता हूं।”

हिरण्यक ने उससे उसका परिचय जानना चाहा। उस कौवे ने बताया कि वह लघुपतनक नाम का कौआ है जो उसी पेड़ पर रहता है। अपने बिल में सुरक्षित टिके हुए  हाजिरजवाब हिरण्यक ने आपत्ति जाहिर की, “अरे काक लघुपतनक, तुम्हारे-मेरे मध्य मित्रता कैसे संभव है? मेरी प्रजाति तो तुम्हारी प्रजाति के लिए भक्ष्य है। मैं शिकार और तुम शिकारी। मैं तो तुम्हारी मौजूदगी में बिल के बाहर भी निकलने की हिम्मत नहीं सकता, दोस्ती तो बहुत दूर की बात है।”

हिरण्यक ने बिल के अंदर से ही लघुपतनक से कहा कि परस्पर संबंध स्थापित करते समय दो जनों को अधोलिखित नीति-श्लोक पर ध्यान देना चाहिए:

ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् ।

तयोर्मैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥२९॥

(पञ्चतंत्र, द्वितीय तंत्र मित्रसंप्राप्ति)

(ययोः एव समम् वित्तम् ययोः एव समम् कुलम् तयोः मैत्री विवाहः च न तु पुष्ट-विपुष्टयोः ।)

शब्दार्थ – जिनका (दो व्यक्तियों का) समान वित्त हो, जिनका कुल समान हो, उन्हीं में परस्पर मित्रता एवं विवाह ठीक है न कि सक्षम एवं असक्षम के बीच।

अर्थात् दो जनों के मध्य यारी-दोस्ती और वैवाहिक संबंध तभी स्थापित होने चाहिए जब वे समकक्ष कुलों से जुड़े हों और उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में समानता हो। जहां दोनों के बीच आर्थिक असमानता हो या दोनों की सामाजिक प्रतिष्ठा के स्तर में अंतर हो वहां संबंध नहीं बनाए जाने चाहिए।

इसके आगे भी हिरण्यक समझाया:

यो मित्रं कुरुते मूढ आत्मनोऽसदृशं कुधीः ।

हीनं वाप्यधिकं वापि हास्यतां यात्यसौ जनः ॥३०॥

(यथा उपर्युक्त)

यः मित्रम् कुरुते मूढः आत्मनः असदृशम् कुधीः हीनम् वा अपि अधिकम् वा अपि हास्यताम् याति असौ जनः ।)

शब्दार्थ – जो कुबुद्धि अपने असमान, अपने से हीनतर हो अथवा श्रेष्ठतर, के साथ मित्रता करता है वह जगहंसाई का पात्र बन जाता है।

जो व्यक्ति अपने से सर्वथा भिन्न आर्थिक अथवा सामाजिक स्तर के व्यक्ति के साथ मित्रता अथवा पारिवारिक संबंध स्थापित करता है वह मूर्ख कहा जाएगा। ऐसा व्यक्ति अपने से श्रेष्टतर स्थिति वाले व्यक्ति द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता है। मानव समाज में ऐसा सदैव नहीं देखने को मिलता है जहां दो, विशेषतः जब जने वैचारिक कारणों से मित्र बनते हैं। किंतु वैवाहिक मामलों में यह काफी हद तक सही है। हीनतर स्थिति वाले व्यक्ति का कभी-कभी स्पष्ट तौर पर तिरस्कार होता है। ऐसी संभावनाओं के कारण ही बराबरी के रिश्ते को उचित माना जाता है।

नीति की इस प्रकार की बातों से लघुपतनक हिरण्यक से बहुत प्रभावित हुआ। उसने समझाने की कोशिश की, “मैं तुम्हें धोखा देने के विचार से मित्रता की बात नहीं करता। मैं वास्तव में गंभीर हूं क्योंकि मैं तुमसे विद्वता की बातें सुनना चाहता हूं, तुम्हारे साथ विचारों का आदान-प्रदान करना चाहता हूं। तुम मेरा विश्वास करो।”

विश्वास की बात पर हिरण्यक ने उत्तर दिया:

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत् ।

विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृतन्ति ॥४४॥

(यथा उपर्युक्त)

(न विश्वसेत् अविश्वस्ते विश्वस्ते अपि न विश्वसेत् विश्वासात् भयम् उत्पन्नम् मूलानि अपि निकृतन्ति ।)

शब्दार्थ – अविश्वसनीय व्यक्ति का तो विश्वास न ही करे और विश्वसनीय पर भी विश्वास न करे। विश्वास करने पर जो संकट पैदा होता है वह जड़ों को भी काट डालता है। तात्पर्य यह कि अपने विश्वस्त पर भी पूरा विश्वास नहीं ही होना चाहिए क्योंकि वह भी धोखा दे सकता है।

न वध्यते ह्यविश्वस्तो दुर्बलोऽपि बलोत्कटैः ।

विश्वस्ताश्चाशु बध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः ॥४५॥

(यथा उपर्युक्त)

(न वध्यते हि अविश्वस्तः दुर्बलः अपि बल-उत्कटैः विश्वस्ताः च आशु बध्यन्ते बलवन्तः अपि दुर्बलैः ।)

शब्दार्थ – विश्वास न हो जिसे (अविश्वस्त) ऐसा दुर्बल व्यक्ति बलशाली द्वारा भी नहीं मारा जाता है। विश्वस्त व्यक्ति तो दुर्बल के द्वारा भी शीघ्र मारा जाता है।

इन दो छंदों का उल्लेख अपनी टिप्पणी के साथ मैंने २०१० की एक प्रविष्टि (७ फरवरी) में किया है। अतः यहां पर उस टिप्पणी का पुनरुल्लेख नहीं कर रहा हूं।

टिप्पणी – उपर्युक्त छंद ४४ में द्वितीय चरण का पाठ “विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत्” है। मेरे पास पंचतंत्र की चौखंबा विद्याभवन द्वारा प्रकाशित (वाराणसी, १९९४) की प्रति है। उसमें यही पाठ है। मुझे लगता है कि इसके बदले “विश्वस्ते नाति विश्वसेत्” होता तो अधिक उपयुक्त होता। उस स्थिति में उसका अर्थ अधिक स्वीकार्य होता। अर्थ होता “विश्वस्त व्यक्ति पर भी अधिक विश्वास नही करना चाहिए।” यानी उस पर भी थोड़ी-बहुत शंका बनी रहनी चाहिए। हो सकता है किसी अन्य संस्करण में ऐसा ही हो।

हिरण्यक को विश्वास दिलाने का लघुपतनक ने काफी प्रयास किया । उसने, “ठीक है, तुम्हें विश्वास नहीं होता कि मैं तुम्हें हानि नहीं पहुंचाऊंगा। तुम मित्रता न करो न सही। फिर भी अपने बिल में सुरक्षित अनुभव करते हुए मुझसे बातें तो कर ही सकते हो। मैं रोज तुम्हारी पांडित्य भरी बातें सुनने आया करूंगा, इतना तो कर सकते हो न?”

हिरण्यक ने उसकी बात मान ली। इसके बाद उन दोनों के बीच प्रायः प्रतिदिन मुलाकातें होने लगीं, पहला बिल के अंदर मुहाने पर सुरक्षित और दूसरा बिल के बाहर। दोनों के बीच विविध विषयों पर वार्तालापों का सिलसिला चल पड़ा । हिरण्यक के मन में शनैः-शनैः लघुपतनक के प्रति विश्वास एवं लगाव जगने लगा। लघुपत्तनक दिन के समय बीन-बटोर कर लाई गईं भोज्य वस्तुएं हिरण्यक को भेंट करने लगा और इसी प्रकार हिरण्यक भी रात में खोज-बीन कर लाईं चीजें लघुपतनक को खिलाने लगा। इस प्रकार के लंबे सान्निध्य के बाद हिरण्यक को लगने लगा कि लघुपतक उसे धोखा नहीं देगा। वह बिल के बाहर आने लगा। दोनों की मित्रता हो जाती है। साथ-साथ उठना-बैठना, खेलना-कूदना होने लगा।

यह है पंचतंत्र के दूसरे तंत्र, मित्रसंप्राप्ति, की एक कथा। उक्त कहानी यही पर खत्म नहीं होती। कथा के दोनों पात्र मित्र बन जाते हैं कालांतर में वे उस स्थान को छोड़कर एक नए मित्र कछुए के पास पहुंचते हैं और वहां जुड़ती है एक और कथा। और यह सिलसिला आगे बढ़ता है। – योगेन्द्र जोशी

“धनिनां परोऽपि स्वजनायते” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (2)

संस्कृत नीतिग्रंथ पंचतंत्र के एक प्रकरण में इस बात का वर्णन मिलता है कि मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा का बहुत महत्त्व है । उक्त तथ्य से संबंधित तीन श्लोकों का उल्लेख मैंने पिछली पोस्ट
में किया है । इस स्थल पर में तीन अन्य श्लोकों की चर्चा कर रहा हूं । ये श्लोक आगे उद्धृत हैं:

इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते ।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ॥5॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(इह लोके हि धनिनां परः अपि स्वजनायते स्वजनः अपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ।)

अर्थः इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है । और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग भी दुर्जन (बुरे अथवा दूरी बनाये रखने वाले) हो जाते हैं ।

उक्त बातें प्राचीन काल में किस हद तक सही रही होंगी यह कहना कठिन है । परंतु आज के विशुद्ध भौतिकवादी युग में ये पूरी तरह खरी उतरती हैं । बहुत कम लोग होंगे जो अपने भाई-बहनों तक के साथ मिलकर अपनी संपदा का भोग करना चाहेंगे । “हम कमाएं और वे खाएं यह भला कैसे हो सकता है ?” यह सोच सबके मन में रहती है । अतः उनसे दूरी बनाए रखने में ही उनकी संपदा परस्पर बंटने से बच सकती है । इसीलिए नीतिकार कहता है कि अगर आप अपनी धनसंपदा खो बैठते हैं तो आपके निकट संबंधी भी आपके नहीं रह जाते हैं । दूसरी ओर किसी धनी से संबंध बढ़ाने में लाभ की संभावना बनी रहती है, इसलिए लोग उसके ‘अपने’ बनने की फिराक में अक्सर देखे जाते हैं ।

अर्थेभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतस्ततः ।
प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः ॥6॥
(यथा उपर्युक्त)
(अर्थेभ्यः अपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतः ततः प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इव आपगाः ।)

अर्थः चारों तरफ से एकत्रित करके बढ़ाये गये धनसंपदा से ही विविध कार्यों का निष्पादन होता है, जैसे पर्वतों से नदियों का उद्गम होता है ।

इस कथन के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि वह जैसे भी हो, जहां से भी हो, अपनी धनसंपदा बढ़ाता जाए । जब ढेर सारा धन आपके पास इकट्ठा हो तो उस धन के माध्यम से सभी कार्य एक-एक कर संपन्न होते चले जाएंगे । “हर स्रोत से धन इकट्ठा करे” का अर्थ क्या यह समझा जाए कि आर्थिक भ्रष्टाचार भी मान्य रास्ता है ? शायद हां, तभी तो सर्वत्र भ्रष्टाचार का तांडव देखने को मिल रहा है ।

पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्यो९पि गम्यते ।
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥7॥
(यथा उपर्युक्त)
(पूज्यते यत् अपूज्यः अपि यत् अगम्यः अपि गम्यते वन्द्यते यत् अवन्द्यः अपि स प्रभावः धनस्य च ।)

अर्थः धन का प्रभाव यह होता है कि जो सम्मान के अयोग्य हो उसकी भी पूजा होती है, जो पास जाने योग्य नहीं होता है उसके पास भी जाया जाता है, जिसकी वंदना (प्रशंसा) का पात्र नहीं होता उसकी भी स्तुति होती है ।

संस्कृत में एक उक्ति है: “धनेन अकुलीनाः कुलीनाः भवन्ति धनम् अर्जयध्वम् ।” अर्थात् धन के बल पर अकुलीन जन भी कुलीन हो जाते हैं, इसलिए धनोपार्जन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि समाज में सामान्य अप्रतिष्ठित व्यक्ति ढेर-सी धनसंपदा जमा कर लेता है तो वह सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान का हकदार हो जाता है । लोग उसके आगे-पीछे घूमना शुरू कर देते हैं । इसके विपरीत प्रतिष्ठित व्यक्ति जब दुर्भाग्य से अपनी संपदा खो बैठता है तो उसे सामाजिक प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ती है । लोग उसका सम्मान करना भूलने लगते हैं, उससे मिलने से भी कतराते हैं ।

धन की महिमा वास्तव में अपरंपार है ! – योगेन्द्र जोशी

लक्ष्मण रेखा …, किंतु रामचरितमानस, महाभारत एवं रामायण में इसका उल्लेख नहीं! (चतुर्थ भाग – रामायण)

(संबंधित पिछ्ली पोस्टें: १२ मई, १३ मई एवं १९ मई)

वाल्मीकीय रामायण में सीता-रावण संवाद और तत्पश्चात् के सीताहरण का तुलसीदासकृत रामचरितमानस तथा व्यासरचित महाभारत की तुलना में अधिक विस्तृत विवरण मिलता है । संबंधित कथा संस्कृत के इस आदिकाव्य के अरण्यकांड में उपलब्ध है । सीता का लक्ष्मण द्वारा समझाये जाने और फिर उनका रावण के साथ संपन्न वार्तालाप का प्रकरण ४५वें से ४९वें सर्ग में कुल १९२ श्लोकों के माध्यम से वर्णित है । अपनी बात कहने के लिए मैं इन सर्गों के कुछ चुने हुए श्लोकों को उद्धृत कर रहा हूं । मैं यह चर्चा उस घटना के आगे से आरंभ करता हूं जब राम द्वारा वन में मारीच का वध होता है और वह ‘हा लक्ष्मण’ की पुकार लगाकर सीता को भ्रमित करता है:

आक्रन्दमानं तु वने भ्रातरं त्रातुमर्हसि ।
तं क्षिप्रमभिधाव त्वं भ्रातरं शरणैषिणम् ॥
रक्षसां वशमापन्नं सिंहानामिव गोवृषम् ।
न जगाम तथोक्तस्तु भ्रातुराज्ञाय शासनम् ॥
तमुवाच ततस्तत्र क्षुभिता जनकात्मजा ।
सौमित्रे मित्ररूपेण भ्रातुः त्वमसि शत्रुवत् ॥
यस्त्वमस्यामवस्थायां भ्रातरं नाभिपद्यसे ।
इच्छसि त्वं विनश्यन्तं रामं लक्ष्मण मत्कृते ॥

(वाल्मीकिरचित रामायण, अरण्यकाण्ड, सर्ग ४५, छन्द ३-६)

(उस समय बेचैन हो रही सीता देवर लक्ष्मण से कहती हैं) “अरे लक्ष्मण, वन में आर्त स्वर से पुकार रहे अपने भ्राता को बचाने चल पड़ो । तुम्हारी सहायता की अपेक्षा रखने वाले अपने भाई के पास शीघ्रता से जाओ । वे राक्षसों के वश में पहुंच रहे हैं जैसे कोई सांड़ सिंहों से घिर जाये ।” किंतु ऐसा कहे जाने पर भी लक्ष्मण अपने भाई के आदेश को विचारते हुए वहां से नहीं हिले । तब उस स्थल पर (लक्ष्मण की उदासीनता से) क्षुब्ध हो रहीं जनकपुत्री ने कहा “अरे सुमित्रानंदन, तुम तो मित्र के रूप में अपने भाई के शत्रु हो, जो कि तुम इस (संकट की) अवस्था में भाई के पास नहीं पहुंच रहे हो । तुम मेरे खातिर राम का नाश होते देखना चाहते हो ।”

वस्तुतः सीता ने लक्ष्मण पर यह आक्षेप लगा दिया कि तुम इस ताक में हो कि राम न रहें, ताकि मौके का लाभ उठाते हुए तुम मुझे अपनी भार्या बना सको । उन्होंने लक्ष्मण पर तरह-तरह के लांछन लगाते हुए अपशब्द कहना आरंभ किया । प्रत्युत्तर में लक्ष्मण ने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की:

अब्रवील्लक्ष्मणस्तां सीतां मृगवधूमिव ।
पन्नगासुरगन्धर्वदेवदानवराक्षसैः ॥
अशक्यस्तव वैदेही भर्ता जेतुं न संशयः ।

(पूर्वोक्त, सर्ग ४५, छन्द १०, ११ का पूर्वार्ध)
हिरणी की भांति डरी-सहमी-सी सीता को (ढाढ़स बधाते हुए) लक्ष्मण बोले, “हे विदेहनंदिनी, इसमें तनिक भी शंका नहीं है कि आपके पति श्रीराम नाग, असुर, गंधर्व, देव, दानव और राक्षसों के द्वारा भी नहीं जीते जा सकते हैं ।” (फिर क्यों इतनी चिंतित हो रही हैं ?)

राक्षसा विविधा वाचो आहरन्ति महावने ।
हिंसाविहारा वैदेहि न चिन्तयितुमर्हसि ॥
लक्ष्मणेनैवमुक्ता तु क्रुद्धा संरक्तलोचना ।
अब्रवीत्परुषं वाक्यं लक्ष्मणं सत्यवाहदनम् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४५, छन्द १९-२०)
हे वैदेही, आप चिंता न करें, इस बड़े वन में राक्षसगण, जिनका मनोरंजन ही हिंसा में निहित रहता है, नाना प्रकार की बोलियां बोलते रहते हैं । लक्ष्मण के ऐसा कहने पर क्रुद्ध तथा रक्तिम हो चुकी आंखों वाली सीता सत्यवादी लक्ष्मण को कटु शब्द कहने लगीं ।

सीता ने बहुत कुछ भला-बुरा कहा जिससे लक्ष्मण का विचलित होना स्वाभाविक था । तब न चाहते हुए भी उन्होंने राम के पास चले जाना ही उचित समझाः

ततस्तु सीतामभिवाद्य लक्ष्मणः कृताञ्जलि किञ्चिदभिप्रणम्य ।
अवेक्षमाणो बहुशः स मैथिलीं जगाम रामस्य समीपमात्मवान् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४५, छन्द ४०)
तब हाथ जोड़े हुए आत्मसंयमी लक्ष्मण ने नतमस्तक हो सीता को प्रणाम किया और उनकी ओर (चितिंत दृष्टि से) बारंबार देखते हुए वे श्रीराम के पास चले गये ।

तदासाद्य दशग्रीवः क्षिप्रमन्तराश्रितः ।
अभिचक्राम वैदेहीं परिव्राजकरूपधृक् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४६, छन्द २)
और तब संन्यासी का रूप धरे रावण को उपयुक्त अवसर मिल गया, अतः वह शीघ्रता से वैदेही सीता के पास आ पहुंचा ।

द्विजातिरूपेण हि तं दृष्ट्वा रावणमागतम् ।
सर्वैरतिथिसत्कारैः पूजयामास मैथिली ॥
उपानीयासनं पूर्वं पाद्येनाभिनिमन्त्र्य च ।
अब्रवीत् सिद्धमित्येव तदा तं सौम्यदर्शनम् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४६, छन्द ३३, ३४)

उस रावण को ब्राह्मण वेष में आया देख सीता ने आतिथ्य-सत्कार की सभी विधियों से उसका पूजन किया, यानी आदर-सम्मान दिया । सौम्य प्रतीत हो रहे उस (अतिथि) को सीता ने पहले आसन प्रदान करते हुए पैर धोने हेतु पानी दिया और फिर उन्होंने भोजन तैयार रहने की बात कही । (आसन एवं जल प्रदान करना आतिथ्य की परंपरा सदा से रही है ।)

रामायण के अनुसार आरंभ में सीता और रावण के मध्य पर्याप्त संवाद होता है । सीता अपना परिचय देते हुए विस्तार से बताती हैं कि क्यों और कैसे वह राम-लक्ष्मण के साथ वनवास भोग रही हैं । वार्तालाप के दौरान रावण भी अपना परिचय देता है और सीता को उसकी रानी बनकर सुख भोगने का प्रलोभन देता है । वह बताता है:

लङ्का नाम समुद्रस्य मध्ये मम महापुरी ।
सागरेण परिक्षिप्ता निविष्टा गिरिमूर्धनि ॥
तत्र सीते मया सार्धं वने विचरिस्यति ।
न चास्य वनवासस्य स्पृहयिष्यसि भामिनि ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४७, छन्द २९, ३०)

“चारों ओर फैले जल से घिरी और पर्वत शिखर पर अवस्थित
समुद्र के मध्य में लंका नाम की मेरी पुरी है । हे भामिनी, वहां मेरे साथ तुम वनों-उपवनों में विहार करोगी और इस वनवास के जीवन की तुम्हें इच्छा ही नहीं रह जाएगी ।” (भामिनी = तरुणी, कामिनी, जिसे देख मन मचल उठे ।)

रावण सीता को भांति-भांति से लुभाने का प्रयास करता है, किंतु सीता के लिए रावण के प्रस्ताव सर्वथा अस्वीकार्य थे । उन्होंने राम की प्रशंसा करते हुए रावण को तुच्छ घोषित कर दिया, और फटकार लगाईः

पूर्णचन्द्राननं रामं राजवत्सं जितेन्द्रियम् ।
पृथुकीर्तिं महाबाहुमहं राममनुव्रता ॥
त्वं पुनर्जम्बूकः सिंहीं मामिच्छसि दुर्लभाम् ।
नाहं शक्या त्वया स्प्रष्टुमादित्यस्य प्रभा यथा ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४७, छन्द ३६, ३७)

(अरे रावण,) राजकुमार राम का मुख पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह सुंदर है, वे जितेन्द्रिय और महान् यशस्वी हैं । ऐसे महाबाहु राम में ही मेरा मन लगा है । तुम तो महज गीदड़ हो जो मुझ दुर्लभ सिंहनी को पाने की इच्छा रखते हो । समझ लो कि जैसे सूर्य के प्रकाश को हाथ नहीं लगा सकता वैसे ही तुम मुझे छू भी नहीं सकते । (सीता का मंतव्य था कि जैसे सूर्य से उसकी आभा अलग नहीं की जा सकती वैसे ही उन्हें भी राम से अलग नहीं किया जा सकता है ।)

और आगे वे यह भी कहती हैं:

अपहृत्य शचीं भार्यां शक्यमिन्द्रस्य जीवितुम् ।
नहि रामस्य भार्यां मामानीय स्वस्तिमान् भवेत् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४८, छन्द २३)

इंद्र देवता की भार्या शची का अपहरण करने पर भी जीवित रह जाना संभव है, परंतु राम की मुझ भार्या को ले जाकर कोई कुशल से रह सके यह संभव नहीं । तात्पर्य यह है कि राम द्वारा उसका विनाश अवश्यंभावी है ।

सीता ने इस प्रकार की तमाम बातें सुनाकर रावण को धिक्कारा । वह ता पहले से ही एक उद्येश्य लेकर चल रहा था । सीता के सीधे तौर पर न मानने पर उसने बलात् उन्हें ले जाने का मन बनायाः

अभिगम्य सुदुष्टात्मा राक्षसः काममोहितः ।
जग्राह रावणः सीतां बुधः खे रोहिणीमिव ॥
वामेन सीतां पद्माक्षीं मूर्धजेषु करेण सः ।
ऊर्वोस्तु दक्षिणेनैव परिजग्राह पाणिना ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४९, छन्द १६, १७)

काम से मोहित अतिदुष्ट राक्षस रावण ने सीता के निकट जाकर उन्हें पकड़ लिया, मानों कि आकाश में बुध ने रोहिणी को जकड़ लिया हो । उसने कमलनयनी सीता के सिर के बालों को बायें हाथ से पकड़ा और जांघों के नीचे से दांया हाथ डालकर उन्हें उठा लिया । (पौराणिक कथा के अनुसार रोहिणी चंद्रमा की पत्नी थी और बुध उनका पुत्र । मैं नहीं जानता कि इस पुत्र-पत्नी के रिश्ते का गंभीर अर्थ क्या है । यहां कवि ने आलंकारिक वर्णन प्रस्तुत किया है । बुध ने अपनी माता रोहिणी का अपहरण नहीं किया था । माता सदृश सीता का अपहरण उतना ही गर्हित था जितना बुध द्वारा रोहिणी का अपहरण, जो वस्तुत हुआ नहीं ।)

उपर्युक्त बातें संक्षेप में यह स्पष्ट करने के लिए कही गयी हैं कि बाल्मीकि के अनुसार लक्ष्मण ने सीता को समझाने की भरसक कोशिश की थी, किंतु अंत में उन्हें विवश होकर सीता को पर्णकुटी पर अकेले छोड़कर जाना पड़ा । अवसर पाकर रावण सीता के पास आया, दोनों के बीच परस्पर परिचय के साथ विस्तार से बातें हुई, और अंत में कुपित होकर वह सीता को हर ले गया । कथा में कहीं पर किसी सुरक्षा घेरे का जिक्र नहीं है ।

मुझे लगता है कि रामकथा के वर्णन में समय के साथ बदलाव आता गया होगा और लक्ष्मण रेखा की कल्पना बाद के कथाकारों/कथावाचकों की देन रही होगी । – योगेन्द्र जोशी

संस्कृत नाट्यकृति ‘मृच्छकटिकम्’ से: दारिद्र्यम् अनन्तकं दुःखम्

संस्कृत साहित्य में ‘मृच्छकटिकम्’ नामक एक नाट्यकृति उपलब्ध है, जिसे शूद्रक द्वारा रचित बताया जाता है । शूद्रक कौन था, वह कब और कहां जन्मा था, ऐसे तमाम सवालों के उत्तरों में संस्कृत साहित्य के विद्वान एकमत नहीं हैं । कुछ लोग उन्हें राजा शूद्रक के नाम से जानते हैं तो कुछ अन्य इस नाम को छद्मनाम ही समझते हैं । शूद्रक कोई ही भी हो, सदियों पुराना यह नाटक वास्तव में काफी रोचक है और कदाचित् अपने काल की सामाजिक स्थिति का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है ।

नाटक चारुदत्त नामक एक सुसंपन्न ब्राह्मण की कहानी पर आधारित है,  जो अपनी   दानशीलता तथा अति उदारता के कारण निर्धनता की स्थिति में पहुंच जाता है । उसके सत्यवादिता, उदारता और मृदु व्यवहार पर एक गणिका, वसंतसेना, उसके प्रति आकर्षित होती है । इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिये कि प्राचीन भारतीय समाज में अभिजात वर्ग से परे की कुछ स्त्रियां गणिका वृत्ति अथवा वेश्या वृत्ति अपना लिया करती थीं । इनमें से गणिकाएं अपेक्षया सम्मानित मानी जाती थीं । वे नृत्य, संगीत आदि में पारंगत होती थीं और ये ही उनकी आजीविका के आधार होते थे, जब कि वेश्याएं शारीरिक संसर्ग के लिए उपलब्ध रहती थीं । उक्त नाटक चारुदत्त तथा वसंतसेना के बीच के निःस्वार्थ तथा निश्छल प्रेम पर ही केंद्रित है । रसशास्त्र की दृष्टि से भी नाटक संपन्न तथा अद्वितीय है । इसमें हास्य, शृंगार तथा करुण रसों का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है । शूद्रक कोई भी हो, यह कृति पठनीय है ऐसी मेरी धारणा है ।

प्राचीन संस्कृत नाटकों में ‘विदूषक’ नाम का पात्र भी सामान्यतः मौजूद रहता था और उसकी भूमिका अक्सर काफी महत्त्वपूर्ण होती थी । वह प्रायः मुख्य पात्र नायक का मित्र होता था और अपने हावभाव, वेशभूषा, बातचीत आदि के माध्यम से दर्शकों का मनोरंजन करता था । उक्त नाटक में चारुदत्त का मित्र मैत्रेय विदूषक की भूमिका निभाता है ।

मृच्छकटिकम् नाटक में एक प्रसंग है जिसमें विदूषक मैत्रेय रंगमंच पर चिंतित मुद्रा में बैठे चारुदत्त के पास पहुंचता है और उससे चिंता का कारण पूछता है । चारुदत्त को इस बात का दुःख है कि लोग उसकी नष्टप्राय संपन्नता के कारण उससे अब कुछ पाने की उम्मींद नहीं रखते और तदनुरूप उसके द्वार पर भी नहीं आते । दोनों मित्रों के मध्य बातचीत का दौर चलता है । इसी बातचीत में चारुदत्त अपने कष्ट का वर्णन करते हुए मैत्रेय से कहता है:
सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोभते घनान्धकारेष्विव दीपदर्शनम् ।
सुखात्तु याति नरो दरिद्रतां धृतः शरीरेण मृतः स जीवति ।।

(शूद्रकरचित मृच्छकटिकम्, अंक प्रथम, श्लोक १०)

[घनान्धकारेषु दीपदर्शनम् इव सुखं दुःखानि अनुभूय हि शोभते । सुखात् तु (यः) नरः दरिद्रतां याति सः शरीरेण धृतः (अपि) मृतः (इव) जीवति ।]
जिस प्रकार घने अंधकार में प्रज्वलित दीप के दर्शन पाना सार्थक और वांछित होता है उसी प्रकार दुःखों की अनुभूति के बाद ही सुखप्राप्ति के आनंद की अर्थवत्ता है । लेकिन जो मनुष्य सुखों के बाद दुःखों के गर्त में गिरता है वह शरीर धारण किये हुए मृत व्यक्ति के समान होता है ।

धनहीनता का जीवन जीने से तो मृत्यु का वरण करना अच्छा है यह बात भी वह यूं कहता हैः
दारिद्र्यान्मरणाद्वा मरणं मम रोचते न दारिद्र्यम् ।
अल्पक्लेशं मरणं दारिद्र्यमननन्तकं दुःखम् ।।

(पूर्वोक्त, श्लोक ११)

[दारिद्र्यात् (अथ)वा मरणात् मम मरणं न (तु) दारिद्र्यम् रोचते । मरणं अल्पक्लेशं (भवति किंतु) दारिद्र्यम् अननन्तकं दुःखम् (अस्ति) ।]
दरिद्रता एवं मरण में से मुझे मरना ही चुनने योग्य लगता है, न कि दरिद्रता के साथ जीना, क्योंकि मरने में होने वाला क्लेश वस्तुतः अल्पकालिक होता है परंतु दरिद्रता का कष्ट तो अंतहीन कष्ट देने वाला सिद्ध होता है ।

दरिद्रता वास्तव में एक अभिशाप है । दरिद्र व्यक्ति जीवनपर्यंत कष्ट भोगता है । लेकिन चाहने से तो मृत्यु भी नहीं आती है । और जिजीविषा तथा आशावादिता भी तो मनुष्य को मृत्यु से परे रखे रहतीं हैं । – योगेन्द्र

गतानुगतिको … : लकीर का फकीर यह संसार

अपने छात्रजीवन में मैंने एक नीतिश्लोक पढ़ा था जो मुझे अपनी कमजोर स्मरणशक्ति के बावजूद आज भी याद है, शायद इसलिए कि उसमें व्यक्त विचार गंभीर एवं सार्थक हैं । श्लोक यूं है:

गतानुगतिको लोको न लोको पारमार्थिकः ।
बालुकालिङ्गमात्रेण गतं मे ताम्रभाजनम् ।।

जिसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है: यह संसार गतानुगतिक (पीछे-पीछे चलने वाला) अर्थात् लकीर का फकीर है । यहां लोग दूसरों के हिताहित को ध्यान में रखकर कर्म नहीं करते । (इस लौकिक व्यवहार के कारण ही तो) मेरा तांबे का बर्तन महज बालू के लिंग के कारण खो गया ।

उक्त नीतिवचन का मूल स्रोत मुझे नहीं मालूम । मैंने इसे अपने पाठ्यक्रम के किसी पुस्तक में एक लघुकथा के संदर्भ में पढ़ा था । उस कथा के संक्षिप्त उल्लेख से इस श्लोक का तात्पर्य अधिक रोचक तरीके से समझा जा सकता है । कथा इस प्रकार है:

एक परिव्राजक (भ्रमणरत साधु-महात्मा) एक बार प्रातः एक नदी के किनारे पहुंचा । उसने उस नदी के पास ही कहीं एकांत में शौचादि कर्मों से निवृत्त होने का निर्णय लिया । उसकी कुल ‘संपत्ति’ में तांबे का एक बर्तन ही प्रमुख था, जिसे वह छिपा के रखना चाहता था । उसे भय था कि उसकी अनुपस्थिति में उस बर्तन पर किसी चोर-उचक्के की नजर पड़ सकती है और वह उसे खो सकता है । अतः उसने एक तरकीब सोची । नदी के किनारे विस्तृत क्षेत्र में फैली बालू में उसने हाथ से एक गढ़ा बनाया । उसने उसमें अपना तांबे का बर्तन रखा और बालू से ढककर उसके ऊपर बालू का ही एक शिवलिंग बना दिया, ताकि उस स्थल की पहचान वह बाद में कर सके । आने-जाने वाले किसी को किसी प्रकार का शक न होने पावे इस उद्येश्य से उसने आसपास से फूल-पत्ते तोड़कर लिंग के ऊपर चढ़ा दिये, ताकि लोग पवित्र तथा पूज्य मानते हुए उसके साथ छेड़-छाड़ न कर सकें ।

किंचित्‌ विलंब के बाद वह उस स्थल पर लौटा तो वहां का दृश्य देख स्तब्ध रह गया । उसने पाया कि इस बीच उस स्थान से गुजरने वाले लोगों ने भी एक-एक कर अनेकों लिंग वहां स्थापित कर दिये थे । कदाचित् परिव्राजक द्वारा स्थापित उस लिंग को देख लोगों ने सोचा कि वहां उस दिन बालुका-लिंग स्थापना के साथ उसकी पूजा का विधान है और तदनुसार अधिक सोच-विचार किये बिना उन्होंने भी वैसा ही किया । उनके इस रवैये का फल परिव्राजक को भुगतना पड़ा, जिसके लिए अपना ताम्रभाजन ढूढ़ना कष्टप्रद हो गया । तब उसके मुख से उक्त नीतिवचन निकले ।

किसी कथा को शब्दशः नहीं स्वीकारा जा सकता । महत्त्व तो उसमें निहित संदेश का रहता है । उक्त कथा इस तथ्य पर जोर डालती है कि मनुष्य समाज में कम ही लोग होते हैं जो किसी मुद्दे पर विवेकपूर्ण चिंतन के पश्चात् स्वतंत्र धारणा बनाते हैं और तदनुकूल व्यवहार करते हैं । अधिकतर लोग लकीर के फकीर बनकर व्यापक स्तर पर लोगों को जो कुछ करते हुए पाते हैं वही स्वयं भी करने लगते हैं । अंध नकल की यह प्रवृत्ति आम बात है । सामाजिक कुरीतियां ऐसे ही व्यवहार के दृष्टांत मानी जा सकती हैं । – योगेन्द्र