“अर्थनाशं मनस्तापं … मतिमान्न न प्रकाशयेत्” आदि चाणक्यनीति वचन

“चाण्क्यनीतिदर्पण” एक छोटी पुस्तिका है जिसके सभी छंदों में नीतिवचन निहित हैं। इस ग्रंथ के रचयिता विष्णुशर्मा बताए जाते हैं। विष्णुशर्मा को ही चणक-पुत्र होने के नाते चाणक्य और राजनीति के दांवपेंचों के ज्ञाता होने के नाते कौटिल्य कहा जाता है।

उक्त ग्रंथ के सातवें अध्याय में २१ छंद हैं और उनमें व्यावहारिक जीवन में कब कैसे समाज के समक्ष व्यवहार करना उचित एवं उपयोगी होगा यह बताया गया है। उनमें से ४ छंदों का उल्लेख मैं यहां पर कर रहा हूं। ये मुझे खास तौर पर दिलचस्प एवं विचारणीय लगे। ये हैं:

अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च ।

वञ्चनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥१॥

(अर्थ-नाशं मनस्-तापम्  गृहे दुः-चरितानि च वञ्चनम् च अपमानम्  च मतिमान् न प्रकाशयेत्।)

ये सभी श्लोक सरल संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं अतः उनके अर्थ समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

उपरिलिखित पहले श्लोक का निहितार्थ यह है कि सामान्य जीवन में व्यक्ति तमाम प्रकार के खट्टे-मीठे अनुभव पाता है। उनका उल्लेख दूसरों के समक्ष करने लिए वह अक्सर उत्साहित हो उठता है। जहां तक सुखद अनुभवों की बात है दूसरों को बताने से नुकसान की संभावना नहीं रहती है या कम रहती है। लेकिन कड़वे अनुभवों और परेशानियों के बारे में ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। यह संभव है कुछ गिने-चुने लोग व्यक्ति के प्रति सहानुभूति रखें और आवश्यकतानुसार उपयोगी सलाह एवं सहायता भी दें। किंतु ऐसी उदार वृत्ति कम लोगों में ही देखने को मिलती है। कई ऐसे लोग होते हैं जो व्यक्ति की बातों का मन ही मन आनंद लेते हैं, उसकी पीठ पीछे जग-हंसाई करने/कराने से नहीं चूकते। मेरे जीवन का अनुभव यही रहा है कि ऐसे जनों के मन की कुटिलता भांपना आसान नहीं होता।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए चाणक्य का मत है कि धन की हानि, अनिष्ट घटनाओं से प्राप्त मानसिक कष्ट, घर-परिवार में दुःखद किंतु गोपनीय घटनाएं, ठगे जाने, और अपमानिन होने की बातों का खुलासा बुद्धिमान व्यक्ति न करे। उन्हें अपने मन ही तक सीमित रखे।

शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम् ॥

गजं हस्तसहस्रेण देशत्यागेन दुर्जनम् ॥७॥

(शकटम् पञ्च-हस्तेन दश-हस्तेन वाजिनम् गजम् हस्त-सहस्रेण देश-त्यागेन दुर्जनम्।)

इस श्लोक के माध्यम से चाणक्य दुर्जनों के सान्निध्य से दूर रहने की सलाह देते हैं। वे कहते है गाड़ी से पांच हाथ की दूरी बनाए रखना चाहिए। घोड़े से दस हाथ और हाथी से हजार हाथ की दूरी रखनी चाहिए। किंतु दुर्जन से तो दूरी बनाए रखने के लिए स्थान ही त्याग देना चाहिए।

पांच दस आदि शब्द प्रतीकात्मक भर हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि गाड़ी के नजदीक नहीं पहुंचना चाहिए ताकि संभावित दुर्घटना से बचा जा सके। प्राचीन काल में गाड़ी घोड़े से खिंचा जाने वाला वाहन हुआ करता था। गाड़ी के घोड़े से अधिक खतरा तो खुले घोड़े से रहता है। अतः उससे और भी अधिक दूरी रखनी चाहिए। हाथी घोड़े से भी अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है इसलिए उससे बचने के लिए सुरक्षित दूरी और भी अधिक होगी। चाणक्य का मत है कि दुर्जन व्यक्ति कब कैसे अहित कर सकता है यह अनुमान लगाना ही कठिन है। ऐसे व्यक्ति से बचने के लिए दुर्जन वाले स्थान को ही छोड़ देना चाहिए। यहां पर देश शब्द का अर्थ उस सीमित स्थान से है जो दुर्जन के प्रभाव क्षेत्र में आता हो। उदाहरणार्थ पड़ोसी दुर्जन हो तो पड़ोस से हट जाना चाहिए। यदि दुर्जन गांव या मोहल्ले में उत्पात मचाता हो तो गांव-मोहल्ले को ही बदल लेना चाहिए, इत्यादि।

नात्यल्पं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम् ॥

छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपा: ॥१२॥

(न अति-अल्पम् सरलैः भाव्यम् गत्वा पश्य वन-स्थलीम् छिद्यन्ते सरलाः तत्र कुब्जाः तिष्ठन्ति पादपा:।)

उक्त तीसरे छंद में सरल स्वभाव से होने वाले नुकसान की ओर संकेत किया गया है।

मनुष्य को बहुत सरल स्वभाव का नहीं होना चाहिए। अर्थात् व्यावहारिक जीवन में थोड़ा बहुत कुटिलता, दुराव-छिपाव, सच छिपा के रखना, आदि भी आवश्यक होता है। ये तथाकथित “दोष” दूसरे का अहित करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी स्वयं की हानि कोई अन्य न करने पावे इस विचार से अपनाए जाने चाहिए, क्योंकि कई बार मनुष्य की सिधाई का नाजायज लाभ दूसरे चालाक जन उठाते हैं। नीतिवेत्ता चाणक्य इस बात को समझाने के लिए पेड़ों का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि वन में जाकर देखो कि किस प्रकार सीधे पेड़ों को काटा जाता है और टेड़े-मेड़े पेड़ों को छोड़ दिया जाता है। ध्यान रहे कि प्रायः सभी उद्येश्यों के लिए सीधी लकड़ी पसंद की जाती है। इसलिए सीधे पेड़ों को ही काटे जाने के लिए चुना जाता है। मेरा खुद का अनुभव रहा है कि कार्यालयों में सीधे-सरल व्यक्ति के ऊपर कार्य लाद दिए जाते हैं और चालाक व्यक्ति काम के बोझ से बच जाता है।

अंत में चौथा नीति वचन यह है:

यस्यार्थस्तस्य मित्राणि यस्यार्थस्तस्य बान्धवाः ॥

यस्यार्थः स पुमांल्लोके यस्यार्थः स च जीवति ॥१५॥

(यस्य अर्थः तस्य मित्राणि यस्य अर्थः तस्य बान्धवाः यस्य अर्थः स पुमान् लोके यस्य अर्थः स च जीवति।)

इस श्लोक में धन की महत्ता का जिक्र किया गया है।

नीतिवेत्ता का मानना है कि जिस व्यक्ति के पास धन-संपदा होती है उसी के मित्र होते भी होती हैं। अर्थात् जिसके पास धन होता है उसी से अन्य जन मित्रता करते हैं, अन्यथा उससे दूर रहने की कोशिश करते हैं। निर्धन से मित्रता कोई नहीं करना चाहता। इसी प्रकार जो धनवान हो उसी के बंधु-बांधव होते है। नाते-रिश्तेदार धनवान से ही संबंध रखते हैं, अन्यथा उससे दूरी बनाए रहने में ही भलाई देखते हैं। जिसके पास धन हो वही पुरुष माना जाता है यानी उसी को प्रतिष्ठित, पुरुषार्थवान, कर्मठ समझा जाता है। और धनवान व्यक्ति ही जीने का सुख पाता है। उसे धनहीन की तरह जिंदगी ढोनी नहीं पड़ती है।

मानव जीवन में धन कितनी अहमियत रखता है यह तो इस युग में सभी अनुभव करते हैं। किंतु चाण्क्य के उक्त वचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि उस काल में भी सामाजिक संबंध धन-संपदा के होने न होने पर निर्भय करते थे। मानव समाज में धन की महत्ता सदा से ही रही है. परंतु वर्तमान युग में धन को ही सर्वोपरि माना जाता है। सब उसी की ओर भागते हुए देखे जा सकते हैं। -योगेन्द्र जोशी

“वित्तं सर्वसाधनम् उच्यते” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (3)

संस्कृत नीतिग्रंथ पंचतंत्र के एक प्रकरण में इस बात का उल्लेख पढ़ने को मिलता है कि मनुष्य समाज में धन-संपदा की महत्ता को प्रायः सर्वत्र स्वीकारा जाता है । अपने चिट्ठे की पिछली दो प्रविष्टियों (जून 6 एवं जून 15) में मैंने पंचतंत्र के तत्संबंधित कुछ श्लोकों का जिक्र किया था । यह भी बताया था कि उक्त पुस्तक का एक पशु पात्र (सियार) अपने भाई को पैसे की अहमियत समझाते हुए धनोपार्जन के लिए प्रेरित करता है । अवश्य ही जो बातें कही गई हैं उनमें अतिशयोक्ति है । इसी पुस्तक में अन्यत्र संपदाजनित समस्याओं का उल्लेख भी है, जो यह स्पष्ट करती हैं कि धन को लेकर समाज में मतभिन्नता भी देखने को मिलती है । अतः जो नीतिवचन मौजूदा संदर्भ में कही गई हैं उनका मूल्यांकन स्वविवेक से किया जाना चाहिए । मतभिन्नता संबंधी नीतिवचनों का जिक्र मैं भविष्य में कभी करूंगा । अभी इस चर्चा के अगले एवं अंतिम तीन श्लोक आगे प्रस्तुत कर रहा हूं:

अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्याण्यखिलान्यपि ।
एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते ॥8॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(अशनात् इन्द्रियाणि इव स्युः कार्याणि अखिलानि अपि एतस्मात् कारणात् वित्तं सर्व-साधन् उच्यते ।)

अर्थः भोजन का जो संबंध इंद्रियों के पोषण से है वही संबंध धन का समस्त कार्यों के संपादन से है । इसलिए धन को सभी उद्येश्यों की प्राप्ति अथवा कर्मों को पूरा करने का साधन कहा गया है ।

इस तथ्य को सभी लोग स्वीकार करेंगे कि चाहे धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करने हों या याचकों को दान देेना हो, धन चाहिए ही । शारीरिक स्वास्थ्य, मनोरंजन, एवं सुखसुविधाएं आदि सभी के लिए धन-दौलत चाहिए । आज के जमाने में तो मु्फ्त में सेवा देने वाले अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं । एक जमाना था जब सामाजिक कार्य संपन्न करने में परस्पर सहयोग एवं मदद देने की परंपरा थी, परंतु अब सर्वत्र धन का ही बोलबाला है ।

अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते ।
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः ॥9॥
(यथा उपर्युक्त)
(अर्थ-अर्थी जीवलोकः, अ‌यं श्मशानम् अपि सेवते, त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः ।)

अर्थः यह लोक धन का भूख होता है, अतः उसके लिए श्मशान का कार्य भी कार्य करने को तैयार रहता है । धन की प्राप्ति के लिए तो वह अपने ही जन्मदाता हो छोड़ दूर देश भी चला जाता है ।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि जीवन-धारण बिना धन के संभव नहीं हैं, अतः मनुष्य धनोपार्जन के लिए कोई भी व्यवसाय अपनाने को विवश होता है । कुछ कामधंधे समाज में अधिक प्रतिष्ठित माने जाते हैं, अतः लोग उनकी ओर दौड़ते हैं और सौभाग्य से उन्हें पा जाते हैं । किंतु सभी भाग्यवान एवं पर्याप्त योग्य नहीं होते । उन्हें उस कार्य में लगना पड़ता है जिसे निकृष्ट श्रेणी का माना जाता है । अथवा धनोपार्जन के लिए घर से दूर निकलना पड़ता है । आज के जमाने में ये बातें सामान्य हो चुकी हैं ।

गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः ।
अर्थे तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ॥10॥
(यथा उपर्युक्त)
(गत-वयसाम् अपि पुंसां येषाम् अर्थाः भवन्ति ते तरुणाः, अर्थे तु ये हीनाः वृद्धाः ते यौवने अपि स्युः ।)

अर्थः उम्र ढल जाने पर भी वे पुरुष युवा रहते हैं जिनके पास धन रहता है । इसके विपरीत जो धन से क्षीण होते हैं वे युवावस्था में भी बुढ़ा जाते हैं ।

इस श्लोक की मैं दो प्रकार से व्याख्या करता हूं । पहली व्याख्या तो यह है धनवान व्यक्ति पौष्टिक भोजन एवं चिकित्सकीय सुविधा से हृष्टपुष्ट एवं स्वस्थ रह सकता है । तदनुसार उस पर बुढ़ापे के लक्षण देर से दिखेंगे । जिसके पास खाने-पीने को ही पर्याप्त न हो, अपना कारगर इलाज न करवा सके, वह तो जल्दी ही बूढ़ा दिखेगा । संपन्न देशों में लोगों की औसत उम्र अधिक देखी गई है । अतः इस कथन में दम है ।

दूसरी संभव व्याख्या यों हैः धनवान व्यक्ति धन के बल पर लंबे समय तक यौनसुख भोग सकता है, चाटुकार उसे घेरे रहेंगे और कहेंगे, “अभी तो आप एकदम जवान हैं ।” कृत्रिम साधनों से भी वह युवा दिख सकता है और युवक-युवतियों के आकर्षण का केंद्र बने रह सकता है । जब मन युवा रहे जो वार्धक्य कैसा ? – योगेन्द्र जोशी

“धनिनां परोऽपि स्वजनायते” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (2)

संस्कृत नीतिग्रंथ पंचतंत्र के एक प्रकरण में इस बात का वर्णन मिलता है कि मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा का बहुत महत्त्व है । उक्त तथ्य से संबंधित तीन श्लोकों का उल्लेख मैंने पिछली पोस्ट
में किया है । इस स्थल पर में तीन अन्य श्लोकों की चर्चा कर रहा हूं । ये श्लोक आगे उद्धृत हैं:

इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते ।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ॥5॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(इह लोके हि धनिनां परः अपि स्वजनायते स्वजनः अपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ।)

अर्थः इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है । और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग भी दुर्जन (बुरे अथवा दूरी बनाये रखने वाले) हो जाते हैं ।

उक्त बातें प्राचीन काल में किस हद तक सही रही होंगी यह कहना कठिन है । परंतु आज के विशुद्ध भौतिकवादी युग में ये पूरी तरह खरी उतरती हैं । बहुत कम लोग होंगे जो अपने भाई-बहनों तक के साथ मिलकर अपनी संपदा का भोग करना चाहेंगे । “हम कमाएं और वे खाएं यह भला कैसे हो सकता है ?” यह सोच सबके मन में रहती है । अतः उनसे दूरी बनाए रखने में ही उनकी संपदा परस्पर बंटने से बच सकती है । इसीलिए नीतिकार कहता है कि अगर आप अपनी धनसंपदा खो बैठते हैं तो आपके निकट संबंधी भी आपके नहीं रह जाते हैं । दूसरी ओर किसी धनी से संबंध बढ़ाने में लाभ की संभावना बनी रहती है, इसलिए लोग उसके ‘अपने’ बनने की फिराक में अक्सर देखे जाते हैं ।

अर्थेभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतस्ततः ।
प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः ॥6॥
(यथा उपर्युक्त)
(अर्थेभ्यः अपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतः ततः प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इव आपगाः ।)

अर्थः चारों तरफ से एकत्रित करके बढ़ाये गये धनसंपदा से ही विविध कार्यों का निष्पादन होता है, जैसे पर्वतों से नदियों का उद्गम होता है ।

इस कथन के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि वह जैसे भी हो, जहां से भी हो, अपनी धनसंपदा बढ़ाता जाए । जब ढेर सारा धन आपके पास इकट्ठा हो तो उस धन के माध्यम से सभी कार्य एक-एक कर संपन्न होते चले जाएंगे । “हर स्रोत से धन इकट्ठा करे” का अर्थ क्या यह समझा जाए कि आर्थिक भ्रष्टाचार भी मान्य रास्ता है ? शायद हां, तभी तो सर्वत्र भ्रष्टाचार का तांडव देखने को मिल रहा है ।

पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्यो९पि गम्यते ।
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥7॥
(यथा उपर्युक्त)
(पूज्यते यत् अपूज्यः अपि यत् अगम्यः अपि गम्यते वन्द्यते यत् अवन्द्यः अपि स प्रभावः धनस्य च ।)

अर्थः धन का प्रभाव यह होता है कि जो सम्मान के अयोग्य हो उसकी भी पूजा होती है, जो पास जाने योग्य नहीं होता है उसके पास भी जाया जाता है, जिसकी वंदना (प्रशंसा) का पात्र नहीं होता उसकी भी स्तुति होती है ।

संस्कृत में एक उक्ति है: “धनेन अकुलीनाः कुलीनाः भवन्ति धनम् अर्जयध्वम् ।” अर्थात् धन के बल पर अकुलीन जन भी कुलीन हो जाते हैं, इसलिए धनोपार्जन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि समाज में सामान्य अप्रतिष्ठित व्यक्ति ढेर-सी धनसंपदा जमा कर लेता है तो वह सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान का हकदार हो जाता है । लोग उसके आगे-पीछे घूमना शुरू कर देते हैं । इसके विपरीत प्रतिष्ठित व्यक्ति जब दुर्भाग्य से अपनी संपदा खो बैठता है तो उसे सामाजिक प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ती है । लोग उसका सम्मान करना भूलने लगते हैं, उससे मिलने से भी कतराते हैं ।

धन की महिमा वास्तव में अपरंपार है ! – योगेन्द्र जोशी

“अर्थम् एकं प्रसाधयेत्” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (1)

पंचतंत्र संस्कृत साहित्य का सुविख्यात नीतिग्रंथ है, जिसका संक्षिप्त परिचय मैंने अन्यत्र दे रखा है । ग्रंथ के अंतर्गत एक प्रकरण में व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा की महत्ता का वर्णन मिलता है । उसके दो सियार पात्रों – वस्तुतः दो भाइयों, दमनक एवं करटक – में से एक दूसरे के समक्ष अधिकाधिक मात्रा में धनसंपदा अर्जित करने का प्रस्ताव रखता है । दूसरे के “बहुत अधिक धन क्यों?” के उत्तर में वह धन के विविध लाभों को गिनाना आंरभ करता है और धन से सभी कुछ संभव है इस बात पर जोर डालता है । ऐसा नहीं है कि पंचतंत्र में धन को ही महत्त्व दिया गया हो । किसी अन्य स्थल पर तो ग्रंथकार ने उपभोग या दान न किए जाने पर धनसंपदा के नाश की भी बात की है । वस्तुतः ग्रंथ में परिस्थिति के अनुसार पशुपात्रों के माध्यम से कर्तव्य-अकर्तव्य की नीतिगत बातें कही गई हैं । याद दिला दूं कि पंचतंत्र के पात्र पशुगण हैं, जो मनुष्यों की भांति व्यवहार करते हैं, और मनुष्य जीवन की समस्याओं से जूझ रहे होते हैं । यहां पर उस सियार पात्र के धनोपार्जन संबंधी कथनों को उद्धृत किया जा रहा है । प्रस्तुत हैं प्रथम तीन श्लोक:

न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति ।
यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥2॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(न हि तत् विद्यते किञ्चित् यत् अर्थेन न सिद्ध्यति यत्नेन मतिमान् तस्मात् अर्थम् एकं प्रसाधयेत् ।)

अर्थः ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे धन के द्वारा न पाया जा सकता है । अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को एकमेव धन अर्जित करने का प्रयत्न करना चाहिए ।

भौतिक सुख-सुविधाएं धन के माध्यम से एकत्र की जा सकती हैं । इतना ही नहीं सामाजिक संबंध भी धन से प्रभावित होते हैं । ऐसी ही तमाम बातें धन से संभव हो पाती हैं । इनका उल्लेख आगे किया गया हैः

यस्यार्थाः तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः ।
यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥3॥
(यथा उपर्युक्त)
(यस्य अर्थाः तस्य मित्राणि यस्य अर्थाः तस्य बान्धवाः यस्य अर्थाः सः पुमान् लोके यस्य अर्थाः सः च पण्डितः ।

 अर्थः जिस व्यक्ति के पास धन हो उसी के मित्र होते हैं, उसी के बंधुबांधव होते हैं, वही संसार में वस्तुतः पुरुष (सफल व्यक्ति) होता है, और वही पंडित या जानकार होता है ।

आज के सामाजिक जीवन में ये बातें सही सिद्ध होती दिखाई देती हैं । आपके पास धन-दौलत है तो यार-दोस्त, रिश्तेदार, परिचित आदि आपको घेरे रहेंगे, अन्यथा आपसे देरी बनाए रहेंगे । जिसने धनोपार्जन कर लिया वही सफल माना जाता है, उसी की योग्यता की बातें की जाती हैं, उसकी हां में हां मिलाई जाती है, मानो कि उसे ही व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो । कदाचित् धन की ऐसी खूबी प्राचीन काल में भी स्वीकारी गई होगी । आगे देखिए:

न सा विद्या न तद्दानं न तच्छिल्पं न सा कला ।
न तत्स्थैर्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयते ॥4॥
(यथा उपर्युक्त)
(न सा विद्या न तत् दानं न तत् शिल्पं न सा कला न तत् स्थैर्यं हि धनिनां याचकैः यत् न गीयते ।)

अर्थः ऐसी कोई विद्या, दान शिल्प (हुनर), कला, स्थिरता या वचनबद्धता नहीं है जिनके धनिकों में होने का गुणगान याचकवृंद द्वारा न किया जाता हो ।

संपन्न व्यक्ति की अनुकंपा प्राप्त करने और मौके-बेमौके उससे मदद पाने के लिए लोग प्रशंसा के बोल कहते देखे जाते हैं । उसको खुश करने के लिए लोग यह कहने में भी नहीं हिचकते हैं कि वह अनेकों गुणों का धनी है । राजनीति के क्षेत्र में ऐसे अनेकों ‘महापुरुष’ मिल जाएंगे, जिनके गुणगान में लोगों ने ‘चालीसाएं’ तक लिख डाली हैं । धनिकों के प्रति चाटुकारिता एक आम बात है ऐसा ग्रंथकार का मत है । – योगेन्द्र जोशी