कौटिलीय वचन: “अर्थैः अर्थाः प्रबध्यन्ते …” अर्थात धन से ही अधिक धन अर्जित होता है

कौटिलीय अर्थशास्त्र”  महान राजनीतिवेत्ता कौटिल्य द्वारा राज्य का शासन कारगर तरीके से चलाने की प्रणाली पर रचित ग्रंथ है । कौटिल्य चाणक्य (चणक-पुत्र, असल नाम विष्णुगुप्त) का वैकल्पिक नाम है, जिन्होंने करीब ढाई हजार साल पहले चंद्रगुप्त को राजगदी पर बिठाकर मौर्य राज्य की स्थापना की थी । उनके बारे में कुछ जानकारी मैंने अपने 23 सितंबर, 2009, की ब्लॉग-प्रविष्टि में दी है ।

उक्त ग्रंथ में शासकीय व्यवस्था की तमाम बातों के साथ पुरुषार्थ की महत्ता की भी बात की गई है । चाणक्य के अनुसार भाग्य के भरोसे बैठना नासमझों का काम है । ग्रंथकार ने यह भी कहा है कि धन से ही और अधिक धन का उपार्जन होता है । तत्संबंधित दो श्लोक मुझे ग्रंथ में पढ़ने को मिले हैं जिनका उल्लेख मैं इस स्थल पर कर रहा हूं ।

(स्रोत संदर्भ – कौटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण 9, प्रकरण 142)

नक्षत्रमतिपृच्छन्तं बालमर्थोऽतिवर्तते ।

अर्थो ह्यर्थस्य नक्षत्रं किं करिस्यन्ति तारकाः ॥

( नक्षत्रम् अति-पृच्छन्तम् बालम् अर्थः अति-वर्तते, अर्थः हि अर्थस्य नक्षत्रम् तारकाः किम् करिस्यन्ति ।)

अर्थ – नक्षत्रों की गणना करने वाले नासमझ से धन दूर ही रहता है । दरअसल धन के लिए धन ही नक्षत्र होता है, उसके लिए तारागण की क्या भूमिका ?

धनोपार्जन के कार्य में ग्रह-नक्षत्रों की गणना, ज्योतिषीय सलाह-मशविरा, शुभ मुहूर्त का विचार, आदि का कोई महत्व नहीं होता । जो इन पचड़ों में रहता है वह व्यावहारिक जीवन में एक नादान बच्चे की-सी नासमझी करता है । असल तथ्य तो यह है कि धनोपार्जन के लिए आपके पास की धन-संपदा ही ग्रह-नक्षत्र की भूमिका निभाती हैं । तात्पर्य यह है कि आकाशीय पिंड धनोपार्जन को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रख्रते, बल्कि आपकी पहले से ही अर्जित धनसंपदा उनकी जगह प्रभावी होती हैं, जैसा कि अगले श्लोक से स्पष्ट है ।

नाधनाः प्राप्नुवन्त्यर्थान्नरा यत्नशतैरपि ।

अर्थैरर्थाः प्रबध्यन्ते गजाः प्रतिगजैरिव ॥

(अधनाः नराः यत्न-शतैः अपि अर्थान् न प्राप्नुवन्ति, प्रति-गजैः गजाः इव अर्थाः अर्थैः प्रबध्यन्ते ।)

अर्थ – निर्धन जन सौ प्रयत्न कर लें तो भी धन नहीं कमा सकते हैं । जैसे हाथियों के माध्यम से हाथी वश में किए जाते हैं वैसे ही धन से धन को कब्जे में लिया जाता है ।

यह सुविख्यात है कि वनक्षेत्र में रह रहे हाथी को पालतू हाथियों की मदद से वश में किया जाता है और कालांतर में उसे पालतू बनाने में सफलता मिल जाती है । कुछ ऐसा ही धन के साथ होता है । एक कहावत हैः “पैसा पैसे को खींचता है ।” जिसके निहितार्थ यही हैं । दरअसल जब मनुष्य के पास धन होता है तभी वह उसका समुचित निवेश कर सकता है जिससे उसे अतिरिक्त धन की प्राप्ति होती है । जो निवेश करने में जितना अधिक समर्थ होगा उसे उसी अनुपात में लाभ भी मिलेगा । जिसके पास धन ही न हो वह निवेश कहां से कर पाएगा ?

व्यवहारिक जीवन में उपर्युक्त बात कमोवेश सही ठहरती है बशर्ते कि हम धनसंपदा के अर्थ अधिक व्यापक लेते हुए उसमें बौद्धिक संपदा को भी जोड़ लें । आजकल बौद्धिक कौशल का जमाना है । आप अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए भी धनोपार्जन कर सकते हैं । ऐसा व्यक्ति पहले उसी का निवेश करता है, फिर उससे पाप्त धन का निवेश करता है । अंततः सभी को निवेश का ही रास्ता अपनाता होता है ।

मेरी समझ में चाणक्य का संदेश यही है कि भविष्यवाणी की ज्योतिष् या तत्सदृश कलाओं पर निर्भर न होकर व्यक्ति को अपने धन या हुनर से ही संपदा अर्जित करने की सोचनी चाहिए । – योगेन्द्र जोशी

“वित्तं सर्वसाधनम् उच्यते” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (3)

संस्कृत नीतिग्रंथ पंचतंत्र के एक प्रकरण में इस बात का उल्लेख पढ़ने को मिलता है कि मनुष्य समाज में धन-संपदा की महत्ता को प्रायः सर्वत्र स्वीकारा जाता है । अपने चिट्ठे की पिछली दो प्रविष्टियों (जून 6 एवं जून 15) में मैंने पंचतंत्र के तत्संबंधित कुछ श्लोकों का जिक्र किया था । यह भी बताया था कि उक्त पुस्तक का एक पशु पात्र (सियार) अपने भाई को पैसे की अहमियत समझाते हुए धनोपार्जन के लिए प्रेरित करता है । अवश्य ही जो बातें कही गई हैं उनमें अतिशयोक्ति है । इसी पुस्तक में अन्यत्र संपदाजनित समस्याओं का उल्लेख भी है, जो यह स्पष्ट करती हैं कि धन को लेकर समाज में मतभिन्नता भी देखने को मिलती है । अतः जो नीतिवचन मौजूदा संदर्भ में कही गई हैं उनका मूल्यांकन स्वविवेक से किया जाना चाहिए । मतभिन्नता संबंधी नीतिवचनों का जिक्र मैं भविष्य में कभी करूंगा । अभी इस चर्चा के अगले एवं अंतिम तीन श्लोक आगे प्रस्तुत कर रहा हूं:

अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्याण्यखिलान्यपि ।
एतस्मात्कारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते ॥8॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(अशनात् इन्द्रियाणि इव स्युः कार्याणि अखिलानि अपि एतस्मात् कारणात् वित्तं सर्व-साधन् उच्यते ।)

अर्थः भोजन का जो संबंध इंद्रियों के पोषण से है वही संबंध धन का समस्त कार्यों के संपादन से है । इसलिए धन को सभी उद्येश्यों की प्राप्ति अथवा कर्मों को पूरा करने का साधन कहा गया है ।

इस तथ्य को सभी लोग स्वीकार करेंगे कि चाहे धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करने हों या याचकों को दान देेना हो, धन चाहिए ही । शारीरिक स्वास्थ्य, मनोरंजन, एवं सुखसुविधाएं आदि सभी के लिए धन-दौलत चाहिए । आज के जमाने में तो मु्फ्त में सेवा देने वाले अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं । एक जमाना था जब सामाजिक कार्य संपन्न करने में परस्पर सहयोग एवं मदद देने की परंपरा थी, परंतु अब सर्वत्र धन का ही बोलबाला है ।

अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते ।
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः ॥9॥
(यथा उपर्युक्त)
(अर्थ-अर्थी जीवलोकः, अ‌यं श्मशानम् अपि सेवते, त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः ।)

अर्थः यह लोक धन का भूख होता है, अतः उसके लिए श्मशान का कार्य भी कार्य करने को तैयार रहता है । धन की प्राप्ति के लिए तो वह अपने ही जन्मदाता हो छोड़ दूर देश भी चला जाता है ।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि जीवन-धारण बिना धन के संभव नहीं हैं, अतः मनुष्य धनोपार्जन के लिए कोई भी व्यवसाय अपनाने को विवश होता है । कुछ कामधंधे समाज में अधिक प्रतिष्ठित माने जाते हैं, अतः लोग उनकी ओर दौड़ते हैं और सौभाग्य से उन्हें पा जाते हैं । किंतु सभी भाग्यवान एवं पर्याप्त योग्य नहीं होते । उन्हें उस कार्य में लगना पड़ता है जिसे निकृष्ट श्रेणी का माना जाता है । अथवा धनोपार्जन के लिए घर से दूर निकलना पड़ता है । आज के जमाने में ये बातें सामान्य हो चुकी हैं ।

गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः ।
अर्थे तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ॥10॥
(यथा उपर्युक्त)
(गत-वयसाम् अपि पुंसां येषाम् अर्थाः भवन्ति ते तरुणाः, अर्थे तु ये हीनाः वृद्धाः ते यौवने अपि स्युः ।)

अर्थः उम्र ढल जाने पर भी वे पुरुष युवा रहते हैं जिनके पास धन रहता है । इसके विपरीत जो धन से क्षीण होते हैं वे युवावस्था में भी बुढ़ा जाते हैं ।

इस श्लोक की मैं दो प्रकार से व्याख्या करता हूं । पहली व्याख्या तो यह है धनवान व्यक्ति पौष्टिक भोजन एवं चिकित्सकीय सुविधा से हृष्टपुष्ट एवं स्वस्थ रह सकता है । तदनुसार उस पर बुढ़ापे के लक्षण देर से दिखेंगे । जिसके पास खाने-पीने को ही पर्याप्त न हो, अपना कारगर इलाज न करवा सके, वह तो जल्दी ही बूढ़ा दिखेगा । संपन्न देशों में लोगों की औसत उम्र अधिक देखी गई है । अतः इस कथन में दम है ।

दूसरी संभव व्याख्या यों हैः धनवान व्यक्ति धन के बल पर लंबे समय तक यौनसुख भोग सकता है, चाटुकार उसे घेरे रहेंगे और कहेंगे, “अभी तो आप एकदम जवान हैं ।” कृत्रिम साधनों से भी वह युवा दिख सकता है और युवक-युवतियों के आकर्षण का केंद्र बने रह सकता है । जब मन युवा रहे जो वार्धक्य कैसा ? – योगेन्द्र जोशी

“धनिनां परोऽपि स्वजनायते” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (2)

संस्कृत नीतिग्रंथ पंचतंत्र के एक प्रकरण में इस बात का वर्णन मिलता है कि मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा का बहुत महत्त्व है । उक्त तथ्य से संबंधित तीन श्लोकों का उल्लेख मैंने पिछली पोस्ट
में किया है । इस स्थल पर में तीन अन्य श्लोकों की चर्चा कर रहा हूं । ये श्लोक आगे उद्धृत हैं:

इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते ।
स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ॥5॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(इह लोके हि धनिनां परः अपि स्वजनायते स्वजनः अपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ।)

अर्थः इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है । और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग भी दुर्जन (बुरे अथवा दूरी बनाये रखने वाले) हो जाते हैं ।

उक्त बातें प्राचीन काल में किस हद तक सही रही होंगी यह कहना कठिन है । परंतु आज के विशुद्ध भौतिकवादी युग में ये पूरी तरह खरी उतरती हैं । बहुत कम लोग होंगे जो अपने भाई-बहनों तक के साथ मिलकर अपनी संपदा का भोग करना चाहेंगे । “हम कमाएं और वे खाएं यह भला कैसे हो सकता है ?” यह सोच सबके मन में रहती है । अतः उनसे दूरी बनाए रखने में ही उनकी संपदा परस्पर बंटने से बच सकती है । इसीलिए नीतिकार कहता है कि अगर आप अपनी धनसंपदा खो बैठते हैं तो आपके निकट संबंधी भी आपके नहीं रह जाते हैं । दूसरी ओर किसी धनी से संबंध बढ़ाने में लाभ की संभावना बनी रहती है, इसलिए लोग उसके ‘अपने’ बनने की फिराक में अक्सर देखे जाते हैं ।

अर्थेभ्योऽपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतस्ततः ।
प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः ॥6॥
(यथा उपर्युक्त)
(अर्थेभ्यः अपि हि वृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य इतः ततः प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इव आपगाः ।)

अर्थः चारों तरफ से एकत्रित करके बढ़ाये गये धनसंपदा से ही विविध कार्यों का निष्पादन होता है, जैसे पर्वतों से नदियों का उद्गम होता है ।

इस कथन के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि वह जैसे भी हो, जहां से भी हो, अपनी धनसंपदा बढ़ाता जाए । जब ढेर सारा धन आपके पास इकट्ठा हो तो उस धन के माध्यम से सभी कार्य एक-एक कर संपन्न होते चले जाएंगे । “हर स्रोत से धन इकट्ठा करे” का अर्थ क्या यह समझा जाए कि आर्थिक भ्रष्टाचार भी मान्य रास्ता है ? शायद हां, तभी तो सर्वत्र भ्रष्टाचार का तांडव देखने को मिल रहा है ।

पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्यो९पि गम्यते ।
वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च ॥7॥
(यथा उपर्युक्त)
(पूज्यते यत् अपूज्यः अपि यत् अगम्यः अपि गम्यते वन्द्यते यत् अवन्द्यः अपि स प्रभावः धनस्य च ।)

अर्थः धन का प्रभाव यह होता है कि जो सम्मान के अयोग्य हो उसकी भी पूजा होती है, जो पास जाने योग्य नहीं होता है उसके पास भी जाया जाता है, जिसकी वंदना (प्रशंसा) का पात्र नहीं होता उसकी भी स्तुति होती है ।

संस्कृत में एक उक्ति है: “धनेन अकुलीनाः कुलीनाः भवन्ति धनम् अर्जयध्वम् ।” अर्थात् धन के बल पर अकुलीन जन भी कुलीन हो जाते हैं, इसलिए धनोपार्जन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि समाज में सामान्य अप्रतिष्ठित व्यक्ति ढेर-सी धनसंपदा जमा कर लेता है तो वह सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान का हकदार हो जाता है । लोग उसके आगे-पीछे घूमना शुरू कर देते हैं । इसके विपरीत प्रतिष्ठित व्यक्ति जब दुर्भाग्य से अपनी संपदा खो बैठता है तो उसे सामाजिक प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ती है । लोग उसका सम्मान करना भूलने लगते हैं, उससे मिलने से भी कतराते हैं ।

धन की महिमा वास्तव में अपरंपार है ! – योगेन्द्र जोशी

“अर्थम् एकं प्रसाधयेत्” – पंचतंत्र में धन की महत्ता का वर्णन (1)

पंचतंत्र संस्कृत साहित्य का सुविख्यात नीतिग्रंथ है, जिसका संक्षिप्त परिचय मैंने अन्यत्र दे रखा है । ग्रंथ के अंतर्गत एक प्रकरण में व्यावहारिक जीवन में धन-संपदा की महत्ता का वर्णन मिलता है । उसके दो सियार पात्रों – वस्तुतः दो भाइयों, दमनक एवं करटक – में से एक दूसरे के समक्ष अधिकाधिक मात्रा में धनसंपदा अर्जित करने का प्रस्ताव रखता है । दूसरे के “बहुत अधिक धन क्यों?” के उत्तर में वह धन के विविध लाभों को गिनाना आंरभ करता है और धन से सभी कुछ संभव है इस बात पर जोर डालता है । ऐसा नहीं है कि पंचतंत्र में धन को ही महत्त्व दिया गया हो । किसी अन्य स्थल पर तो ग्रंथकार ने उपभोग या दान न किए जाने पर धनसंपदा के नाश की भी बात की है । वस्तुतः ग्रंथ में परिस्थिति के अनुसार पशुपात्रों के माध्यम से कर्तव्य-अकर्तव्य की नीतिगत बातें कही गई हैं । याद दिला दूं कि पंचतंत्र के पात्र पशुगण हैं, जो मनुष्यों की भांति व्यवहार करते हैं, और मनुष्य जीवन की समस्याओं से जूझ रहे होते हैं । यहां पर उस सियार पात्र के धनोपार्जन संबंधी कथनों को उद्धृत किया जा रहा है । प्रस्तुत हैं प्रथम तीन श्लोक:

न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति ।
यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥2॥
(पंचतंत्र, मित्रलाभ)
(न हि तत् विद्यते किञ्चित् यत् अर्थेन न सिद्ध्यति यत्नेन मतिमान् तस्मात् अर्थम् एकं प्रसाधयेत् ।)

अर्थः ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे धन के द्वारा न पाया जा सकता है । अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को एकमेव धन अर्जित करने का प्रयत्न करना चाहिए ।

भौतिक सुख-सुविधाएं धन के माध्यम से एकत्र की जा सकती हैं । इतना ही नहीं सामाजिक संबंध भी धन से प्रभावित होते हैं । ऐसी ही तमाम बातें धन से संभव हो पाती हैं । इनका उल्लेख आगे किया गया हैः

यस्यार्थाः तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः ।
यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥3॥
(यथा उपर्युक्त)
(यस्य अर्थाः तस्य मित्राणि यस्य अर्थाः तस्य बान्धवाः यस्य अर्थाः सः पुमान् लोके यस्य अर्थाः सः च पण्डितः ।

 अर्थः जिस व्यक्ति के पास धन हो उसी के मित्र होते हैं, उसी के बंधुबांधव होते हैं, वही संसार में वस्तुतः पुरुष (सफल व्यक्ति) होता है, और वही पंडित या जानकार होता है ।

आज के सामाजिक जीवन में ये बातें सही सिद्ध होती दिखाई देती हैं । आपके पास धन-दौलत है तो यार-दोस्त, रिश्तेदार, परिचित आदि आपको घेरे रहेंगे, अन्यथा आपसे देरी बनाए रहेंगे । जिसने धनोपार्जन कर लिया वही सफल माना जाता है, उसी की योग्यता की बातें की जाती हैं, उसकी हां में हां मिलाई जाती है, मानो कि उसे ही व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो । कदाचित् धन की ऐसी खूबी प्राचीन काल में भी स्वीकारी गई होगी । आगे देखिए:

न सा विद्या न तद्दानं न तच्छिल्पं न सा कला ।
न तत्स्थैर्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयते ॥4॥
(यथा उपर्युक्त)
(न सा विद्या न तत् दानं न तत् शिल्पं न सा कला न तत् स्थैर्यं हि धनिनां याचकैः यत् न गीयते ।)

अर्थः ऐसी कोई विद्या, दान शिल्प (हुनर), कला, स्थिरता या वचनबद्धता नहीं है जिनके धनिकों में होने का गुणगान याचकवृंद द्वारा न किया जाता हो ।

संपन्न व्यक्ति की अनुकंपा प्राप्त करने और मौके-बेमौके उससे मदद पाने के लिए लोग प्रशंसा के बोल कहते देखे जाते हैं । उसको खुश करने के लिए लोग यह कहने में भी नहीं हिचकते हैं कि वह अनेकों गुणों का धनी है । राजनीति के क्षेत्र में ऐसे अनेकों ‘महापुरुष’ मिल जाएंगे, जिनके गुणगान में लोगों ने ‘चालीसाएं’ तक लिख डाली हैं । धनिकों के प्रति चाटुकारिता एक आम बात है ऐसा ग्रंथकार का मत है । – योगेन्द्र जोशी

‘लोभः पापस्य कारणम्’ और ‘सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति’

इधर दो-चार दिनों से ‘सत्यम’ नामक सॉफ्टवेयर कंपनी समाचार माघ्यमों का विषय बना हुआ है, किसी सार्थक उपलब्धि के कारण नहीं, बल्कि अरबों रुपयों के घोटाले के कारण । कंपनी के अघ्यक्ष पर सब की नजर है कि कैसे उन्होंने अमीरी की सीमा रातों-रात कहीं आगे बढ़ा लेने की लालसा में एक जबरदस्त घोटाला कर डाला । इस घटना की खबर ने मेरा ध्यान इन सूक्तियों की ओर खींच डाला:

सुमहान्त्यपि शास्त्राणि धारयन्तो बहुश्रुताः ।
छेत्तारः संशयानां च क्लिश्यन्ते लोभमोहिताः ।। 26 ।।
लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।
लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ।। 27 ।।

(नारायणपण्डितसंगृहीत हितोपदेश)

(अनेकों शास्त्रों का ज्ञाता तथा श्रोता, समस्याओं-शंकाओं के समाधान में निपुण पंडित भी लोभ-लालच के वशीभूत होकर क्लेश यानी कष्ट की अवस्था को प्राप्त हो जाता है । लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से कामना, यानी और अधिक अर्जित करने की इच्छा, जागृत होती है, लोभ से व्यक्ति मोह या भ्रम में पड़ता है, और उसी से विनाश की स्थिति पैदा होती है; वस्तुतः लोभ पाप का कारण है ।)

मैं समझता हूं कि लोभ करना और अधिकाधिक भौतिक संपदा बटोरना मनुष्य की निसर्ग से जन्मी स्वाभाविक वृत्ति है । उससे मुक्त होने के लिए मनुष्य को तप का सहारा लेना पड़ता है, अर्थात् आत्मसंयम का भाव मन में लाना होता है । धन-संपदा मानव समाज में सदा से ही महत्त्वपूर्ण रहे हैं, किंतु मनीषियों एवं विचारकों ने सदा ही समाज को उसकी सीमा निर्धारित करने का उपदेश दिया है । ‘अति सर्वत्र वर्जितम्’ उनके द्वारा प्रचारित नीति रही है । किसी व्यक्ति को कितना चाहिए इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए और उसी के अनुसार धन कमाने का प्रयास करना चाहिए और अति नहीं करनी चाहिए

पूर्व काल में लोग धन-संपदा को आवश्यक मानते थे, लेकिन उसे ही सब कुछ मान के नहीं बैठ जाते थे । एक समय था जब लोग अपने समस्त समय, ऊर्जा और बुद्धि का उपयोग केवल धनोपार्जन के लिए नहीं करते थे । धन कमाते समय वे समाज के हित-अहित के प्रति उदासीन नहीं हो जाते थे । लोगों के लिए ज्ञानार्जन, अध्यात्म, दर्शन, धार्मिक कृत्य समाज सेवा और सांस्कृतिक कार्य आदि का भी महत्त्व होता था । किंतु आज हम ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं जहां जीवन का सर्वप्रथम लक्ष्य – और कभी-कभी एकमेव लक्ष्य – धनोपार्जन रह गया है । रातदिन यह चिंता बनी रहती है कि कैसे अधिकाधिक धन-संपदा जुटायी जाये । आज का मानव जीवन प्रतिस्पर्धात्मक बन चुका है । वह अपनी भौतिक संपदा की तुलना अन्य लोगों से अधिक करता है और इस भावना के साथ संतुष्ट नहीं हो पाता है कि उसकी आवश्यकताएं तो पूरी हो रही हैं, दूसरे से क्या तुलना करना । उसकी लालसा रहती है कि वह संपदा के मामले में अपने रिश्तेदारों, मित्र-परिचितों, पड़ोसियों, एवं सहकर्मियों आदि से आगे निकल जाये । तुलना के अन्य आधारों की कोई अहमियत आज के युग में नहीं है । हर कोई ईमानदारी, परोपकार, जनसेवा, निष्ठापूर्वक दायित्व-निर्वाह आदि में आगे रहने को मुर्खता मानता है । सादगी का जीवन तो विवशता से जोड़ा जाता है । धन को लेकर मानव-मन इतना उत्साहित है कि अपने पास जो भी खूबी हो उसे बाजार में उतारने को तैयार है । किसी व्यवसाय की महत्ता उससे जुड़े आर्थिक लाभ से आंकी जाती है । जब शारीरिक सौंदर्य और आध्यात्मिक ज्ञान तक बिकाऊ हो सकते हैं तो फिर बचता क्या है ? दूसरों द्वारा लगाये गये मिथ्या लांछनों तक की भरपायी धन से संभव है । हर चीज की कीमत पैसा ! ऐसे धन के प्रति आकर्षण स्वाभाविक ही है । मुझे राजा एवं कवि भर्तृहरि के ये वचन याद आ रहे हैं:

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।। 41 ।।

(भर्तृहरिविरचित नीतिशतकम्)

(जिसके पास धन है वही उच्च कुल का है, वही जानकार पंडित है, वही शास्त्रों का ज्ञाता है, वही दूसरों के गुणों का आकलन करते की योग्यता रखता है, वही प्रभावी वक्ता है, उसी का व्यक्तित्व दर्शनीय है । यह सब इसलिए कि सभी गुण धन के प्रतीक कांचन अर्थात् सोने पर निर्भर हैं । धन है तो वे गुण भी हैं, अन्यथा वे भी नहीं हैं ।)

वस्तुतः धन के बल पर ऐसे लोग जुटाये जा सकते हैं जो किसी भी व्यक्ति को ऊपर कही बातों के योग्य मानने को तैयार हों और फलतः वह व्यक्ति अयोग्य होते हुए भी सबसे आगे सिद्ध हो जाये । मैं समझता हूं कि राजा भर्तृहरि के काल में धन की इतनी महत्ता नहीं रही होगी और उपर्युक्त बातें उन्होंने एक व्यंग के तौर पर कही होंगी । परंतु आज तो धन ही सब कुछ प्रतीत होता है !– योगेन्द्र