यथेयं पृथिवी मही … – अथर्ववेद में गर्ववती नारी के प्रति शुभेच्छा संदेश

प्राचीन वैदिक परंपरा में चार वेदों का उल्लेख हैः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद। इनमें से प्रथम तीन को प्रमुख वेद माना जाता है। उनमें देवताओं की स्तुति के मंत्र एवं उनके गायन, यज्ञादि कर्मों के संपादन एवं आध्यात्मिक दर्शन से जुड़े मंत्रों का संकलन ही मुख्यतः देखने को मिलता है। इन वेदों की अपनी-अपनी उपशाखाएं भी हैं और उनसे संबंधित उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण नामक अन्य ग्रंथ भी वैदिक साहित्य में शामिल मिलते हैं। चतुर्थ वेद, अथर्ववेद, किंचित् भिन्न है और मानव जीवन से जुड़े व्यावहारिक ज्ञान ही इसकी प्रमुख सामग्री बताई जाती है।

अथर्ववेद में एक स्थल पर गर्भिणी नारी के प्रति आशीर्वचन या कर्तव्यबोध के मंत्र पढ़ने को मिलते हैं (अथर्ववेद काण्ड ६, सूक्त १८, मन्त्र १-४)। इन्हीं का उल्लेख यहां पर किया जा रहा है। इन मंत्रों में नारी को वृहद् विस्तार वाली पृथिवी (पृथ्वी) की उपमा दी गयी है जो विभिन्न स्थावर (गतिहीन) एवं जंगम (गतिशील) प्राणियों तथा निर्जीव वस्तुओं को अपने में समाये रहती है, उनको आधार प्रदान करती है।  इन चारों मंत्रों के तृतीय-चतुर्थ चरण समान हैं। यहां प्रस्तुत इनके अर्थ सायण-भाष्य पर आधारित हैं। वैसे प्रयुक्त शब्दों को देखें तो इनके अर्थ स्वयं ही सुस्पष्ट हैं।

यथेयं पृथिवी मही भूतानां गर्भमादधे ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी भूतानाम् गर्भम् आदधे एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह महती पृथिवी (धरती) प्राणियों का गर्भ धारण करती है, उनके जीवन को आधार प्रदान करती है, उसी प्रकार (हे नारी) अपने गर्भ को धारण किए रहो ताकि समुचित परिपुष्टता पा चुकने के बाद गर्भ से प्राणी (शिशु) का प्रसव सुरक्षित संपन्न होवे [सामान्यतः मही पृथ्वी के पर्याय के तौर पर इस्तेमाल होता है, किंतु यहां भाष्यकार ने मही को महती, महत् का स्त्रीलिंग रूप = विस्तृत, लालन-पालन में समर्थ, विविधता से परिपूर्ण आदि अर्थ लिया है ऐसा मालूम होता है।]

यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान् वनस्पतीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी इमान् वनस्पतीन् दाधार एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह धरती इन वनस्पतियों – वृक्षों, झाड़ियों, विभिन्न प्रकार की अन्य वनस्पतियों को – पनपने और अपने स्थान पर स्थिर रहने का आधार प्रदान करती है उसी प्रकार (हे नारी) अपने … (यथा पूर्वोक्त)

यथेयं पृथिवी मही दाधार पर्वतान् गिरीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी गिरीन् पर्वतान् दाधार एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह पृथिवी पर्वतों और उनमें स्थित ऊंचे-ऊंचे शिलाखंडों को धारण किए हुए है, उनको स्थिरता प्रदान किए हुए है, उसी प्रकार (हे नारी) अपने … [यथा पूर्वोक्त]।

यथेयं पृथिवी मही दाधार विष्ठितं जगत् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी विष्ठितम् जगत् दाधार एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह पृथिवी विविध प्रकार के रूपों में अवस्थित चर-अचर, सजीव-निर्जीव संसार को अपने ऊपर धारण किए हुए है, उसी प्रकार (हे नारी) अपने … [यथा पूर्वोक्त]।

इन मंत्रों में गर्भवती नारी के लिए यह संदेश निहित है कि हे नारी, तुम्हारे गर्भ में पल रहा प्राणी वांछित गर्भकाल तक सुरक्षित रहे और समुचित समय आने पर प्रसव के लिए तैयार रहे। इसे आशीर्वचन अथवा कर्तव्य के प्रति ध्यान दिलाने के प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है।

भारतीय चिंतन में पाँच महायज्ञों और तीन ऋणों की बातें की गई हैं। (देखेँ – ब्लॉग प्रविष्टि 31 मार्च 2015)

१. देवऋण, २. ऋषिऋण, एवं ३. पितृऋण। पितृऋण के अंतर्गत बहुत से कार्य आते हैं जिनमें एक वंश परंपरा को आगे बढ़ाना भी है। उसी परंपरा के अनुरूप गर्भधारण और भावी संतान की सुरक्षा का संदेश यहां पर दिया है। – योगेन्द्र जोशी

3 टिप्पणियां (+add yours?)

  1. योगेन्द्र जोशी
    मई 05, 2020 @ 14:09:27

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  2. LalmaniTiwari
    जून 05, 2020 @ 06:46:40

    Reblogged this on Lalmani Tiwari's Blog.

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  3. LalmaniTiwari
    जून 05, 2020 @ 06:49:07

    हम हिन्दुस्तानी आज भी वेदों से अनभिज्ञ हैं ! संभवतः यही हमारी दीन दशा का कारण भी है।

    इस लेख के लिए धन्यवाद! 🙏

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