परब्रह्म का पूर्ण ज्ञान किसी को है भी? – केनोपनिषद् में गुरु-शिष्य संवाद

 

वैदिक साहित्य में उपनिषदों को आध्यात्मिक ज्ञान के ग्रंथ कहा जाता है। यों तो बहुत से ग्रंथ हैं जिन्हें उपनिषद् कहकर संबोधित किया गया है जैसे सूर्योपनिषद्, मृतनादोपनिषद्, नारायणोपनिषद् आदि, किंतु केवल ११ उपनिषदों को ही प्रमुख उपनिषद् माना जाता है। ये उपनिषद् हैं –

(१) ईशावास्योपनिषद्

(२) ऐतरेयोपनिषद्

(३) कठोपनिषद्

(४) केनोपनिषद्

(५) छांदोग्योपनिषद्

(६) तैत्तिरिपनिषद्

(७) प्रश्नोपनिषद्

(८) माण्डूक्योपनिषद्

(९) मुण्डकोपनिषद्

(१०) वृहदारण्यकोपनिषद्

(११) श्वेताश्वतरोपनिषद्

इनमें वृहदारण्यक एवं छान्दोग्य उपनिषद् ग्रंथ अपेक्षया बड़े हैं। शेष सभी पर्याप्त छोटे हैं। सामान्यतः ये सभी भाष्य या टीका-टिप्पणी के साथ मुद्रित ग्रंथ के रूप में मिलते हैं। अन्यथा मंत्रों की संख्या तो बहुत कम रहती है, जैसे ईशोपनिषद् (ईशावास्योपनिषद्) में केवल १८ मंत्र हैं। कदाचित् यह उपनिषद् सर्वाधिक चर्चित है।

मैं इस आलेख में केनोपनिषद् के तीन मंत्रों का उल्लेख कर रहा हूं। इस उपनिषद् के दूसरे खंड में गुरु धर्मोपदेश देने के बाद शिष्य की परत्मात्म तत्व अर्थात् ब्रह्म की समझ के प्रति शंका व्यक्त करते हुए कहता है –

यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् ।

यदस्य त्वं यदस्य च देवेष्वथ नु मीमांस्यमेव ते मन्ये विदितम् ॥१॥

(यदि मन्यसे सु-वेद इति दहरम् एव अपि नूनम् त्वम् वेत्थ ब्रह्मणः रूपम्, यद् अस्य त्वम्, यद् अस्य च देवेषु, अथ नु मीमांस्यम् एव ते मन्ये विदितम् ।)

यदि मानते हो कि तुम ब्रह्म के स्वरूप को भली भांति जान चुके हो तो तुम्हारा ज्ञान वस्तुतः अल्पमात्र, है। तुम में और देवताओं में परमात्मा के अंश की विद्यमानता का तुम्हारा ज्ञान अवश्य ही विचारणीय है (भले ही वह अपर्याप्त है)। [वेत्थ = जानते हो । मेरी जानकारी में यह आया कि कुछ ग्रंथों में ‘दहरम्’ के स्थान पर दभ्रम् मुद्रित मिलता है। दोनों के अर्थ एक ही हैं – अल्प।]

शिष्य गुरु को बताता है कि

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।

यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥२॥

(न अहम् मन्ये सु-वेद इति, नो न वेद इति, वेद च, यः नः तद् वेद तद् वेद नो न वेद इति वेद च ।) [वेद = जानता हूं; नो = नहीं; (उपसर्ग) सु = अच्छी तरह]

अंतिम सत्य के रूप में ब्रह्मतत्व को पूर्ण रूप से जान चुका हूं ऐसा मैं नहीं मानता। मैं नहीं ही जानता ऐसा भी नहीं; जानता भी हूं। हम शिष्यों में जो उसे (ब्रह्म को) जानता है वही मेरे उक्त कथन “नहीं जानता ऐसा भी नहीं है; जानता भी हूं” इसका आशय समझता है।

मुझे यह इस मंत्र का निहितार्थ पहेली जैसा लगता है। शिष्य का यह कहना कि मैं नहीं जानता ऐसी बात नहीं है क्योंकि मैं जानता भी हूं। कदाचित् शिष्य का यह कहना है कि वह परब्रह्म को पूर्णरूपेण जान चुका है ऐसा दावा वह नहीं कर सकता; उसे अभी अपनी समझ पूर्णता तक ले जाना है। अगले मंत्र में यह भाव कुछ-कुछ स्पष्ट हो जाते हैं।

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद   सः ।

अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥२॥

(यथा पूर्वोक्त)

(यस्य अमतम् तस्य मतम्, मतम् यस्य न वेद सः अ-विज्ञातम् विजानताम् विज्ञातम् अ-विजानताम् ।)

परब्रह्म के ज्ञान का जिसका मत अव्यक्त है वही वस्तुतः जानता है। जो जान लेने का मत व्यक्त करता है वह वस्तुतः जानता नहीं है। जानने का अभिमान रखने वालों के लिए ब्रह्म जाना हुआ नहीं है और जो जानने का दावा नहीं करता वही उसे जानता है।

मुझे यह मंत्र भी एक पहेली-सा लगता है। कदाचित् कहने का प्रयास किया गया है कि ब्रह्मज्ञान भौतिक जगत् के सामान्य ज्ञान की भांति नहीं है। ब्रह्मज्ञान रहस्यमय है, अभौतिक-अलौकिक है, निर्वचनीय है, अभिव्यक्ति से परे है। असल ज्ञानी उसे जान लेने का अभिमान नहीं पालता। वह उसके बारे है कोई दावा करना उचित नहीं मानता है। यही संदेश कदाचित् इस मंत्र में दिया गया है। – योगेन्द्र जोशी

यथेयं पृथिवी मही … – अथर्ववेद में गर्ववती नारी के प्रति शुभेच्छा संदेश

प्राचीन वैदिक परंपरा में चार वेदों का उल्लेख हैः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद। इनमें से प्रथम तीन को प्रमुख वेद माना जाता है। उनमें देवताओं की स्तुति के मंत्र एवं उनके गायन, यज्ञादि कर्मों के संपादन एवं आध्यात्मिक दर्शन से जुड़े मंत्रों का संकलन ही मुख्यतः देखने को मिलता है। इन वेदों की अपनी-अपनी उपशाखाएं भी हैं और उनसे संबंधित उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण नामक अन्य ग्रंथ भी वैदिक साहित्य में शामिल मिलते हैं। चतुर्थ वेद, अथर्ववेद, किंचित् भिन्न है और मानव जीवन से जुड़े व्यावहारिक ज्ञान ही इसकी प्रमुख सामग्री बताई जाती है।

अथर्ववेद में एक स्थल पर गर्भिणी नारी के प्रति आशीर्वचन या कर्तव्यबोध के मंत्र पढ़ने को मिलते हैं (अथर्ववेद काण्ड ६, सूक्त १८, मन्त्र १-४)। इन्हीं का उल्लेख यहां पर किया जा रहा है। इन मंत्रों में नारी को वृहद् विस्तार वाली पृथिवी (पृथ्वी) की उपमा दी गयी है जो विभिन्न स्थावर (गतिहीन) एवं जंगम (गतिशील) प्राणियों तथा निर्जीव वस्तुओं को अपने में समाये रहती है, उनको आधार प्रदान करती है।  इन चारों मंत्रों के तृतीय-चतुर्थ चरण समान हैं। यहां प्रस्तुत इनके अर्थ सायण-भाष्य पर आधारित हैं। वैसे प्रयुक्त शब्दों को देखें तो इनके अर्थ स्वयं ही सुस्पष्ट हैं।

यथेयं पृथिवी मही भूतानां गर्भमादधे ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी भूतानाम् गर्भम् आदधे एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह महती पृथिवी (धरती) प्राणियों का गर्भ धारण करती है, उनके जीवन को आधार प्रदान करती है, उसी प्रकार (हे नारी) अपने गर्भ को धारण किए रहो ताकि समुचित परिपुष्टता पा चुकने के बाद गर्भ से प्राणी (शिशु) का प्रसव सुरक्षित संपन्न होवे [सामान्यतः मही पृथ्वी के पर्याय के तौर पर इस्तेमाल होता है, किंतु यहां भाष्यकार ने मही को महती, महत् का स्त्रीलिंग रूप = विस्तृत, लालन-पालन में समर्थ, विविधता से परिपूर्ण आदि अर्थ लिया है ऐसा मालूम होता है।]

यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान् वनस्पतीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी इमान् वनस्पतीन् दाधार एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह धरती इन वनस्पतियों – वृक्षों, झाड़ियों, विभिन्न प्रकार की अन्य वनस्पतियों को – पनपने और अपने स्थान पर स्थिर रहने का आधार प्रदान करती है उसी प्रकार (हे नारी) अपने … (यथा पूर्वोक्त)

यथेयं पृथिवी मही दाधार पर्वतान् गिरीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी गिरीन् पर्वतान् दाधार एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह पृथिवी पर्वतों और उनमें स्थित ऊंचे-ऊंचे शिलाखंडों को धारण किए हुए है, उनको स्थिरता प्रदान किए हुए है, उसी प्रकार (हे नारी) अपने … [यथा पूर्वोक्त]।

यथेयं पृथिवी मही दाधार विष्ठितं जगत् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥

[यथा इयम् मही पृथिवी विष्ठितम् जगत् दाधार एवा ते गर्भः अनु-सूतुम् सवितवे ध्रियताम् ।]

अर्थ – जिस प्रकार यह पृथिवी विविध प्रकार के रूपों में अवस्थित चर-अचर, सजीव-निर्जीव संसार को अपने ऊपर धारण किए हुए है, उसी प्रकार (हे नारी) अपने … [यथा पूर्वोक्त]।

इन मंत्रों में गर्भवती नारी के लिए यह संदेश निहित है कि हे नारी, तुम्हारे गर्भ में पल रहा प्राणी वांछित गर्भकाल तक सुरक्षित रहे और समुचित समय आने पर प्रसव के लिए तैयार रहे। इसे आशीर्वचन अथवा कर्तव्य के प्रति ध्यान दिलाने के प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है।

भारतीय चिंतन में पाँच महायज्ञों और तीन ऋणों की बातें की गई हैं। (देखेँ – ब्लॉग प्रविष्टि 31 मार्च 2015)

१. देवऋण, २. ऋषिऋण, एवं ३. पितृऋण। पितृऋण के अंतर्गत बहुत से कार्य आते हैं जिनमें एक वंश परंपरा को आगे बढ़ाना भी है। उसी परंपरा के अनुरूप गर्भधारण और भावी संतान की सुरक्षा का संदेश यहां पर दिया है। – योगेन्द्र जोशी

“हृद्रोगं मम सूर्य नाशय” – ऋग्वेद में रोग-मुक्ति की प्रार्थना

वैदिक ग्रंथ ऋग्वेद में तमाम देवी-देवताओं की प्रार्थनाएं हैं जिनमें इन्द्र एवं अग्नि प्रमुख हैं। दरअसल वैदिक मान्यता के अनुसार प्रकृति के सभी घटकों, जैसे जल, अग्नि, वायु, वर्षा, आदि के पीछे कोई न कोई चेतन दैवी शक्ति सक्रिय रहती है। सूर्य भी उनमें से एक है जो स्थूल रूप से प्रकाशित होने वाला आकाशीय पिंड का स्वामी है। सूर्य को कभी-कभी सविता के तौर पर भी पूजा जाता है जिसका तात्पर्य है कि वह प्राणियों की उत्पत्ति और उनके जीवन का आधार है। उसी सूर्य से स्वास्थ्य की कामना के तीन मंत्र (ऋचाएं) ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में मुझे पढ़ने को मिले हैं, जिनका उल्लेख मैं यहां पर कर रहा हूं। मेरी व्याख्या का आधार सायणाचार्य-कृत भाष्य (सायण-भाष्य) है जिसे मैंने अपने सीमित संस्कृत-ज्ञान के बल पर समझने का प्रयास किया है।

प्रार्थना का पहला मंत्र है –

उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्।

हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥११॥

(ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त ५०)

हे सूर्य प्राणियों के महान् मित्रवत् दीप्तिमान इस समय उदित होकर अंतरिक्ष (दिव) में ऊपर उठ रहे हो ऐसे तुम मेरे हृदयगत एवं दैहिक “हरिमाण” रोग का नाश करो।

यह ऋचा सूर्योदय के समय की जाने वाली प्रार्थना प्रतीत होती है। हृदयगत का तात्पर्य मानसिक रोग से है। इस मंत्र में “हरितवर्ण” वस्तुतः है क्या? सायण-भाष्य में इसकी दो प्रकार से व्याख्या की गई है। पहला, वह रोग जो शरीर के स्वाभाविक वर्ण को छीनकर उसे कांतिविहीन कर रहा हो (हर लिया है वर्ण यानी रंग जिसने)। रोगी का शरीर कांतिविहीन हो जाता है। उसके चेहरे की रौनक गायब हो जाती है। ऐसे रोग के नाश के लिए प्रार्थना की गई है। दूसरी व्याख्या है हरा वर्ण (रंग) यानी वह रोग जो शरीर का रंग हरा कर दे। आप्टे के शब्दकोश में हरित का अर्थ पीलापन भी दे रखा है। कदाचित् मंत्रद्रष्टा ऋषि का संकेत पीलिया की ओर होगा। प्रातःकालीन धूप रोगी के स्वास्थ्य के लिए कदाचित लाभकर हो।

अगला मंत्र है –

शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ।

अथो हारिद्रवेषु मे अरिमाणं नि दध्मसि ॥१२॥

(यथोपर्युक्त)

मेरे शरीर के इस हरित-वर्ण के रोग को हम शुक (तोता) तथा शारिका (पक्षी विशेष का नाम) पक्षियों में स्थापित करते हैं। अथवा मेरे इस हरित-वर्ण रोग को हरे-पीले पेड़ों (कदंब?) पर हम स्थापित कर दें।

इस मंत्र का अर्थ मेरे लिए बहुत स्पष्ट नहीं है। भाष्य में रोपणाका का अर्थ शारिका दिया है, जिसे हिन्दी शब्दकोश में मैना कहा गया है। तोते का रंग हरा-पीला होता है किंतु मैना का रंग हल्का भूरा-सलेटी होता है। उसकी चोंच अवश्य ही सुर्ख पीली होती है। मुझे लगता है कि इस मंत्र के माध्यम से सूर्य की उपासना की जा रही है कि मेरे शरीर के रोगजनित हरित-वर्ण को मुझसे दूर करके उन्हीं पक्षियों, पेड़-पौधों तक सीमित रहने दो जिनके लिए यह रंग स्वाभाविक/प्राकृतिक है। अर्थात् मुझे रोगमुक्त कर दो।

तीसरी और अंतिम ऋचा ये है –

उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।

द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥१३॥

(यथोपर्युक्त)

अदिति-पुत्र आदित्य यहसूर्य पूरे बल से ऊपर अंतरिक्ष में चढ़ता है और मेरे प्रति उपद्रवकारी रोग का नाश करता है। मैं स्वयं उस  द्वेषमय रोग के प्रति हिंसा नहीं करता।

मंत्र का अर्थ अपेक्षया सरल है। अर्थ कितना सारगर्भित है मैं कह नहीं सकता। कदाचित् मंत्रवक्ता रोग-निवारण का श्रेय प्रातःकालीन उदित हो रहे सूर्य को देता है जिसकी किरणें रोग से लड़ने में सहायक हों।

वैदिक प्रार्थनाएं कितनी कारगर होती हैं किसी प्रयोजन को सिद्ध करने में इसका कोई अनुभव मुझे नहीं है। किंतु इतना कहा जा सकता कि सूर्य की हल्की (प्रातःकालीन) धूप अवश्य ही स्वास्थ्य-वर्धक होती है। यही संदेश इन वैदिक ऋचाओं में दिखाई देता है। – योगेन्द्र जोशी

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“… सनिं मेधामयासिषं …” – यजुर्वेद में अग्नि देवता से बुद्धि एवं धन की प्रार्थना

वेदों में देवताओं की प्रार्थना से संबंधित अनेक मंत्र पढ़ने को मिलते हैं। ये देवता कौन हैं, क्या हैं, यह मैं नहीं समझ पाया हूं। प्रकृति की विभिन्न शक्तियों के अमूर्त नियंता ही ये देवता हैं ऐसा मेरी समझ में आता है। प्राचीन पौराणिक साहित्य में भी देवताओं से जुड़ी कथाओं का वर्णन मिलता है। लेकिन उन कथाओं से यह नहीं लगता कि देवतागण प्रकृति की शक्तियों के प्रतीक हैं। बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि वे पुण्यकर्मों के फलस्वरूप देवत्व-प्राप्त एवं विशिष्ट सामर्थ्य से संपन्न स्वर्गस्थ आत्माएं होती हैं जो पुण्यकर्मों के भोग के बाद पुनः धरती पर जन्म लेती हैं जैसा कि विष्णुपुराण में पढ़ने को मिलता है (गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदहेतुभूते भवन्ति भूयः मनुजाः सुरत्वात् ॥)। बहरहाल मैं वेदों एवं पुराणों में चर्चित देवताओं में क्या अंतर है – यदि है तो – इसकी विवेचना नहीं कर रहा हूं, बल्कि अग्नि देवता से जुड़े चार मंत्रों का जिक्र कर रहा हूं।

वेदों में देवताओं की स्तुतिपरक मंत्र ही अधिकांशतः देखने को मिलते हैं। इन देवताओं में इन्द्र एवं अग्नि की स्तुतियां बहुतायत में प्राप्य हैं। अग्नि देवता को अन्य सभी देवताओं के प्रतिनिधि के तौर पर देखा गया है, क्योंकि यज्ञ-संपादन में दी जाने वाली आहुतियों का वाहक अग्नि ही है। यज्ञकुंड की प्रज्वलित अग्नि में गोघृत, तिल, जौ आदि से बने सुगंधित हवन सामग्री की जब आहुति दी जाती है तो “स्वाहा” का उच्चारण किया जाता है; उसका अर्थ है कि अग्नि देवता के माध्यम से सभी देवताओं को वह आहुति प्राप्त हो। इसलिए वैदिक अनुष्ठानों में अग्नि देवता और उसके भौतिक प्रतीक प्रज्वलित अग्नि का विशेष महत्व है।

शुक्लयजुर्वेद संहिता में अग्नि देवता को संबोधित चार ऐसे मंत्र मुझे पढ़ने को मिले जिनमें मेधा (उत्कृष्ट श्रेणी की बौद्धिक क्षमता) और धनधान्य की याचना की गई है। उन्ही का उल्लेख मैं यहां पर कर रहा हूं, जिनके अर्थ के लिए मैंने श्रीमद्‍-उवटाचार्य एवं श्रीमद्‍महीधर के भाष्यों का सहारा लिया है। (शुक्लयजुर्वेदसंहिता, अध्याय ३२, कंडिका/मंत्र १३-१६)

सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । सनिं मेधामयासिषं स्वाहा ॥१३॥

(सदसः पतिम् अद्भुतंम् प्रियम् इन्द्रस्य काम्यम् सनिम् मेधाम् अयासिषम् स्वाहा।)

यज्ञशाला के पति/स्वामी, इन्द्र के प्रिय, कामना के योग्य, (अग्नि से) धन (सनि) एवं मेधा की याचना करते हैं; स्वाहा अर्थात्‍ सभी देवताओं के प्रति आहुति।

यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते । तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा ॥१४॥

(याम् मेधाम् देवगणाः पितरः च उपासते तया माम् अद्य मेधया अग्ने मेधाविनम् कुरु स्वाहा।)

जिस मेधा की उपसना देवगण और पितृवृन्द करते हैं, हे अग्नि आज मुझे उस मेधा से मेधावी (मेधावान्‍) बनावें; स्वाहा।

मेधां मे वरुणो ददातु मेधामग्निः प्रजापतिः । मेधामिन्द्रश्च वायुश्च मेधां धाता ददातु मे स्वाहा ॥१५॥

(मेधाम् मे वरुणः ददातु मेधाम् अग्निः प्रजापतिः मेधाम् इन्द्रः च वायुः च मेधाम् धाता ददातु मे स्वाहा।)

वरुण देवता मुझे मेधा प्रदान करें, अग्नि मेधा दें, प्रजापति (ब्रह्मा), इन्द्र एवं वायु मेधा दें, विधाता मुझे मेधा प्रदान करें; स्वाहा।

इदं मे ब्रह्म क्षत्रं चोभे श्रियमस्नुताम् मयि देवा दधतु श्रियमुत्तरां तस्यै ते स्वाहा ॥१६॥

(इदम् मे ब्रह्म क्षत्रम् च उभे श्रियम् अस्नुताम्मयि देवा दधतु श्रियम् उत्तराम् तस्यै ते स्वाहा।)

मेरी श्री (धन-संपदा) का भोग ब्राह्मण और क्षत्रिय, दोनों, करें। देवगण मुझे धन-ऐश्वर्य प्रदान करें; उसके लिए (अग्नि!) आपके प्रति आहुति; स्वाहा।

मेरी जानकारी के अनुसार वैदिक काल में यज्ञ-संपादन दैनिक जीवन का अंग हुआ करता था, और उसके लिए यज्ञशाला (सदस्) में अग्नि प्रज्वलित रहती थी। अग्नि को इस यज्ञगृह का स्वामी या पालनकर्ता कहा गया है। प्रथम मंत्र में अग्नि को इन्द्र के प्रिय साथी के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। मेधा बुद्धि का पर्याय है; किंतु मेरी समझ में यह विवेक से परिपूर्ण बुद्धि है। आम तौर पर मनुष्य को बुद्धि सन्मार्ग पर ले चले यह आवश्यक नहीं। मेधा उत्कृष्ट स्तर की बुद्धि है जो उचितानुचित में भेद करने की प्रेरणा देती है।

पितरों से तात्पर्य पूर्वजों से होना चाहिए जो मेधा की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते रहे हों। देवगणों द्वारा उपासना का अर्थ कुछ भिन्न होना चाहिए, क्योंकि वे तो मेधा का वरदान स्वयं ही देते हैं। उनकी उपासना से अर्थ यही होगा की मेधा की श्रेष्ठता/महत्ता को वे भी स्वीकारते हैं और उसे उपास्य के तौर पर देखते हैं।

तीसरी कंडिका में वरुण (जल के देवता) आदि अन्य प्रमुख देवताओं का संबोधन स्पष्टतः करते हुए सभी से मेधा की याचना की गई है।

अंतिम मंत्र में यह यज्ञकर्ता कहता है उसका धन, जिसकी याचना प्रारंभ में की गई है, ब्राह्मणों और क्षत्रियों के भोग के लिए भी उपलब्ध होवे न कि अकेले उसके भोग के लिए। यहां पर केवल दो वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय) का नाम शामिल किया गया है। वैदिक काल में कार्य (पेशा) विभाजन के अनुरूप समाज चार वर्णों में विभक्त था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। मेरा सोचना है कि इस कथन का आशय होना चाहिए कि मेरा धन समाज के उपयोग में आवे। तब केवल ब्राह्मण एवं क्षत्रिय का उल्लेख क्यों किया है? कदाचित् यह मंत्र के छंद-स्वरूप को सुसंगत बनाये रखने के लिए किया गया होगा। इसलिए केवल दो वर्णों का उल्लेख पूरे समाज को इंगित करने हेतु किया गया होगा ऐसा मेरा सोचना है। इस प्रकार इस मंत्र में ‘मेरा धन समाज-हित में प्रयुक्त होवे’ यह भावना निहित है। – योगेन्द्र जोशी

अथर्ववेद में गर्भिणी नारी के प्रति शुभाशीर्वचन – “ते ध्रियतां गर्भो …”

“अथर्ववेद” चार वेदों में चौथा वेद है। वेदों का उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के क्रम में ही किया जाता है। इनकी रचना शायद इसी क्रम में की गयी होगी। रचना कहना कदचित उचित नहीं होगा, क्योंकि कोई भी वेद किसी एक ऋषि की रचना नहीं। मान्यता यह है कि वैदिक मंत्रों के अलग-अलग अनेक “मंत्रद्रष्टा” रहे हैं, जिन्हें विभिन्न मंत्रों का दैवी ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्हीं मंत्रों का कालांतर में इन चार वेदों के रूप में संकलन किया गया; संकलनकर्ता संभवतः महर्षि व्यास (वेदव्यास) थे। व्यास कोई एक व्यक्ति थे ऐसा मुझे नहीं लगता है। कदाचित व्यास गुरु-शिष्य की आश्रमिक व्यवस्था में पद अथवा उपाधि रही होगी।

अथर्ववेद पहले के तीन वेदों से कुछ हटकर है। इसमें व्यावहारिक जीवन की बातें भी शामिल हैं। यह वेद काण्डों में विभाजित है; हर कांड में सूक्त हैं और सूक्तों में मंत्र। इस वेद के 6ठे कांड में चार मंत्र मुझे देखने को मिले हैं जिनमें गर्भिणी नारी के प्रति शुभाशीर्वाद के वचन व्यक्त हैं। उन्हीं का उल्लेख यहां पर किया जा रहा है:

(अथर्ववेद, काण्ड 6, सूक्त 18)

यथेयं पृथिवी मही भूतानां गर्भमादधे ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥1॥

(यथा इयं पृथिवी मही भूतानां गर्भम्‍ आदधे एवा ते ध्रियतां गर्भः अनु सूतुं सवितवे।)

जिस प्रकार यह महान् पृथिवी सभी प्राणियों को अपने में धारण किये रहती है, उसी प्रकार (हे नारि) समुचित अवधि पर प्रसव हेतु तुम्हारा गर्भ धारण रहे (अस्थिर न होने पावे)।

यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान् वनस्पतीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥2॥

(यथा इयं पृथिवी मही दाधार इमान् वनस्पतीन् एवा ते ध्रियतां गर्भः अनु सूतुं सवितवे।)

जिस प्रकार यह महान्‍ पृथिवी इन वनस्पतियों को अपने में धारण किये रहती है, उसी प्रकार (हे नारि) समुचित अवधि पर प्रसव हेतु तुम्हारा गर्भ धारण रहे (अस्थिर न होने पावे)।

यथेयं पृथिवी मही दाधार पर्वतान् गिरीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥3॥

(यथा इयं पृथिवी मही दाधार पर्वतान् गिरीन् एवा ते ध्रियतां गर्भः अनु सूतुं सवितवे।)

जिस प्रकार यह महान्‍ पृथिवी पर्वतों-चट्टानों को अपने में धारण किये रहती है, उसी प्रकार (हे नारि) समुचित अवधि पर प्रसव हेतु तुम्हारा गर्भ धारण रहे (अस्थिर न होने पावे)।

यथेयं पृथिवी मही दाधार विष्ठितं जगत् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥4॥

(यथा इयं पृथिवी मही दाधार वि-स्थितम्‍ जगत् एवा ते ध्रियतां गर्भः अनु सूतुं सवितवे।)

जिस प्रकार यह महान्‍ पृथिवी विविध चर-अचर जीवों एवं निर्जीव वस्तुओं का जगत्‍ अपने में धारण किये रहती है, उसी प्रकार (हे नारि) समुचित अवधि पर प्रसव हेतु तुम्हारा गर्भ धारण रहे (अस्थिर न होने पावे)।

पहले मंत्र में भूत शब्द चर यानी जंगम प्राणियों के लिए किया गया है। अचर (स्थावर) वनस्पतियों का उल्लेख दूसरे मंत्र में है। दोनों प्रकार के प्राणी इस धरती पर जन्म लेते हैं और पनपते हैं। नारी के गर्भ की तुलना इसी धरती से की गयी है, क्योंकि नारी गर्भ में भी मानव शिशु के जीवन का आरंभ होता है और दसवें मास की अवधि तक उसे गर्भ में ही वृद्धि पाने का अवसर और सुरक्षित रहने का ठौर मिलता है। इतना ही नहीं, इसी धरती पर तमाम निर्जीव वस्तुएं यथा पर्वत और शिलाखंड भी टिके रहते हैं। जिस प्रकार धरती समस्त चराचर प्राणियों एवं वस्तुओं को आधार एवं सुरक्षा प्रदान करने में समर्थ होती है, उसी प्रकार नारी के गर्भ को भी वह सामर्थ्य प्राप्त हो जिससे  अजन्मा प्राणी विकसित हो सके और समुचित अंतराल पर जन्म लेने तक सुरक्षित रह सके। यही भावना इन मंत्रों में व्यक्त की गई है। – योगेन्द्र जोशी

संन्यास.धर्म के बारे में महाभारत में व्यक्त विचार – अहिंसकः समः … (3)

महाकाव्य महाभारत में महर्षि व्यास द्वारा अपने पुत्र शुकदेव को दिए गए धर्मोपदेश के अंतर्गत संन्यास धर्म की बातें भी कही गई हैं । पिछले दो ब्लॉग-प्रविष्टियों (दिनांक 11 मई 2016 एवं 7 मई 2016) में मैंने उस लंबे संवाद से संबंधित कुछ चुने हुए श्लोकों को उद्धृत किया था । अधोलिखित विवेचना में मैं चुने हुए अन्य तीन श्लोकों को प्रस्तुत कर रहा हूं ।

अहिंसकः समः सत्यो धृतिमान्नियतेन्द्रियः ।

शरण्यः सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥20

(महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्मपर्व, अध्याय 245)

(अहिंसकः समः सत्यः धृतिमान् नियत-इन्द्रियः शरण्यः सर्व-भूतानाम् गतिम् आप्नोति अन्-उत्तमाम् ।)

हिंसा की भावना से मुक्त, सबके प्रति समान भाव वाला, सत्यनिष्ठ, धैर्यवान, संयमित इंद्रियों वाला, सभी प्राणियों के शरण के योग्य मनुष्य उत्तमतम गति प्राप्त करता है । (अनुत्तमाम्  के स्थान पर अत्युत्तमाम्  भी हो सकता है।)

          इस श्लोक में अनुत्तमाम् शब्द का अर्थ है वह जिससे उत्तमतर कुछ न हो यानी सर्वोत्तम (न+उत्तम) । सामान्यतः इसका अर्थ लिया जाएगा जो अच्छा नहीं हो  । ग्रंथ का कहना है कि उक्त गुणों से संपन्न संन्यासी परलोक में उत्तमतर दशा प्राप्त करता है, अपने सत्कर्मों का फल भोगता है ।

विमुक्तं सर्वसङ्गेभ्यः मुनिमाकाशवत् स्थितम् ।

अस्वमेकचरं शान्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥22

(यथोपर्युक्त)

(विमुक्तम् सर्व-सङ्गेभ्यः मुनिम् आकाशवत् स्थितम् अस्वम् एकचरं शान्तम् तम् देवाः ब्राह्मणम् विदुः ।)

जो पुरुष सभी के साथ की इच्छा से मुक्त हो, मौनव्रती तपस्वी हो, आकाश की तरह स्थिर हो, ‘मेरा है’की भावना से ग्रस्त न हो, अकेला विचरण करने वाला हो, शांतचित्त हो, उसे देवतागण ब्राह्मण कहते हैं ।

          ध्यान रहे कि इस स्थल पर ब्राह्मण शब्द का अर्थ प्राचीन सामाजिक वर्ण-व्यवस्था के चार वर्णो में से एक ‘ब्राह्मण’नहीं है । यहां इसका अर्थ ब्रह्मवेत्ता अर्थात् ज्ञानी लिया जाना चाहिए । वर्णाश्रम व्यवस्था में भी ब्राह्मण वह होता था जिसे आध्यात्मिक ज्ञान हो और जो लोगों को शिक्षित करता हो । संन्यासी के लिए समूह में रहना वर्जित रहा है, क्योंकि उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह सबसे संबंध तोड़कर मेरे-तेरे की भावना से मुक्त हो चुका हो ।

निराशिषमनारम्भं निर्नमस्कारमस्तुतिम् ।

निर्मुक्तं बन्धनैः सर्वैस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥24

(यथोपर्युक्त)

(निर्-आशिषम् अन्-आरम्भं निर्-नमस्कारम् अस्तुतिम् निर्-मुक्तम् बन्धनैः सर्वैः तम् देवाः ब्राह्मणम् विदुः ।)

जिसे कामनाएं न हों, जो कुछ अर्जित करने का प्रयास न करे, जिसे दूसरों से नमस्कार या सम्मान की अपेक्षा न हो, जो प्रशंसा की इच्छा न रखता हो, सभी बंधनों से मुक्त हो, उसे देवतागण ब्राह्मण अथवा संन्यासी कहते हैं ।

          उपर्युक्त श्लोक में संन्यासी के अतिरिक्त गुणों का उल्लेख किया गया है । सार-संक्षेप यह है कि संन्यासी सभी इच्छाओं-आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के परे होता है । हर व्यक्ति का सबसे बड़ा बंधन उसका स्वयं का परिवार होता है, उसके बाद संबंधियों-मित्रों से वह बंधा रहता है । संन्यासधर्म में प्रवेश करने के लिए सर्वप्रथम इन रिश्तों को तोड़ना होता है । तत्पश्चात् अपनी सभी सांसारिक कमजोरियों से अपने को अलग करना होता है । यह प्रक्रिया प्रबल संकल्प-शक्ति की मांग करता है ।

क्या आज के युग में इस संन्यासधर्म के अनुसार चलने वाला कोई है ? महाभारत ग्रंथ में यह भी स्पष्ट किया गया है कि गेरुआ वस्त्र धारण करने से कोई संन्यासी नहीं होता । इस बात की चर्चा अगले चिट्ठा-लेख में की जाएगी । – योगेन्द्र जोशी

 

 

“चरैवेति चरैवेति” (ऐतरेय ब्राह्मण) – (2) राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को इंद्रदेवता का “चरैवेति” का उपदेश

पिछली पोस्ट में मैंने राजा हरिश्चंद्र और वरुण देवता से वरदान में मिले उनके पुत्र रोहित की कथा का आरंभिक अंश प्रस्तुत किया था । कथा के अनुसार राजा ने रोहित को लेकर वरुण देवता का यज्ञ करना था, जिसको जानने पर रोहित वन को चला गया । वर्षोपरांत उसने घर लौटना चाहा तो मार्ग में ब्राह्ण भेषधारी इंद्र उसे मिल गये । ब्राह्मण के विचारों से प्रेरित होकर वापस पर्यटन पर चला गया । दूसरे वर्ष के समाप्त होते-होते जब वह घर लौटने लगा तो ब्राह्मण रूप में इंद्र उसे फिर मिल गए । ब्राह्मण ने उसे पुनः “चरैवेति” का उपदेश देते हुए पर्यटन करते रहने की सलाह दी –

पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।

शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति ॥

(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)

(चरतः जङ्घे पुष्पिण्यौ, भूष्णुः आत्मा फलग्रहिः, अस्य श्रमेण प्रपथे हतः सर्वे पाप्मानः शेरे, चर एव इति ॥)

अर्थ – निरंतर चलने वाले की जंघाएं पुष्पित होती हैं, अर्थात उस वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं की भांति होती है जिन पर सुगंधित एवं फलीभूत होने वाले फूल लगते हैं, और जिसका शरीर बढ़ते हुए वृक्ष की भांति फलों से पूरित होता है, अर्थात वह भी फलग्रहण करता है । प्रकृष्ट मार्गों पर श्रम के साथ चलते हुए उसके समस्त पाप नष्ट होकर सो जाते हैं, अर्थात निष्प्रभावी हो जाते हैं । अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) ।

इस श्लोक की व्याख्या मुझे सरल नहीं लगी । सायण भाष्य के अनुसार विचरणशील व्यक्ति की जांघों के श्रम के फलस्वरूप मनुष्य को विभिन्न स्थानों पर भांति-भाति के भोज्य पदार्थ प्राप्त होते हैं जिनसे उसका शरीर वृद्धि एवं आरोग्य पाता है । प्रकृष्ट मार्ग के अर्थ श्रेष्ठ स्थानों यथा तीर्थस्भल, मंदिर, महात्माओं-ज्ञानियों के आश्रम-आवास से लिया गया है । इन स्थानों पर प्रवास या उनके दर्शन से उसे पुण्यलाभ होता है अर्थात उसके पाप क्षीण होकर पिष्प्रभावी हो जाते हैं ।

राजपुत्र रोहित ने ब्राह्मण की बातों को मान लिया और वह घर लौटने का विचार त्यागकर पुनः देशाटन पर निकल गया । घूमते-फिरते तीसरा वर्ष बीतने को हुआ तो उसने वापस घर लौटने का मन बनाया । इस बार भी इन्द्र देव ब्राह्मण भेष में उसे मार्ग में दर्शन देते है । वे उसे पुनः “चरैवेति” का उपदेश देते हैं । वे कहते हैं –

आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।

शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥

(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)

(आसीनस्य भग आस्ते, तिष्ठतः ऊर्ध्वः तिष्ठति, निपद्यमानस्य शेते, चरतः भगः चराति, चर एव इति ॥)

अर्थ – जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है । और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो (चर एव) ।

सौभाग्य से तात्पर्य धन-संपदा, सुख-समृद्धि से है । जो व्यक्ति निक्रिय बैठा रहता है, जो उद्यमशील नहीं होता, उसका ऐश्वर्य बढ़ नहीं पाता है । जो उद्यम हेतु उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी आगे बढ़ने के लिए उद्यत होता है । जो आलसी होता है, सोया रहता है, निश्चिंत पड़ा रहता है, उसका ऐश्वर्य नष्ट होने लगता है, उसकी समुचित देखभाल नहीं हो पाती । उसके विपरीत जो कर्मठ होता है, उद्यम में लगा रहता है, जो ऐश्वर्य-वृद्धि हेतु विभिन्न कार्यों को संपन्न करने के लिए भ्रमण करता है, यहां-वहां जाता है उसके सौभाग्य की भी वृद्धि होती है, धन-धान्य, संपदा, आगे बढ़ते हैं ।

पर्यटन में लगे रोहित का एक और वर्ष बीत गया और वह घर लौटने लगा । पिछली बारों की तरह इस बार भी उसे मार्ग में ब्राह्मण-रूपी इंद्र मिल गए, जिन्होंने उसे “चरैवेति” कहते हुए पुनः भ्रमण करते रहने की सनाह दी । रोहित उनके बचनों का सम्मान करते हुए फिर से पर्यटन में निकल गया ।

इस प्रकार रोहित चार वर्षों तक यत्रतत्र भ्रमण करता रहा । चौथे वर्ष के अंत पर जब वह घर लौटने को उद्यत हुआ तो मार्ग में उसे ब्राह्मण भेष में इंन्द्रदेव पुनः मिल गए । उन्होंने हर बार की तरह “चरैवेति” का उपदेश दिया और कहा –

कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।

उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति ॥

(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)

 (शयानः कलिः भवति, संजिहानः तु द्वापरः, उत्तिष्ठः त्रेता भवति, चरन् कृतं संपाद्यते, चर एव इति ।)

अर्थ – शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है । अतः तुम चलते ही रहो (चर एव) ।

इस श्लोक में मनुष्य की चार अवस्थाओं की तुलना चार युगों से क्रमशः की गई है । ये अवस्थाएं हैं (1) मनुष्य के निद्रामग्न एवं निष्क्रिय होने की अवस्था, (2) जागृति किंतु  आलस्य में पड़े रहने की अवस्था, (3) आलस्य त्याग उठ खड़ा होकर कार्य के लिए उद्यत होने की अवस्था, और (4) कार्य-संपादन में लगते हुए चलायमान होना । ब्राह्मण रूपी इन्द्र रोहित को समझाते हैं कि जैसे युगों में सत्ययुग उच्चतम कोटि का कहा जाता है वैसे ही उक्त चौथी अवस्था श्रेष्ठतम स्तर की कही जाएगी । उस युग में समाज सुव्यस्थित होता था और सामाजिक मूल्यों का सर्वत्र सम्मान था । उसके विपरीत कलियुग सबसे घटिया युग कहा गया है क्योंकि इस युग में समाज में स्वार्थपरता सर्वाधिक रहती है और परंपराओं का ह्रास देखने में आता है । उपर्युक्त पहली अवस्था इसी कलियुग के समान निम्न कोटि की होती है ।

उक्त प्रकार से संचरण में लगे रोहित के पांच वर्ष व्यतीत हो गये । कथा के अनुसार ब्राह्मण भेषधारी इन्द्र ने अंतिम (पांचवीं) बार फिर से रोहित को संबोधित करते हुए “चरैवेति” के महत्व का बखान किया । तदनुसार पुनः भ्रमण पर निकले रोहित को अजीगर्त नामक एक निर्धन ब्राह्मण के दर्शन हुए । उक्त वाह्मण से उसने उनके पुत्र, शुनःशेप, को खरीद लिया ताकि वह बालक वरुणदेव के लिए संपन्न किए जाने वाले यज्ञ में स्वयं के बदले इस्तेमाल कर सके ।

शुनःशेप (विकल्पतः शुनःशेफ) से संबंधित कथा का शेष और अंतिम भाग अगली पोस्ट में । – योगेन्द्र जोशी

“चरैवेति चरैवेति” (ऐतरेय ब्राह्मण) – (1) इक्ष्वाकुवंशीय राजा हरिश्चन्द्र की पुत्र-कामना की कथा

 ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद की ऋचाओं पर आधारित वैदिक कर्मकांडों से संबंधित ग्रंथ है । उसमें एक कथा का उल्लेख है इक्ष्वाकुवंशीय राजा हरिश्चन्द्र और उनके पुत्र रोहित से संबंधित । उस कथा में पांच श्लोकों का उल्लेख है, जिनके अंतिम चरण का अंत “चरैवेति” से होता है ।

कथा के अनुसार राजा हरिश्चन्द्र की कई रानियां थीं, किंतु उनको किसी से भी पुत्र की प्राप्ति न हो सकी । शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार निष्पुत्र मनुष्य का मृत्योपरांत तारण या उद्धार बिना पुत्र के नहीं होता । राजा को यही चिंता सताती रहती थी ।

एक बार उनके राजमहल में पर्वत एवं नारद नाम के दो ऋषियों ने रात्रि-विश्राम किया । उस अवसर पर राजा ने अपनी चिंता व्यक्त की और ऋषि नारद से पुत्रप्राप्ति का उपाय पूछा । ऋषि ने उनसे कहा कि वे वरुण देवता की प्रार्थना-अर्चना करें जो प्रसन्न होकर उन्हें पुत्रोत्पत्ति का वरदान देंगे ।

राजा ने वही मार्ग अपनाया । कालांतर में वरुण देवता प्रकट हुए और राजा ने उनसे कहा कि वे उन्हें पुत्र का वरदान दें जिसको लेकर वे उनका यजन (यज्ञ) करेंगे ।

टिप्पणी – जहां तक मैं जानता हूं वैदिक काल में यज्ञ में किसी प्रकार के जीवधारी की बलि देना आवश्यक नहीं होता था । फिर भी पशुबलि का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में मिलता है । लेकिन जिस कथा का मैं जिक्र कर रहा हूं उसमें वर्णित घटनाक्रम से प्रतीत होता है कि राजा का विचार अपने भावी पुत्र की ही बलि देने का था । कदाचित वे मतिभ्रम में एक अनुचित वचन वरुणदेव को दे बैठे । इसी कथा में यह उल्लेख भी पढ़ने में आता है कि निंद्य कहते हुए नरबलि को संपन्न करने को कोई तैयार नहीं था ।

कालांतर में राजा के यहां पुत्र जन्म हो गया । तब वरुण देवता प्रकट होकर राजा को उनके संकल्प की याद दिलाई और नवजात को लेकर यज्ञ संपन्न करने को कहा । राजा ने कहा, “अभी तो अशौच की स्थिति है अतः उससे यज्ञ अनुमत नहीं है ।”

देवता वरुण मान गये । 10-दिनी अशौच पूर्ण होने पर वे पुनः प्रकट हुए और उन्होंने राजा को यज्ञ की याद दिलाई । राजा ने इस बार कहा, “किसी पशु की बलि तब तक नहीं दी जाती जब तक उसके दांत न निकल आवें । अतः दांत तो निकलने दीजिए ।”

ठीक है कहते हुए देवता चले गये । जब उस बच्चे के दांत कुछ वर्षों में निकल गये वे पुनः आए और राजा को संकल्प की याद दिलाई । इस बार राजा ने फिर बहाना बनाया और कहा, “जब पशु के आरंभिक (दूध के) सभी दांत गिर जावें तभी उसे यज्ञ में दिया जा सकता है ।”

तथास्तु कहते हुए देवता लौट गये । जब उसके दांत गिर गए तो वरुणदेव ने पुनः राजा को वादे की याद दिलाई । राजा को पुत्रमोह हो चला था, अतः उन्होंने नया बहाना पेश किया । वे बोले, “जब बालक के स्थाई दांत निकल आवें तभी उसका यजन किया जाना चाहिए ।”

इस बार फिर वरुण देवता लौट गए । समयांतर पर बालक के स्थाई दांत आ गये । राजा को उसका संकल्प स्मरण कराने देवता प्रकट हुए । राजा बोले, “हे देव, जब बालक धनुर्विद्या, युद्धकला आदि क्षत्त्रियोचित संस्कार प्राप्त कर ले तो उसके बाद मैं उससे आपका यजन करूंगा ।”

बालक का नाम रोहित था और जब वह उक्त प्रकार से सुसंस्कृत हो गया तो वरुण ने अपनी मांग पुनः दोहराई । इस बार राजा कोई बहाना नहीं बना सके । उन्होंने पुत्र रोहित को पास बुलाकर कहा, “बेटा, मैंने वरुण देवता के वरदान से तुम्हें प्राप्त किया । तब मैंने उन्हें वचन दिया था कि मैं तुम्हें बलि के रूप उन्हें सोंप दूंगा । निःसंदेह यह मेरे पाप-वचन थे । अब मुझे यजन करना ही है ।”

कुमार रोहित को यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था । उसने अपना धनुषादि आयुध उठाए और चला गया वन की ओर । एक वर्ष तक वह देशाटन करता रहा । अलग-अलग स्थलों पर गया, विभिन्न घटनाओं का अनुभव किया । इसी दौरान वरुणदेव के रोष के फलस्वरूप राजा हरिश्चंद्र रोगग्रस्त हो गए । वर्ष बीतते-बीतते रोहित ने पिता के अस्वस्थ होने का समाचार लोगों के मुख से सुना । वह घर लौटने को उद्यत हुआ । वापसी के मार्ग में ब्राह्मण भेष धारण करके इंद्र देवता उससे मिले, जिन्होंने उसे घर जाने के बजाय पुनः पर्यटन-देशाटन करते रहो की सलाह दी । ब्राह्मण ने उसको ज्ञानोपदेश दिया –

नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम ।

पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति ॥

(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)

(रोहित, श्रान्ताय नाना श्रीः अस्ति इति शुश्रुम, नृषद्वरः जनः पापः, इन्द्रः इत् चरतः सखा, चर एव इति ।)

अर्थ – हे रोहित, परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं ऐसा हमने ज्ञानी जनों से सुना है । एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं । विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) ।

            मेरा सोचना है कि ‘श्री’ से यहां मतलब केवल भौतिक संपदा से नहीं है बल्कि स्थान-स्थान पर विचरण करने से प्राप्त ज्ञान, भांति-भांति के लोगों से प्राप्य अनुभव, उनसे सीखे गए कर्म-संपादन का कौशल, आदि से होगा । इंद्र रोहित को बताना चाहते हैं कि सम्मान उसी को मिलता है जो कर्मठ हो, अपने लिए संपदा स्वयं अर्जित करे, दूसरों पर आश्रित न हो । वह स्वयं को अकेला न समझे बल्कि दैव (ईश्वर) पर भरोसा करे ।

ब्राह्मण के उपदेशों से प्रभावित होकर रोहित पुनः देश-प्रदेश में विचरण करने लगा ।

विचरण का यह सिलसिला चार बार और चलता है । प्रत्येक वर्ष के बाद जब रोहित घर लौटने की सोचता है तो मार्ग में फिर ब्राह्ण रूपधारी इन्द्र मिलते हैं जो पुनः “चरैवेति” की सलाह देते हैं । कथा का शेष भाग देखें अगली ब्लॉग-प्रविष्टि में ।

यहां इतना और जोड़ दूं कि “चरैवेति” श्लोकों की व्याख्या ऐतरेय ब्राह्मण गंथ के सायण-भाष्य पर आधारित है । – योगेन्द्र जोशी

ऋग्वेद में औषधीय वनस्पतियों की प्रार्थना (2)

अपने चिट्ठे की पिछली प्रविष्टि (21 मार्च 2014) में मैंने चर्चा की थी कि ऋग्वेद में औषधीय वनस्पतियों की प्रार्थना से संबंधित कुछ ऋचाएं पढ़ने को मिलती हैं । उस आलेख में मैंने तीन ऋचाओं का उल्लेख किया था । इस स्थल पर मैं अतिरिक्त तीन ऋचाएं प्रस्तुत कर रहा हूं ।

आगे बढ़ने से पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि वैदिक ऋषिगण प्रकृति के हर घटक में, जंगम (गतिशील) एवं स्थावर (स्थिर)  कृतियों में, अधिष्ठाता दैवी शक्तियों के अस्तित्व होने का विश्वास करते थे । उनके मत में दैवी शक्तियां वस्तुविशेष के गुणधर्मों पर नियंत्रण रखती हैं । वे मानते थे जिस किसी वस्तु का उपयोग किया जा रहा हो उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जानी चाहिए, उसके प्रति कल्याणप्रद बने रहने की प्रार्थना की जानी चाहिए । प्रकृति को मात्र भोग्य वस्तुओं के संग्रह के रूप में न देखकर उसको हमारे अस्तित्व के चेतन आधार के तौर देखा जाना चाहिए । औषधीय वनस्पतियों के प्रति प्रार्थनाभाव इसी मान्यता से प्रेरित रहा है । इस प्रसंग में प्रस्तुत है एक ऋचा:

          मा वो रिषत्खनिता यस्मै चाहं खनामि वः ।

          द्विपच्चतुष्पदस्माकं सर्वमस्त्वनातुरम् ॥20

          (ऋग्वेद, मण्डल 10, सूक्त 97)

          (अहं खनिता यस्मै च वः खनामि वः मा रिषत् द्विपद्- चतुः-पद् सर्वम् अस्माकं अनातुरम् अस्तु ।)

अर्थः (हे औषधीय वनस्पति) मैं भूमि का खनन करने वाला, और जिसके लिए यह कार्य करता हूं वह, तुम्हारी हिंसा न करें, तुम्हारा नाश न करें । हमसे संबंधित द्विपद (मनुष्यगण) एवं चतुष्पद (पशुगण) रोगमुक्त रहें ।

ओषधि प्राप्ति के लिए भूमि का खननकर्ता वनस्पतियों को हानि तो पहुंचाता ही है । कदाचित प्रार्थना के माध्यम से वह अपनी विवशता व्यक्त करता है । शायद वह यह कहना चाहता है कि अवांझित तौर पर वनस्पतियों को नुकसान पहुंचाना उसका उद्येश्य नहीं । वनस्पतियों को अनावश्यक रूप से नष्ट नहीं करना चाहता है, उनका समूल उच्छेदन नहीं करना चाहता । खननकर्ता के कार्य को हिंसा के तौर पर न देखा जाए । इसके आगे उसकी प्रार्थना है कि औषधियां उससे संबंधित सभी जनों (द्विपद) और पशुसंपदा (चतुष्पद, चौपाये) को रोगमुक्त रखें । अगली ऋचा है:

याश्चेदमुपशृण्वन्ति याश्च दूरं परागताः ।

सर्वाः संगत्य वीरुधोऽस्यै सं दत्त वीर्यम् ॥21

(यथा उपर्युक्त)

(याः च इदम् उपशृण्वन्ति याः च दूरं परागताः सर्वाः वीरुधः संगत्य अस्यै वीर्यम् सं-दत्त ।)

अर्थः इस स्तुति को जो औषधीय लताएं सुन रही हों अथवा जो दूरस्थ हों वे सभी मिलकर इस रोगी को बल प्रदान करें ।

उक्त ऋचा में खननकर्ता द्वारा निकटवर्ती और दूरस्थ औषधीय वनस्पतियों से प्रार्थना की गई है कि वे सभी मिलकर रोगी को रोगमुक्त करें । यहां लता नाम से उन्हें संबोधित किया गया है । लताओं को कदाचित औषधीय गुणों से युक्त सभी वनस्पतियों के प्रतिनिधि के तौर पर देखा गया है । अन्यथा ओषधियां लता से भिन्न रूपों में भी पाई जाती हैं । अंतिम तीसरी ऋचा यों हैः

ओषधयः सं वदन्ते सोमेन सह राज्ञा ।

यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्तं राजन् पारयामसि ॥22

(यथा उपर्युक्त)

(ओषधयः सं-वदन्ते सोमेन राज्ञा सह ब्राह्मणः यस्मै कृणोति तं राजन् पारयामसि ।)

अर्थः सभी ओषधियां राजा सोम के साथ संवाद करती हैं कि हे राजा विशेषज्ञ ब्राह्मण अर्थात वैद्य जिसकी चिकित्सा करें उसे हम रोगों के पार करते हैं ।

सोम चंद्रमा का पर्याय है और उसे औषधीय वनस्पतियों का राजा अथवा अधिष्ठाता देवता माना गया है । इस ऋचा में ओषधियों का अपने राजा चंद्र के साथ संवाद की कल्पना की गई । उनका कथन है कि वे रोग-निवारण में निपुण वैद्य के माध्यम से रोगी को रोगमुक्त करती हैं । प्राचीन काल में वैद्यकी सामान्यतः ब्राह्मणों के कार्यक्षेत्र में रहा होगा ।

वैदिक समाज में भोजन करते, ओषधि सेवन करते, अथवा अन्य कार्य संपन्न करते समय संबंधित वस्तुओं के प्रति कृतज्ञता या प्रार्थना व्यक्त करने की परंपरा रही है । – योगेन्द्र जोशी

 

ऋग्वेद में औषधीय वनस्पतियों की प्रार्थना (1)

          मैंने अपने चिट्ठे की एक प्रविष्टि (31 जनवरी 2010) में औषधीय वनस्पतियों की प्रार्थना संबंधी यजुर्वेद में उपलब्ध मंत्रों का उल्लेख किया था । भावात्मक तौर पर उनसे साम्य रखने वाली ऋचाएं मुझे ऋग्वेद में भी देखने को मिली हैं । मैं उन्हीं में से चुनी हुई कुछएक की चर्चा यहां पर कर रहा हूं:

          याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्चपुष्पिणीः ।

          बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥15

           (ऋग्वेद, मण्डल 10, सूक्त 97)

          (याः फलिनीः याः अफलाः याः अपुष्पाः पुष्पिणीः च बृहस्पति-प्रसूताः ता अंहसः नः मुञ्चन्तु ।)

अर्थ – फलने वाली जो वनस्पतियां हैं या जिन पर फल नहीं लगते हैं, जो पुष्पित नहीं होती अथवा जिन पर फूल खिलते हैं, देव बृहस्पति-जनित ऐसी सभी वनस्पतियां हमें रोगों से मुक्त रखें ।

सभी वनस्पतियां फूलती नहीं हैं, और जो फूलती हैं उन पर फल लगें ही यह भी आवश्यक नहीं हैं । इस मंत्र में औषधीय गुणों वाली ऐसी समस्त वनस्पतियों से प्रार्थना की गई है कि वे उनके समुदाय को रोगों से मुक्त रखें । वैदिक चिंतकों की मान्यतानुसार सृष्टि के सभी तंत्र अपने-अपने अधिष्ठाता देवता से संबद्ध रहते हैं, और वनस्पतियों को उनके औषधीय गुण बृहस्पति देवता से प्राप्त रहते हैं ।

          मुञ्चन्तु मा शपथ्यादथो वरुण्यादुत ।

          अथो यमस्य षड्बीशात् सर्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥16

           (यथा उपर्युक्त)

           (मा शपथ्यात् मुञ्चन्तु अथो वरुण्यात् उत अथो यमस्य षड्बीशात् सर्वस्मात् देवकिल्बिषात् ।)

अर्थ – औषधियां मुझे शापजनित रोग से मुक्त करें, बल्कि वरुण देवता के शाप से भी दूर रखें, यम देवता की बेड़ियों से मुक्त रखें, इतना ही नहीं समस्त दैवप्रदत्त पापों को मुझसे दूर रखें ।

मनुष्य के कष्ट तीन प्रकार के गिनाए गए हैं: आधिभौतिक, आधिदैविक, एवं आघ्यात्मिक । दूसरे मनुष्यों अथवा संसार के अन्य प्राणियों के कारण जो भौतिक कष्ट भोगना पड़ता है उसे आधिभौतिक कहा जाता है । देवताओं के रोष से जो कष्ट भोगना पड़ता है उसे आधिदैविक की संज्ञा दी गई है । अधिकांश कष्टों की अनुभूति इंद्रियों के माध्यम से अनुभव में आती है । इनके अतिरिक्त कभी-कभी विशुद्ध मानसिक कष्ट भी भोगने पड़ते हैं; इन्हीं को आघ्यात्मिक कहा जाता है । ये कष्ट वस्तुतः मन के विकारों के कारण पैदा होते हैं, और उनका कोई स्पष्ट बाह्य कारण नहीं रहता है । उक्त मंत्र में इन सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति की प्रार्थना की गई है । शापजनित कष्ट उसे समझा जा सकता है जो दूसरों के द्वारा कर्मणा अथवा वाचा किसी को पहुंचाया जाता है । दूसरे के अहित की भावना भी कदाचित कष्ट का कारण बन सकता है । इन सभी को शापमूलक मान सकते हैं । वरुण को हाथ में बंधन (फंदा) लिए हुए पश्चिम दिशा का (समुद्र का भी) अधिष्ठाता देवता माना गया है । वरुण देवता के शाप का ठीक-ठीक अर्थ क्या है मैं समझ नहीं पाया । कदाचित जलजनित रोगों से तात्पर्य हो । यम देवता का शाप का अर्थ यही होगा कि उनके रूप में मुत्यु हर क्षण मनुष्य का पीछा करती है । औषधियां कष्टों अथवा मृत्यु के निमित्त बने रोगों से हमें दूर रखती हैं । मनुष्य के अनुचित कर्मों के फल को देवताओं द्वारा दंड-स्वरूप प्रदत्त पाप कहा गया होगा ऐसा मेरा सोचना है ।

           अवपतन्तीरवदन् दिव ओषधयस्परि ।

           यं जीवमश्नवामहै न स रिष्याति पूरुषः ॥17

           (यथा उपर्युक्त)

           (दिव अवपतन्तीः ओषधयः परि अवदन् यं जीवम् अश्नवामहै स पूरुषः न रिष्याति ।)

अर्थ – द्युलोक से धरती पर उतरती औषधियां वचन बोलती हैं कि जिस जीव को हम व्याप्त या आच्छादित कर लें उस पुरुष का विनाश नहीं होता ।

व्याप्त (वि+आप्त) का अर्थ यहां प्राप्त होना लिया जा सकता है । मेरा सोचना है कि प्राचीन मनीषी वनस्पतियों के औषधीय गुण स्वर्ग की देन मानते होंगे । धरती पर होने वाली घटनाएं देवताओं के नियंत्रण में होती हैं, अतः ये औषधियां भी देवों की प्राणियों पर अनुकंपा के परिणाम प्राणियों को प्राप्त होती हैं । स्वर्ग से धरती पर उतरने वाली औषधियां जो कहती हैं उसे वस्तुतः उनके अधिष्ठाता देवता का कथन माना जाना चाहिए । इस कथन में ये उद्गार प्रतिबिंबित होते हैं कि मनुष्य के नाश का कारण अंततः रोग हैं जिन्हें औषधियां दूर कर देती हैं । नीरोग व्यक्ति ही दीर्घजीवी हो सकता है और वही अपने एवं समाज के लिए फलदायी कार्य संपन्न करने में समर्थ होता है । – योगेन्द्र जोशी

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