परब्रह्म का पूर्ण ज्ञान किसी को है भी? – केनोपनिषद् में गुरु-शिष्य संवाद

 

वैदिक साहित्य में उपनिषदों को आध्यात्मिक ज्ञान के ग्रंथ कहा जाता है। यों तो बहुत से ग्रंथ हैं जिन्हें उपनिषद् कहकर संबोधित किया गया है जैसे सूर्योपनिषद्, मृतनादोपनिषद्, नारायणोपनिषद् आदि, किंतु केवल ११ उपनिषदों को ही प्रमुख उपनिषद् माना जाता है। ये उपनिषद् हैं –

(१) ईशावास्योपनिषद्

(२) ऐतरेयोपनिषद्

(३) कठोपनिषद्

(४) केनोपनिषद्

(५) छांदोग्योपनिषद्

(६) तैत्तिरिपनिषद्

(७) प्रश्नोपनिषद्

(८) माण्डूक्योपनिषद्

(९) मुण्डकोपनिषद्

(१०) वृहदारण्यकोपनिषद्

(११) श्वेताश्वतरोपनिषद्

इनमें वृहदारण्यक एवं छान्दोग्य उपनिषद् ग्रंथ अपेक्षया बड़े हैं। शेष सभी पर्याप्त छोटे हैं। सामान्यतः ये सभी भाष्य या टीका-टिप्पणी के साथ मुद्रित ग्रंथ के रूप में मिलते हैं। अन्यथा मंत्रों की संख्या तो बहुत कम रहती है, जैसे ईशोपनिषद् (ईशावास्योपनिषद्) में केवल १८ मंत्र हैं। कदाचित् यह उपनिषद् सर्वाधिक चर्चित है।

मैं इस आलेख में केनोपनिषद् के तीन मंत्रों का उल्लेख कर रहा हूं। इस उपनिषद् के दूसरे खंड में गुरु धर्मोपदेश देने के बाद शिष्य की परत्मात्म तत्व अर्थात् ब्रह्म की समझ के प्रति शंका व्यक्त करते हुए कहता है –

यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् ।

यदस्य त्वं यदस्य च देवेष्वथ नु मीमांस्यमेव ते मन्ये विदितम् ॥१॥

(यदि मन्यसे सु-वेद इति दहरम् एव अपि नूनम् त्वम् वेत्थ ब्रह्मणः रूपम्, यद् अस्य त्वम्, यद् अस्य च देवेषु, अथ नु मीमांस्यम् एव ते मन्ये विदितम् ।)

यदि मानते हो कि तुम ब्रह्म के स्वरूप को भली भांति जान चुके हो तो तुम्हारा ज्ञान वस्तुतः अल्पमात्र, है। तुम में और देवताओं में परमात्मा के अंश की विद्यमानता का तुम्हारा ज्ञान अवश्य ही विचारणीय है (भले ही वह अपर्याप्त है)। [वेत्थ = जानते हो । मेरी जानकारी में यह आया कि कुछ ग्रंथों में ‘दहरम्’ के स्थान पर दभ्रम् मुद्रित मिलता है। दोनों के अर्थ एक ही हैं – अल्प।]

शिष्य गुरु को बताता है कि

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।

यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥२॥

(न अहम् मन्ये सु-वेद इति, नो न वेद इति, वेद च, यः नः तद् वेद तद् वेद नो न वेद इति वेद च ।) [वेद = जानता हूं; नो = नहीं; (उपसर्ग) सु = अच्छी तरह]

अंतिम सत्य के रूप में ब्रह्मतत्व को पूर्ण रूप से जान चुका हूं ऐसा मैं नहीं मानता। मैं नहीं ही जानता ऐसा भी नहीं; जानता भी हूं। हम शिष्यों में जो उसे (ब्रह्म को) जानता है वही मेरे उक्त कथन “नहीं जानता ऐसा भी नहीं है; जानता भी हूं” इसका आशय समझता है।

मुझे यह इस मंत्र का निहितार्थ पहेली जैसा लगता है। शिष्य का यह कहना कि मैं नहीं जानता ऐसी बात नहीं है क्योंकि मैं जानता भी हूं। कदाचित् शिष्य का यह कहना है कि वह परब्रह्म को पूर्णरूपेण जान चुका है ऐसा दावा वह नहीं कर सकता; उसे अभी अपनी समझ पूर्णता तक ले जाना है। अगले मंत्र में यह भाव कुछ-कुछ स्पष्ट हो जाते हैं।

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद   सः ।

अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥२॥

(यथा पूर्वोक्त)

(यस्य अमतम् तस्य मतम्, मतम् यस्य न वेद सः अ-विज्ञातम् विजानताम् विज्ञातम् अ-विजानताम् ।)

परब्रह्म के ज्ञान का जिसका मत अव्यक्त है वही वस्तुतः जानता है। जो जान लेने का मत व्यक्त करता है वह वस्तुतः जानता नहीं है। जानने का अभिमान रखने वालों के लिए ब्रह्म जाना हुआ नहीं है और जो जानने का दावा नहीं करता वही उसे जानता है।

मुझे यह मंत्र भी एक पहेली-सा लगता है। कदाचित् कहने का प्रयास किया गया है कि ब्रह्मज्ञान भौतिक जगत् के सामान्य ज्ञान की भांति नहीं है। ब्रह्मज्ञान रहस्यमय है, अभौतिक-अलौकिक है, निर्वचनीय है, अभिव्यक्ति से परे है। असल ज्ञानी उसे जान लेने का अभिमान नहीं पालता। वह उसके बारे है कोई दावा करना उचित नहीं मानता है। यही संदेश कदाचित् इस मंत्र में दिया गया है। – योगेन्द्र जोशी

“हृद्रोगं मम सूर्य नाशय” – ऋग्वेद में रोग-मुक्ति की प्रार्थना

वैदिक ग्रंथ ऋग्वेद में तमाम देवी-देवताओं की प्रार्थनाएं हैं जिनमें इन्द्र एवं अग्नि प्रमुख हैं। दरअसल वैदिक मान्यता के अनुसार प्रकृति के सभी घटकों, जैसे जल, अग्नि, वायु, वर्षा, आदि के पीछे कोई न कोई चेतन दैवी शक्ति सक्रिय रहती है। सूर्य भी उनमें से एक है जो स्थूल रूप से प्रकाशित होने वाला आकाशीय पिंड का स्वामी है। सूर्य को कभी-कभी सविता के तौर पर भी पूजा जाता है जिसका तात्पर्य है कि वह प्राणियों की उत्पत्ति और उनके जीवन का आधार है। उसी सूर्य से स्वास्थ्य की कामना के तीन मंत्र (ऋचाएं) ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में मुझे पढ़ने को मिले हैं, जिनका उल्लेख मैं यहां पर कर रहा हूं। मेरी व्याख्या का आधार सायणाचार्य-कृत भाष्य (सायण-भाष्य) है जिसे मैंने अपने सीमित संस्कृत-ज्ञान के बल पर समझने का प्रयास किया है।

प्रार्थना का पहला मंत्र है –

उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्।

हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥११॥

(ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त ५०)

हे सूर्य प्राणियों के महान् मित्रवत् दीप्तिमान इस समय उदित होकर अंतरिक्ष (दिव) में ऊपर उठ रहे हो ऐसे तुम मेरे हृदयगत एवं दैहिक “हरिमाण” रोग का नाश करो।

यह ऋचा सूर्योदय के समय की जाने वाली प्रार्थना प्रतीत होती है। हृदयगत का तात्पर्य मानसिक रोग से है। इस मंत्र में “हरितवर्ण” वस्तुतः है क्या? सायण-भाष्य में इसकी दो प्रकार से व्याख्या की गई है। पहला, वह रोग जो शरीर के स्वाभाविक वर्ण को छीनकर उसे कांतिविहीन कर रहा हो (हर लिया है वर्ण यानी रंग जिसने)। रोगी का शरीर कांतिविहीन हो जाता है। उसके चेहरे की रौनक गायब हो जाती है। ऐसे रोग के नाश के लिए प्रार्थना की गई है। दूसरी व्याख्या है हरा वर्ण (रंग) यानी वह रोग जो शरीर का रंग हरा कर दे। आप्टे के शब्दकोश में हरित का अर्थ पीलापन भी दे रखा है। कदाचित् मंत्रद्रष्टा ऋषि का संकेत पीलिया की ओर होगा। प्रातःकालीन धूप रोगी के स्वास्थ्य के लिए कदाचित लाभकर हो।

अगला मंत्र है –

शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ।

अथो हारिद्रवेषु मे अरिमाणं नि दध्मसि ॥१२॥

(यथोपर्युक्त)

मेरे शरीर के इस हरित-वर्ण के रोग को हम शुक (तोता) तथा शारिका (पक्षी विशेष का नाम) पक्षियों में स्थापित करते हैं। अथवा मेरे इस हरित-वर्ण रोग को हरे-पीले पेड़ों (कदंब?) पर हम स्थापित कर दें।

इस मंत्र का अर्थ मेरे लिए बहुत स्पष्ट नहीं है। भाष्य में रोपणाका का अर्थ शारिका दिया है, जिसे हिन्दी शब्दकोश में मैना कहा गया है। तोते का रंग हरा-पीला होता है किंतु मैना का रंग हल्का भूरा-सलेटी होता है। उसकी चोंच अवश्य ही सुर्ख पीली होती है। मुझे लगता है कि इस मंत्र के माध्यम से सूर्य की उपासना की जा रही है कि मेरे शरीर के रोगजनित हरित-वर्ण को मुझसे दूर करके उन्हीं पक्षियों, पेड़-पौधों तक सीमित रहने दो जिनके लिए यह रंग स्वाभाविक/प्राकृतिक है। अर्थात् मुझे रोगमुक्त कर दो।

तीसरी और अंतिम ऋचा ये है –

उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।

द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥१३॥

(यथोपर्युक्त)

अदिति-पुत्र आदित्य यहसूर्य पूरे बल से ऊपर अंतरिक्ष में चढ़ता है और मेरे प्रति उपद्रवकारी रोग का नाश करता है। मैं स्वयं उस  द्वेषमय रोग के प्रति हिंसा नहीं करता।

मंत्र का अर्थ अपेक्षया सरल है। अर्थ कितना सारगर्भित है मैं कह नहीं सकता। कदाचित् मंत्रवक्ता रोग-निवारण का श्रेय प्रातःकालीन उदित हो रहे सूर्य को देता है जिसकी किरणें रोग से लड़ने में सहायक हों।

वैदिक प्रार्थनाएं कितनी कारगर होती हैं किसी प्रयोजन को सिद्ध करने में इसका कोई अनुभव मुझे नहीं है। किंतु इतना कहा जा सकता कि सूर्य की हल्की (प्रातःकालीन) धूप अवश्य ही स्वास्थ्य-वर्धक होती है। यही संदेश इन वैदिक ऋचाओं में दिखाई देता है। – योगेन्द्र जोशी

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