“प्रजासुखे सुखं राज्ञः …” – कौटिल्य अर्थशास्त्र के राजधर्म संबंधी नीतिवचन

करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व भारतभूमि पर जिस मौर्य सामाज्य की स्थापना हुई थी उसका श्रेय उस काल के महान राजनीतिज्ञ चाणक्य को जाता है । राजनैतिक चातुर्य के धनी चाणक्य को ही कौटिल्य कहा जाता है । उनके बारे में मैंने पहले कभी अपने इसी ब्लॉग में लिखा है । कौटिलीय अर्थशास्त्र चाणक्य-विरचित ग्रंथ है, जिसमें राजा के कर्तव्यों का, आर्थिक तंत्र के विकास का, प्रभावी शासन एवं दण्ड व्यवस्था आदि का विवरण दिया गया है । उसी ग्रंथ के तीन चुने हुए श्लोकों का उल्लेख मैं यहां पर कर रहा हूं ।

(कौटिलीय अर्थशास्त्र, प्रथम अधिकरण, अध्याय 18)

1.

प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां तु हिते हितम् ।

नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥

(प्रजा-सुखे सुखम् राज्ञः प्रजानाम् तु हिते हितम्, न आत्मप्रियम् हितम् राज्ञः प्रजानाम् तु प्रियम् हितम् ।)

प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में ही उसे अपना हित दिखना चाहिए । जो स्वयं को प्रिय लगे उसमें राजा का हित नहीं है, उसका हित तो प्रजा को जो प्रिय लगे उसमें है ।

2.

तस्मान्नित्योत्थितो राजा कुर्यादर्थानुशासनम्् ।

अर्थस्य मूलमुत्थानमनर्थस्य विपर्ययः ॥

(तस्मात् नित्य-उत्थितः राजा कुर्यात् अर्थ अनुशासनम्, अर्थस्य मूलम् उत्थानम् अनर्थस्य विपर्ययः ।)

इसलिए राजा को चाहिए कि वह नित्यप्रति उद्यमशील होकर अर्थोपार्जन तथा शासकीय व्यवहार संपन्न करे । उद्यमशीलता ही अर्थ (संपन्नता) का मूल है एवं उसके विपरीत उद्यमहीनता अर्थहीनता का कारण है ।

3.

अनुत्थाने ध्रुवो नाशः प्राप्तस्यानागतस्य च ।

प्राप्यते फलमुत्थानाल्लभते चार्थसम्पदम् ॥

(अनुत्थाने ध्रुवः नाशः प्राप्तस्य अनागतस्य च, प्राप्यते फलम् उत्थानात् लभते च अर्थ-सम्पदम् ।)

उद्यमशीलता के अभाव में पहले से जो प्राप्त है एवं भविष्य में जो प्राप्त हो पाता उन दोनों का ही नाश निश्चित है । उद्यम करने से ही वांछित फल प्राप्त होता है ओर उसी से आर्थिक संपन्नता मिलती है ।

कौटिल्य ने इन श्लोकों के माध्यम से अपना यह मत व्यक्त किया है कि राजा का कर्तव्य अपना हित साधना और सत्तासुख भोगना नहीं है । आज के युग में राजा अपवाद रूप में ही बचे हैं और उनका स्थान अधिकांश समाजों में जनप्रतिनिधियों ने ले लिया है जिन्हें आम जनता शासकीय व्यवस्था चलाने का दायित्व सोंपती है । कौटिल्य की बातें तो उन पर अधिक ही प्रासंगिक मानी जायेंगी क्योकि वे जनता के हित साधने के लिए जनप्रतिनिधि बनने की बात करते हैं । दुर्भाग्य से अपने समाज में उन उद्येश्यों की पूर्ति विरले जनप्रतिनिधि ही करते हैं ।

उद्योग शब्द से मतलब है निष्ठा के साथ उस कार्य में लग जाना जो व्यक्ति के लिए उसकी योग्यतानुसार शासन ने निर्धारित किया हो, या जिसे उसने अपने लिए स्वयं चुना हो । राजा यानी शासक का कर्तव्य है कि वह लोगों को अनुशासित रखे और कार्यसंस्कृति को प्रेरित करे । अनुशासन एवं कार्यसंस्कृति के अभाव में आर्थिक प्रगति संभव नहीं है । जिस समाज में लोग लापरवाह बने रहें, कार्य करने से बचते हों, समय का मूल्य न समझते हों, और शासन चलाने वाले अपने हित साधने में लगे रहें, वहां संपन्नता पाना संभव नहीं यह आचार्य कौटिल्य का संदेश है । – योगेन्द्र जोशी

 

‘न अकार्यम् अस्ति क्रुद्धस्य’ – रामायण में उल्लिखित नीति वचन

वाल्मीकीय रामायण में लंकादहन के प्रसंग का उल्लेख है । कथा है कि रावण के द्वारा सीताहरण के पश्चात् भ्राताद्वय राम एवं लक्ष्मण सीता की खोज में निकल पड़ते हैं । इस दौरान ऋष्यमूक पर्वत पर उनकी भेंट हनुमान्-सुग्रीव से भेंट होती है और दोनों पक्षों के बीच मित्रता हो जाती है । सुग्रीव राम द्वारा उपकृत होते हैं और बदले में सुग्रीव सीता की खोज में अपनी वानरसेना को लगा देते हैं । सीता की तलाश में हनुमान् रावणनगरी लंका पहुंचते जहां उन्हें अशोकवन में सीता के दर्शन होते हैं । सीता के समक्ष वे अपना परिचय एवं साक्ष प्रस्तुत करते हैं । दोनों के बीच वार्तालाप होता है, और बाद में सीता से अनुमति लेकर हनुमान् अशोकवन में भ्रमण करने एवं वहां के फल-फूलों का आस्वादन करने निकल पड़ते हैं ।

अशोकवन के रक्षकों से उनका संघर्ष होता है, कइयों को वे धराशायी करते हैं, और अंत में पकड़ लिए जाते हैं । उन्हें रावण की सभा में पेश किया जाता है, जहां निर्णय लिया जाता है कि राम के दूत के तौर आए हनुमान् को मारना उचित नहीं । सांकेतिक दंड के तौर पर उनके पूंछ पर ढेर-सारे कपड़े एवं ज्वलनशील पदार्थ लपेटकर आग लगा दी जाती है । जलती पूंछ के सहारे गुस्से से आग-बबूला होकर हनुमान् लंका जलाने निकल पड़ते हैं । लंका नगरी जल उठती है, भवन ध्वस्त हो जाते हैं, लोग हताहत होते हैं । पूंछ की अग्नि जब शांत हो जाती है और उनका गुस्सा ठंडा पड़ जाता है तो अनायास उन्हें सीता का स्मरण हो आता है । वे सोचते हैं कि इस अग्निकांड में तो अशोकवन भी जल उठा होगा । कहीं देवी सीता को तो हानि नहीं पहुंची होगी, क्या धधकते अशोकवन की आग से वे आहत तो नहीं हो गयीं ? ऐसे प्रश्न उनके मन में उठते हैं, और वे चिंतित हो जाते हैं । वे अशोकवन की ओर लौट पड़ते हैं, सीता की कुशल पाने ।

उस समय उन्हें अपने मन में उठे क्रोध को लेकर पश्चाताप होता है । यह सोचकर उन्हें दुःख होता है कि क्रोध के वशीभूत होकर उन्होंने अनर्थ कर डाला । वे अपने मूल उद्येश्य से भटक गये । आदि, आदि । अधोलिखित श्लोकों में तात्क्षधिक क्रोध संबंधी उनके मनोभावों को काव्यरचयिता वाल्मीकि ने इस प्रकार व्यक्त किया है:

(वाल्मीकिरचित रामायण, सुन्दरकांड, अध्याय ५५, श्लोक ३ से ६, क्रमशः)

धन्या खलु महात्मानो ये बुध्या कोपमुपत्थितम् ।
निरुन्धन्ति महात्मानो दिप्तमग्निमिवाम्भसा ॥

(यथा) महात्मानः दिप्तम् अग्निम् अम्भसा निरुन्धन्ति (तथा) इव ये महात्मानः उपत्थितम् कोपम् बुध्या (निरुन्धन्ति ते) खलु धन्या  

वे महात्माजन धन्य हैं जो मन में उठे क्रोध को स्वविवेक से रोक लेते हैं, कुछ वैसे ही जैसे अधिसंख्य लोग जलती अग्नि को जल छिड़ककर शांत करते हैं ।

क्रुद्धः पापं न कुर्यात् कः क्रृद्धो हन्यात् गुरूनपि ।
क्रुद्धः परुषया वाचा नरः साधूनधिक्षिपेत् ॥

कः क्रुद्धः पापं न कुर्यात्, क्रृद्धः गुरून् अपि हन्यात्, क्रुद्धः नरः परुषया वाचा साधून् अधिक्षिपेत् ।

क्रोध से भरा हुआ कौन व्यक्ति पापकर्म नहीं कर बैठता है ? कुद्ध मनुष्य बड़े एवं पूज्य जनों को तक मार डालता है । ऐसा व्यक्ति कटु वचनों से साधुजनों पर भी निराधार आक्षेप लगाता है ।

वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् ।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते क्वचित् ॥

प्रकुपितः वाच्य-अवाच्यं न विजानाति, क्रुद्धस्य कर्हिचित् अकार्यम् न अस्ति, क्वचित् अवाच्यं न विद्यते ।

गुस्से से भरा मनुष्य को किसी भी समय क्या कहना चाहिए और क्या नहीं का ज्ञान नहीं रहता है । ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ भी अकार्य (न करने योग्य) नहीं होता है और न ही कहीं अवाच्य (न बोलने योग्य) रह जाता है ।

यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमयैव निरस्यति ।
यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते ॥

यथा उरगः जीर्णां त्वचं (निरस्यति तथा इव) यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमया एव निरस्यति सः वै पुरुषः उच्यते ।

जिस प्रकार सांप अपनी जीर्ण-शीर्ण हो चुकी त्वचा (केंचुल) को शरीर से उतार फेंकता है, उसी प्रकार अपने सिर पर चढ़े क्रोध को क्षमाभाव के साथ छोड़ देता है वही वास्तव में पुरुष है, यानी गुणों का धनी श्लाघ्य व्यक्ति है ।

हनुमान् को सीता सकुशल मिल जाती हैं, और उन्हें तसल्ली हो जाती है ।

लंकादहन की घटना कितनी वास्तविक है अथवा कितनी अतिरंजित है इस पर अपने-अपने मत हो सकते हैं । किंतु क्रोध को लेकर जो विचार उक्त श्लोकों में व्यक्त हैं उनसे असहमत नहीं हुआ जा सकता है । क्रोधाविष्ट व्यक्ति अपना विवेक खो बैठता है और तात्क्षणिक आवेश में कुछ भी कर बैठता है । इस प्रकार के अनुभव हमें जीवन में पग-पग पर होते रहते हैं, जैसे राह चलते कोई आपसे टकरा जाए तो आप उस पर एकदम बरस पड़ेंगे, गाली-गलौज कर बैठेंगे, कदाचित् हाथ भी उठा देंगे । उस समय आप उसकी बात सुनने को भी तैयार नहीं होंगे । घटना को लेकर जो विचार प्रतिक्रिया-स्वरूप आप के मन में उठेंगे वे तुरंत ही कार्य रूप में बदल जायेंगे । अंत में जब वास्तविकता का ज्ञान आपको हो जाए और उसके प्रति विश्वास जग जाये तब आप अपने व्यवहार के प्रति खिन्न हो सकते हैं । तब भी अहम्भाव से ग्रस्त होकर आप अपने को सही ठहराने का प्रयास करेंगे ।

मनुष्य में अनेकों भाव स्वाभाविक रूप से होते हैं, जैसे दूसरों के प्रति सहानुभूति, श्रद्धाभाव, उपकार की प्रवृत्ति, वस्तुएं अर्जित करने की इच्छा, प्रशंसा सुनने की लालसा, आनंदित होने का भाव, इत्यादि । अहम्भाव कदाचित् सबके ऊपर रहता है । इन भावों में से कुछ दूसरों के हित में होते हैं तो कुछ कभी-कभी उनके लिए कष्टप्रद या हानिकर । विवेकशील व्यक्ति आत्मसंयम का सहारा लेकर स्वयं को कमजोर भावों से मुक्त करने का यत्न करता है । प्रयास करना कठिन होता है, किंतु निष्फल नहीं होता । समय बीतने के साथ आप कमियों को जीतते हैं, और त्वरित प्रतिक्रिया के स्वभाव से मुक्त हो जाते हैं । कदाचित् इसी को प्राचीन मनीषियों ने तप कहा है । – योगेन्द्र जोशी

लक्ष्मण रेखा …, किंतु रामचरितमानस, महाभारत एवं रामायण में इसका उल्लेख नहीं! (चतुर्थ भाग – रामायण)

(संबंधित पिछ्ली पोस्टें: १२ मई, १३ मई एवं १९ मई)

वाल्मीकीय रामायण में सीता-रावण संवाद और तत्पश्चात् के सीताहरण का तुलसीदासकृत रामचरितमानस तथा व्यासरचित महाभारत की तुलना में अधिक विस्तृत विवरण मिलता है । संबंधित कथा संस्कृत के इस आदिकाव्य के अरण्यकांड में उपलब्ध है । सीता का लक्ष्मण द्वारा समझाये जाने और फिर उनका रावण के साथ संपन्न वार्तालाप का प्रकरण ४५वें से ४९वें सर्ग में कुल १९२ श्लोकों के माध्यम से वर्णित है । अपनी बात कहने के लिए मैं इन सर्गों के कुछ चुने हुए श्लोकों को उद्धृत कर रहा हूं । मैं यह चर्चा उस घटना के आगे से आरंभ करता हूं जब राम द्वारा वन में मारीच का वध होता है और वह ‘हा लक्ष्मण’ की पुकार लगाकर सीता को भ्रमित करता है:

आक्रन्दमानं तु वने भ्रातरं त्रातुमर्हसि ।
तं क्षिप्रमभिधाव त्वं भ्रातरं शरणैषिणम् ॥
रक्षसां वशमापन्नं सिंहानामिव गोवृषम् ।
न जगाम तथोक्तस्तु भ्रातुराज्ञाय शासनम् ॥
तमुवाच ततस्तत्र क्षुभिता जनकात्मजा ।
सौमित्रे मित्ररूपेण भ्रातुः त्वमसि शत्रुवत् ॥
यस्त्वमस्यामवस्थायां भ्रातरं नाभिपद्यसे ।
इच्छसि त्वं विनश्यन्तं रामं लक्ष्मण मत्कृते ॥

(वाल्मीकिरचित रामायण, अरण्यकाण्ड, सर्ग ४५, छन्द ३-६)

(उस समय बेचैन हो रही सीता देवर लक्ष्मण से कहती हैं) “अरे लक्ष्मण, वन में आर्त स्वर से पुकार रहे अपने भ्राता को बचाने चल पड़ो । तुम्हारी सहायता की अपेक्षा रखने वाले अपने भाई के पास शीघ्रता से जाओ । वे राक्षसों के वश में पहुंच रहे हैं जैसे कोई सांड़ सिंहों से घिर जाये ।” किंतु ऐसा कहे जाने पर भी लक्ष्मण अपने भाई के आदेश को विचारते हुए वहां से नहीं हिले । तब उस स्थल पर (लक्ष्मण की उदासीनता से) क्षुब्ध हो रहीं जनकपुत्री ने कहा “अरे सुमित्रानंदन, तुम तो मित्र के रूप में अपने भाई के शत्रु हो, जो कि तुम इस (संकट की) अवस्था में भाई के पास नहीं पहुंच रहे हो । तुम मेरे खातिर राम का नाश होते देखना चाहते हो ।”

वस्तुतः सीता ने लक्ष्मण पर यह आक्षेप लगा दिया कि तुम इस ताक में हो कि राम न रहें, ताकि मौके का लाभ उठाते हुए तुम मुझे अपनी भार्या बना सको । उन्होंने लक्ष्मण पर तरह-तरह के लांछन लगाते हुए अपशब्द कहना आरंभ किया । प्रत्युत्तर में लक्ष्मण ने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की:

अब्रवील्लक्ष्मणस्तां सीतां मृगवधूमिव ।
पन्नगासुरगन्धर्वदेवदानवराक्षसैः ॥
अशक्यस्तव वैदेही भर्ता जेतुं न संशयः ।

(पूर्वोक्त, सर्ग ४५, छन्द १०, ११ का पूर्वार्ध)
हिरणी की भांति डरी-सहमी-सी सीता को (ढाढ़स बधाते हुए) लक्ष्मण बोले, “हे विदेहनंदिनी, इसमें तनिक भी शंका नहीं है कि आपके पति श्रीराम नाग, असुर, गंधर्व, देव, दानव और राक्षसों के द्वारा भी नहीं जीते जा सकते हैं ।” (फिर क्यों इतनी चिंतित हो रही हैं ?)

राक्षसा विविधा वाचो आहरन्ति महावने ।
हिंसाविहारा वैदेहि न चिन्तयितुमर्हसि ॥
लक्ष्मणेनैवमुक्ता तु क्रुद्धा संरक्तलोचना ।
अब्रवीत्परुषं वाक्यं लक्ष्मणं सत्यवाहदनम् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४५, छन्द १९-२०)
हे वैदेही, आप चिंता न करें, इस बड़े वन में राक्षसगण, जिनका मनोरंजन ही हिंसा में निहित रहता है, नाना प्रकार की बोलियां बोलते रहते हैं । लक्ष्मण के ऐसा कहने पर क्रुद्ध तथा रक्तिम हो चुकी आंखों वाली सीता सत्यवादी लक्ष्मण को कटु शब्द कहने लगीं ।

सीता ने बहुत कुछ भला-बुरा कहा जिससे लक्ष्मण का विचलित होना स्वाभाविक था । तब न चाहते हुए भी उन्होंने राम के पास चले जाना ही उचित समझाः

ततस्तु सीतामभिवाद्य लक्ष्मणः कृताञ्जलि किञ्चिदभिप्रणम्य ।
अवेक्षमाणो बहुशः स मैथिलीं जगाम रामस्य समीपमात्मवान् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४५, छन्द ४०)
तब हाथ जोड़े हुए आत्मसंयमी लक्ष्मण ने नतमस्तक हो सीता को प्रणाम किया और उनकी ओर (चितिंत दृष्टि से) बारंबार देखते हुए वे श्रीराम के पास चले गये ।

तदासाद्य दशग्रीवः क्षिप्रमन्तराश्रितः ।
अभिचक्राम वैदेहीं परिव्राजकरूपधृक् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४६, छन्द २)
और तब संन्यासी का रूप धरे रावण को उपयुक्त अवसर मिल गया, अतः वह शीघ्रता से वैदेही सीता के पास आ पहुंचा ।

द्विजातिरूपेण हि तं दृष्ट्वा रावणमागतम् ।
सर्वैरतिथिसत्कारैः पूजयामास मैथिली ॥
उपानीयासनं पूर्वं पाद्येनाभिनिमन्त्र्य च ।
अब्रवीत् सिद्धमित्येव तदा तं सौम्यदर्शनम् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४६, छन्द ३३, ३४)

उस रावण को ब्राह्मण वेष में आया देख सीता ने आतिथ्य-सत्कार की सभी विधियों से उसका पूजन किया, यानी आदर-सम्मान दिया । सौम्य प्रतीत हो रहे उस (अतिथि) को सीता ने पहले आसन प्रदान करते हुए पैर धोने हेतु पानी दिया और फिर उन्होंने भोजन तैयार रहने की बात कही । (आसन एवं जल प्रदान करना आतिथ्य की परंपरा सदा से रही है ।)

रामायण के अनुसार आरंभ में सीता और रावण के मध्य पर्याप्त संवाद होता है । सीता अपना परिचय देते हुए विस्तार से बताती हैं कि क्यों और कैसे वह राम-लक्ष्मण के साथ वनवास भोग रही हैं । वार्तालाप के दौरान रावण भी अपना परिचय देता है और सीता को उसकी रानी बनकर सुख भोगने का प्रलोभन देता है । वह बताता है:

लङ्का नाम समुद्रस्य मध्ये मम महापुरी ।
सागरेण परिक्षिप्ता निविष्टा गिरिमूर्धनि ॥
तत्र सीते मया सार्धं वने विचरिस्यति ।
न चास्य वनवासस्य स्पृहयिष्यसि भामिनि ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४७, छन्द २९, ३०)

“चारों ओर फैले जल से घिरी और पर्वत शिखर पर अवस्थित
समुद्र के मध्य में लंका नाम की मेरी पुरी है । हे भामिनी, वहां मेरे साथ तुम वनों-उपवनों में विहार करोगी और इस वनवास के जीवन की तुम्हें इच्छा ही नहीं रह जाएगी ।” (भामिनी = तरुणी, कामिनी, जिसे देख मन मचल उठे ।)

रावण सीता को भांति-भांति से लुभाने का प्रयास करता है, किंतु सीता के लिए रावण के प्रस्ताव सर्वथा अस्वीकार्य थे । उन्होंने राम की प्रशंसा करते हुए रावण को तुच्छ घोषित कर दिया, और फटकार लगाईः

पूर्णचन्द्राननं रामं राजवत्सं जितेन्द्रियम् ।
पृथुकीर्तिं महाबाहुमहं राममनुव्रता ॥
त्वं पुनर्जम्बूकः सिंहीं मामिच्छसि दुर्लभाम् ।
नाहं शक्या त्वया स्प्रष्टुमादित्यस्य प्रभा यथा ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४७, छन्द ३६, ३७)

(अरे रावण,) राजकुमार राम का मुख पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह सुंदर है, वे जितेन्द्रिय और महान् यशस्वी हैं । ऐसे महाबाहु राम में ही मेरा मन लगा है । तुम तो महज गीदड़ हो जो मुझ दुर्लभ सिंहनी को पाने की इच्छा रखते हो । समझ लो कि जैसे सूर्य के प्रकाश को हाथ नहीं लगा सकता वैसे ही तुम मुझे छू भी नहीं सकते । (सीता का मंतव्य था कि जैसे सूर्य से उसकी आभा अलग नहीं की जा सकती वैसे ही उन्हें भी राम से अलग नहीं किया जा सकता है ।)

और आगे वे यह भी कहती हैं:

अपहृत्य शचीं भार्यां शक्यमिन्द्रस्य जीवितुम् ।
नहि रामस्य भार्यां मामानीय स्वस्तिमान् भवेत् ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४८, छन्द २३)

इंद्र देवता की भार्या शची का अपहरण करने पर भी जीवित रह जाना संभव है, परंतु राम की मुझ भार्या को ले जाकर कोई कुशल से रह सके यह संभव नहीं । तात्पर्य यह है कि राम द्वारा उसका विनाश अवश्यंभावी है ।

सीता ने इस प्रकार की तमाम बातें सुनाकर रावण को धिक्कारा । वह ता पहले से ही एक उद्येश्य लेकर चल रहा था । सीता के सीधे तौर पर न मानने पर उसने बलात् उन्हें ले जाने का मन बनायाः

अभिगम्य सुदुष्टात्मा राक्षसः काममोहितः ।
जग्राह रावणः सीतां बुधः खे रोहिणीमिव ॥
वामेन सीतां पद्माक्षीं मूर्धजेषु करेण सः ।
ऊर्वोस्तु दक्षिणेनैव परिजग्राह पाणिना ॥

(पूर्वोक्त, सर्ग ४९, छन्द १६, १७)

काम से मोहित अतिदुष्ट राक्षस रावण ने सीता के निकट जाकर उन्हें पकड़ लिया, मानों कि आकाश में बुध ने रोहिणी को जकड़ लिया हो । उसने कमलनयनी सीता के सिर के बालों को बायें हाथ से पकड़ा और जांघों के नीचे से दांया हाथ डालकर उन्हें उठा लिया । (पौराणिक कथा के अनुसार रोहिणी चंद्रमा की पत्नी थी और बुध उनका पुत्र । मैं नहीं जानता कि इस पुत्र-पत्नी के रिश्ते का गंभीर अर्थ क्या है । यहां कवि ने आलंकारिक वर्णन प्रस्तुत किया है । बुध ने अपनी माता रोहिणी का अपहरण नहीं किया था । माता सदृश सीता का अपहरण उतना ही गर्हित था जितना बुध द्वारा रोहिणी का अपहरण, जो वस्तुत हुआ नहीं ।)

उपर्युक्त बातें संक्षेप में यह स्पष्ट करने के लिए कही गयी हैं कि बाल्मीकि के अनुसार लक्ष्मण ने सीता को समझाने की भरसक कोशिश की थी, किंतु अंत में उन्हें विवश होकर सीता को पर्णकुटी पर अकेले छोड़कर जाना पड़ा । अवसर पाकर रावण सीता के पास आया, दोनों के बीच परस्पर परिचय के साथ विस्तार से बातें हुई, और अंत में कुपित होकर वह सीता को हर ले गया । कथा में कहीं पर किसी सुरक्षा घेरे का जिक्र नहीं है ।

मुझे लगता है कि रामकथा के वर्णन में समय के साथ बदलाव आता गया होगा और लक्ष्मण रेखा की कल्पना बाद के कथाकारों/कथावाचकों की देन रही होगी । – योगेन्द्र जोशी

‘लक्ष्मण रेखा’! किंतु रामचरितमानस, महाभारत एवं रामायण में इसका उल्लेख ही नहीं!

पिछले कुछ समय से मैं वाल्मीकीय रामायण का अध्ययन कर रहा हूं । मेरे पास इस ग्रंथ की गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा दो खंडों में प्रकाशित प्रति है, जिसमें मूल संस्कृत श्लोकों से साथ-साथ हिंदी में भी उनका अनुवाद दिया गया है । इन संस्कृत श्लोकों के अर्थ समझने में मुझे सामान्यतः कोई खास कठिनाई अनुभव नहीं होती है; फिर भी कभी-कभी गाड़ी अटकने लगती है तो संबंधित हिंदी अनुवाद से मुझे पर्याप्त सहायता मिल जाती है । संप्रति मैं राम-कथा के उस प्रसंग पर पहुंच चुका हूं जिसमें हनुमान् समुद्र लांघकर रावण की लंका जाने की तैयारी कर रहे हैं । इसके पूर्व सीताहरण के प्रसंग के बारे में मैं पढ़ चुका था ।

सीताहरण के संदर्भ में मुझे एक रोचक तथ्य इस ग्रंथ में देखने को मिला । वह यह है कि उसमें ऐसा कहीं उल्लिखित नहीं है कि लक्ष्मण ने मारीच-वध के बाद श्रीराम की मिथ्या पुकार (वस्तुतः मारीच द्वारा ‘हा लक्ष्मण’ की कृत्रिम पुकार) सुनने और सीता की उलाहना झेलने के बाद वन की ओर जाने के पहले कुटिया के परितः कोई सुरक्षा घेरा खींचा हो । अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए मैंने महर्षि व्यास द्वारा रचित महाकाव्य महाभारत (उसमें भी रामकथा की चर्चा है) के पन्ने पलटे । और फिर गोस्वामी तुलसीकृत रामचरितमानस के पृष्ठों पर भी दृष्टि दौड़ाई । ‘लक्ष्मण रेखा‘ की बात वहां भी पढ़ने को नहीं मिली । तब मेरे मन में प्रश्न उठा कि लक्ष्मण रेखा की बात कब ओर कहां से आई ?

लक्ष्मण रेखा की बातें मैं बचपन से सुनता आ रहा हूं । कदाचित् कभी कहीं श्रीराम से जुड़ी किसी कथा में इसे पढ़ा हो, अथवा अपने बुजुर्गों के मुख से तत्संबंधित कथा सुनी हो । इस विषय मैं मुझे कुछ भी ठीक से याद नहीं है । हां, रोजमर्रा की जिंदगी में लोगों के मुख से मौके-बेमौके इस शब्दयुग्म को सुनता आ रहा हूं । क्या है यह लक्ष्मण रेखा ? कहा यही जाता है कि जीवन के विभिन्न कार्य-व्यापारों में मनुष्य को कुछेक मर्यादाओं का पालन करना चाहिए, उन सीमाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए जो नैतिकता, वैधानिकता, अथवा स्थापित परंपरा के आधार पर समाज में स्वीकारी गयी हैं । जब भी कोई ऐसे प्रतिबंधों का उल्लंघन कर बैठता है तो उस पर ‘लक्ष्मण रेखा पार कर दी’ का आरोप लगा दिया जाता है । आजकल अपने देश की राजनीति के संदर्भ में भी इस ‘रेखा’ का उल्लेख बहुधा देखा जाता है । यह बात अलग है कि उसका उल्लंघन करना राजनेताओं का शगल या विशिष्टाधिकार बन चुका है । अस्तु ।

मतलब यह कि ‘लक्ष्मण रेखा’ प्रायः सभी के लिए एक सुपरिचित पदबंध अथवा सामासिक शब्द है । मेरा अनुमान है कि प्रायः सभी इसका संबंध उस कथा से जोड़ते हैं, जिसमें रावण द्वारा सीता का अपहरण न होने पाए इस उद्येश्य से सीता की पर्णकुटी के चारों ओर लक्ष्मण ने ‘कथित तौर पर’ अभिमंत्रित सुरक्षा घेरा खींचा था । प्रचलित कथा के अनुसार रावण उस खतरे को भांप गया; परंतु उसके झांसे में आकर स्वयं सीता उस घेरे को पार कर गयीं और रावण द्वारा हरी गईं । सीता ने उस ‘मर्यादा’ का अतिक्रमण कर डाला । और यहीं से ‘लक्ष्मण रेखा’ स्थापित मर्यादा-सीमा का द्योतक हो गयी । मेरा खयाल है कि लोगों की इस ‘रेखा’ के बारे में कुछ ऐसी ही समझ है ।

मुझे जिज्ञासा हुई कि क्या आधुनिक इंटरनेट खजाने में भी इस बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध है । ‘विकीपीडिया’ (अंग्रेजी) पर (अथवा विकी-हिंदी पर) जो जानकारी मुझे मिली वह यों हैः

“रामायण के एक प्रसिद्ध प्रसंग के अनुसार वनवास के समय सीता के आग्रह के कारण राम मायावी स्वर्ण म्रग के आखेट हेतु उसके पीछे गये। थोड़ी देर मे सहायता के लिए राम की पुकार सुनाई दी, तो सीता ने लक्ष्मण से जाने को कहा। लक्ष्मण ने बहुत समझाया कि यह सब किसी की माया है,पर सीता न मानी। तब विवश होकर जाते हुए लक्ष्मण ने कुटी के चारों ओर अपने धनुष से एक रेखा खींच दी कि किसी भी दशा मे इस रेखा से बाहर न आना। तपस्वी के वेश मे आए रावण के झाँसे मे आकर सीता ने लक्ष्मण की खींची हुई रेखा से बाहर पैर रखा ही था कि रावण उसका अपहरण कर ले गया। उस रेखा से भीतर रावण सीता का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। तभी से आज तक [[लक्ष्मण रेखा]] नामक उक्ति इस आशय से प्रयुक्त होती है कि, किसी भी मामले मे निश्चित हद को पार नही करना है, वरना बहुत हानि उठानी होगी। “

श्रीराम की कथा पर विभिन्न भाषाओं में शायद एकाधिक ग्रंथ रचे गये हैं, जैसे तमिल में तमिल कवि ‘कंबन’ द्वारा रचित ‘रामावतारम्’ (कंब रामायण) । मैंने कभी यह ग्रंथ नहीं देखा है, लेकिन सुना है कि कंबन तमिल एवं संस्कृत के ज्ञाता थे और उन्होंने वाल्मीकीय रामायण पर आधारित रामकथा लिखी थी । अधिक जानकारी के लिए यहां अथवा यहां देखें । विख्यात भारतीय अंग्रेजी साहित्यकार आर. के. नारायण की ‘दि रामायण’ का भी नाम मैंने सुना है । रामकथा पर फिल्में तथा टेलिविजन भी आधुनिक काल में बन चुकी हैं । ये सब जनश्रुतियों पर आधारित हैं अथवा महर्षि वाल्मीकि की रामायण तथा अन्य ग्रंथों पर । अगर इनमें कहीं ‘लक्ष्मण रेखा’ की बात कही गयी हो तो उसकी वाल्मीकीय रामायण से संगति नहीं बैठेगी । ‘लक्ष्मण रेखा’ का जिक्र तो महाभारत तथा रामचरितमानस में भी देखने को नहीं मिलता है । इस संदर्भ में इन ग्रंथों में मुझे पढ़ने-समझने को क्या मिला इसका उल्लेख आगामी आलेखों में करने का मेरा विचार है । – योगेन्द्र जोशी

‘नाराजके जनपदे …’: राजा के अभाव में राज्य का असुरक्षित हो जाना – बाल्मीकिरचित रामायण में प्रस्तुत विचार

महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण ग्रंथ में एक प्रकरण है । महाराजा दशरथ कैकेयी को दिये गये वचनों से बंधे होने के कारण न चाहते हुए भी श्रीराम को वनवास पर भेज देते हैं । तत्पश्चात् वे उनके असह्य वियोग में स्वयं प्राण त्याग देते हैं । यह सब घटित होता है श्रीभरत की अनुपस्थिति में, जो अपने नाना केकय-नरेश अश्वपति के पास गये हुए रहते हैं । महाराजा की मृत्यु से राज्य राजाविहीन हो जाता है । अराजकता की स्थिति पैदा होने लगती है, जिसे आज की भाषा में ‘संवैधानिक संकट’ कहा जाएगा । तब राज्य के ऋषिगण और महात्माजन राजपुरोहित ऋषि बशिष्ठ के पास एकत्रित हो उनसे निवेदन करते हैं कि वे श्रीभरत को शीघ्र ही अपने ननिहाल से बुलाने की व्यवस्था करें और उनका राज्याभिषेक करें ।

उस समय वे सभी शिष्टजन राजपुरोहित के समक्ष राजाविहीन राज्य की क्या स्थिति हो जाती है इस बात का वर्णन करते हैं । रामायण के अयोध्याकांड, सर्ग ६७ में इसी विषय की चर्चा की गई है । उक्त सर्ग में ३८ श्लोक हैं, जिनमें लगभग सभी के सभी में ‘अराजकता’ की चिंतनीय स्थिति का वर्णन है । मैं यहा पर चुने हुए ६ श्लोक प्रस्तुत कर रहा हूं (सभी श्लोक बाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकांड, सर्ग ६७, से उद्धृत):

नाराजके जनपदे धनवन्तः सुरक्षिताः ।
शेरते विवृतद्वाराः कृषिगोरक्षजीविनः ।।१८।।
अराजके जनपदे धनवन्तः न सुरक्षिताः (न च) कृषिगोरक्षजीविनः विवृत-द्वाराः शेरते ।
बिना राजा के राज्य में धनी जन सुरक्षित नहीं रह पाते हैं और न ही कृषिकार्य एवं गोरक्षा (गोपालन) से आजीविका कमाने वाले लोग ही दरवाजे खुले छोड़कर सो सकते हैं । अर्थात् राजा न होने पर सर्वत्र असुरक्षा फैल जाती है और चोरी-छीनाझपटी जैसी घटनाओं का उन्हें सामना करना पड़ता है ।

नाराजके जनपदे वाहनैः शीर्घवाहिभिः ।
नरा निर्यान्त्यरण्यानि नारीभिः सह कामिनः ।।१९।।
अराजके जनपदे कामिनः नराः नारीभिः सह शीर्घवाहिभिः वाहनैः अरण्यानि न निर्यान्ति ।
बिना राजा के राज्य में स्त्रियों के प्रति आसक्त पुरुषगण नारियों के साथ शीघ्रगामी वाहनों के द्वारा वनविहार (मौजमस्ती) के लिए नहीं निकल सकते । राजाविहीन राज्य में प्रेमी युगल निर्भय होकर वनों-उपवनों में घूमने-फिरने का साहस नहीं रख सकते, क्योंकि उन्हें असामाजिक तत्वों का भय सताता है ।

नाराजके जनपदे वणिजो दूरगामिनः ।
गच्छन्ति क्षेममध्वानं बहुपण्यसमाचिताः ।।२२।।
अराजके जनपदे बहुपण्य-समाचिताः दूरगामिनः वणिजः क्षेमम् अध्वानं न गच्छन्ति ।
बिना राजा के राज्य में दूर-दूर तक व्यापार करने वाले वैश्यजन विक्रय हेतु चुनी गई बहुत-सी वस्तुएं लेकर सकुशल मार्ग तय नहीं करते । यानी उन्हें मार्ग में लुटेरों द्वारा लूटे जाने का डर रहता है ।

नाराजके जनपदे योगक्षेमः प्रवर्तते ।
न चाप्यराजके सेना शत्रून् विषहते युधि ।।२४।।
अराजके जनपदे योग-क्षेमः न प्रवर्तते, अपि च अराजके सेना युधि शत्रून् न विषहते ।
बिना राजा के राज्य में लोगों की सत्कर्म में संलग्नता एवं उनकी कुशलता (योगक्षेम) प्राप्त नहीं होती है, और न ही सेना राष्ट्र की सुरक्षा में शत्रुओं से लड़ पाती है । तब लोगों में सत्कर्म के प्रति लगाव और अनुचित कर्म में भय का भाव नहीं रह पाता है । सेना भी शत्रु से लड़ने का उत्साह खो बैठती है ।

नाराजके जनपदे हृष्टैः परमवाजिभिः ।
नरा संयान्ति सहसा रथैश्च प्रतिमण्डिताः ।।२५।।
अराजके जनपदे च नरा हृष्टैः परमवाजिभिः प्रतिमण्डिताः रथैः सहसा न संयान्ति ।
बिना राजा के राज्य में लोग आभूषणों के सजधजकर हृष्ट-पुष्ट उत्तम घोड़ों एवं रथों से सहसा (जब इच्छा हो तब) यात्रा नहीं करते । तब असुरक्षित मार्ग में लुटेरों के भय से वे यात्रा करने से बचते हैं ।

नाराजके जनपदे स्वकं भवति कस्यचित् ।
मत्स्या इव जना नित्यं भक्षयन्ति परस्परम् ।।३१।।
अराजके जनपदे कस्यचित् स्वकं न भवति, मत्स्याः इव जनाः नित्यं परस्परम् भक्षयन्ति ।
बिना राजा के राज्य में कोई व्यक्ति किसी का अपना नहीं रह जाता है और लोग एक-दूसरे को मछलियों की भांति खाने लगते हैं । राजा के अभाव में सामाजिक संबंध भी टूटने लगते हैं । समर्थ जन निरंकुश तथा भयमुक्त हो जाते हैं और वे कमजोर व्यक्तियों पर अत्याचार करने लगते हैं । ऐसे में बड़ी मछली द्वारा छोटी को आहार बना लेना जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।

पूर्वकाल में संपूर्ण शासकीय व्यवस्था राजा पर केंद्रित रहती थी । राजकाज की सफलता उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करती थी । राजा से अपेक्षा रहती थी कि वह चरित्रवान हो, दृढ़ संकल्प वाला हो, जनता के हितों के प्रति समर्पित हो, ज्ञानी एवं अनुभवी जनों का सम्मान करता हो तथा उनसे राय लेता हो, आपराधिक वृत्ति में लिप्त जनों को दंड देने में विलंब न करता हो, इत्यादि । प्राचीन ग्रंथों में जिन राजाओं की प्रशंसात्मक चर्चा होती है वे इसी प्रकार के व्यक्ति थे । जब ऐसा राजा न रहे तो दुर्व्यवस्था जन्म लेने लगती है यही संदेश इन था अन्य श्लोकों में निहित है ।

आज राजा नहीं रह गये हैं । हम लोकतांत्रिक शासकीय व्यवस्था में रह रहे हैं । राजा का स्थान अब नये प्रकार के शासकों ने ले ली है । शासकीय व्यवस्था अब इन नये ‘राजाओं’ के आचरण पर निर्भर करता है । जब वे अपने कर्तव्य भूल जाते हैं, जनता के प्रति असंवेदन हो जाते हैं, आपराधिक वृत्ति के लोगों पर अंकुश लगाने का संकल्प नहीं ले पाते हैं, और उचितानुचित का विवेक खो बैठते हैं, तब ‘अराजकता’ की स्थिति पैदा हो जाती है । आज हमारे देश में कुछ ऐसा ही हो रहा है । वर्तमान काल में हमारे राजा-तुल्य शासक केवल कुर्सी पर बैठना जानते हैं, न कि उसकी गरिमा के अनुसार कर्म करने में । – योगेन्द्र जोशी

‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः …’ – वाल्मीकि रामायण का आधारभूत श्लोक

महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ग्रंथ ‘रामायण’ को संस्कृत साहित्य का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है । यह महाकाव्य बालकांड, अयोध्याकांड, आदि (जैसा श्री तुलसीदासकृत ‘रामचरितमानस’ में है) में विभक्त है, और हर कांड सर्गों में बंटा है । ग्रंथ के आरंभ में, वस्तुतः सर्ग दो में, निम्नलिखित श्लोक का उल्लेख है:

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।

(रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक १५)
{निषाद, त्वम् शाश्वतीः समाः प्रतिष्ठां मा अगमः, यत् (त्वम्) क्रौंच-मिथुनात् एकम् काम-मोहितम् अवधीः ।}

हे निषाद, तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है । (शब्दकोश के अनुसार क्रौंच सारस की अथवा बगुला की प्रजाति का पक्षी बताया जाता है। किसी अन्य शब्दकोश में चकवा या चकोर भी देखने को मिला है ।)

यह श्लोक महर्षि वाल्मीकि के मुख से एक बहेलिए के प्रति अनायास निकला शाप है कि वह कभी भी प्रतिष्ठा न पा सके । (मेरे पास उपलब्ध गीताप्रेस, गोरखपुर, की प्रति में प्रतिष्ठा का हिंदी में अर्थ शांति किया गया है ।) रामायण ग्रंथ के पहले सर्ग में इस बात का उल्लेख है कि देवर्षि नारद महर्षि बाल्मीकि के तमसा नदी तट पर अवस्थित आश्रम पर पधारते हैं और उन्हें रामकथा का संक्षिप्त परिचय देते हैं । देवर्षि के चले जाने के बाद महर्षि अपने शिष्यों के साथ तमसा नदी तट पर स्नानार्थ जाते हैं । तभी वे अपने वस्त्रादि अपने प्रिय शिष्य भरद्वाज को सौंप पेड़-पौधों से हरे-भरे निकट के वन में भ्रमणार्थ चले जाते हैं । उस वन में एक स्थान पर उन की दृष्टि क्रौंच पक्षियों के रतिक्रिया में लिप्त एक असावधान जोड़े पर पड़ती है । कुछ ही क्षणों के बाद वे देखते हैं कि उस जोड़े का एक सदस्य चीखते और पंख फड़फड़ाते हुए जमींन पर गिर पड़ता है । और दूसरा उसके शोक में चित्कार मचाते हुए एक शाखा से दूसरे पर भटकने लगता है । उस समय अनायास ही उक्त निंदात्मक वचन उनके मुख से निकल पड़ते हैं ।

महर्षि के मुख से निकले उक्त छंदबद्ध वचन उनके किसी प्रयास के परिणाम नहीं थे । घटना के बाद महर्षि इस विचार में खो गये कि उनके मुख से वे शब्द क्यों निकले होंगे । वे सोचने लगे कि क्यों उनके मुख से बहेलिए के प्रति शाप-वचन निकले । इसी प्रकार के विचारों में खोकर वे नदी तट पर लौट आये । घटना का वर्णन उन्होंने अपने शिष्य भरद्वाज के समक्ष किया और उसे बताया कि उनके मुख से अनायास एक छंद-निबद्ध वाक्य निकला जो आठ-आठ अक्षरों के चार चरणों, कुल बत्तीस अक्षरों, से बना है । इस छंद को उन्होंने ‘श्लोक’ नाम दिया । वे बोले “श्लोक नामक यह छंद काव्य-रचना का आधार बनना चाहिए; यह यूं ही मेरे मुख से नहीं निकले हैं ।” पर कौन-सी रचना श्लोकबद्ध होवे यह वे निश्चित कर पा रहे थे ।

आगे की कथा यह है कि तमसा नदी पर स्नानादि कर्म संपन्न करने के पश्चात् महर्षि आश्रम लौट आये और आसनस्थ होकर विभिन्न विचारों में खो गये । तभी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने उन्हें दर्शन दिये और देवर्षि नारद द्वारा उन्हें सुनाये गये रामकथा का स्मरण कराया । उन्होंने महर्षि को प्रेरित किया कि वे पुरुषोत्तम राम की कथा को काव्यबद्ध करें । रामायण के इन दो श्लोकों में इस प्रेरणा का उल्लेख हैः

रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम ।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः ।।
वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम् ।
रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं तस्य धीमतः ।।

(रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक ३२ एवं ३३)
{ऋषि-सत्तम, त्वम् रामस्य कृत्स्नं चरितं कुरु, (कस्य?) लोके धर्मात्मनः धीमतः भगवतः रामस्य । नारदात् ते यथा श्रुतम् (तथा एव तस्य) धीरस्य वृत्तं कथय, तस्य धीमतः रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं (तत् कथय) ।}

हे ऋषिश्रेष्ठ, तुम श्रीराम के समस्त चरित्र का काव्यात्मक वर्णन करो, उन भगवान् राम का जो धर्मात्मा हैं, धैर्यवान् हैं, बुद्धिमान् हैं । देवर्षि नारद के मुख से जैसा सुना है वैसा उस धीर पुरुष के जीवनवृत्त का बखान करो; उस बुद्धिमान् पुरुष के साथ प्रकाशित (ज्ञात रूप में) तथा अप्रकाशित (अज्ञात तौर पर) में जो कुछ घटित हुआ उसकी चर्चा करो । सृष्टिकर्ता ने उन्हें आश्वस्त किया कि अंतर्दृष्टि के द्वारा उन्हें श्रीराम के जीवन की घटनाओं का ज्ञान हो जायेगा, चाहे उनकी चर्चा आम जन में होती आ रही हो या न ।

और तब आरंभ हुआ रामायण ग्रंथ की रचना श्लोकों में निबद्ध होकर । देवर्षि नारद द्वारा कथित बातें, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की प्रेरणा, और रामकथा की पृष्ठभूमि आदि का उल्लेख महर्षि वाल्मीकि ने स्वयं अपने ग्रंथ के आरंभ में किया है । पूरा ग्रंथ ‘श्लोक’ नामक छंदों में लिखित है । मैंने अभी रामायण का अध्ययन आरंभ ही किया है, लेकिन सरसरी निगाह डालने पर मैंने पाया कि ग्रंथ की भाषा काफी सरल है, और श्लोकों को समझना संस्कृत के सामान्य ज्ञान वाले व्यक्ति के लिए भी संभव है

रामकथा वस्तुतः पौराणिक है । इसलिए रामायण में जो कुछ वर्णित है वह अक्षरशः सही है क्या, इस बारे में कुछ कहना मेरे लिए संभव नहीं है । मुनि नारद कौन थे मैं नहीं जानता । क्या ऋषि वाल्मीकि को ब्रह्मा ने वास्तव में साक्षात् दर्शन दिये? या ऋषि को स्वप्न में उनके दर्शन हुए और उसी में उन्हें काव्यरचना की प्रेरणा प्राप्त हुई ? ऐसे प्रश्न मन में उठ सकते हैं । क्रौंच पक्षियुग्म में एक के हताहत होने से श्रीराम पर केंद्रित काव्यरचना का विचार मन में आया होगा मुझे ऐसा लगता है । वस्तुतः उस घटना को राम-सीता के संयोग-वियोग की कहानी के एक प्रतीक के रूप में लिया जा सकता है ।

आरंभ में ‘मा निषाद …’ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि आठ-आठ अक्षर वाले चार चरणों की यह विशेष पद्य-रचना को आदिकवि वाल्मीकि ने ‘श्लोक’ की संज्ञा दी थी । इसका तात्पर्य यह हुआ कि संस्कृत-साहित्य में पद्य-रचना छंदों में रहती है और ‘श्लोक’ विभिन्न प्रकार के छंदों में से एक है (जैसे हिंदी में दोहा, सोरठा, चौपाई, कुंडली आदि होते हैं) । यानी हर छंद को श्लोक नहीं कहा जा सकता है । इस तथ्य की जानकारी मुझे उपर्युक्त छंद के अध्ययन के बाद हुआ । संयोग से पद्यात्मक संस्कृत रचनाओं में ‘श्लोकों’ का ही प्रयोग अधिकतया देखने को मिलता है । महाभारत के प्रायः सभी छंद श्लोक ही हैं । जितना इस समय मुझे याद आ रहा है, पूरी भगवद्गीता श्लोकों में ही हैमनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, पंचतंत्र, हितोपदेश, चाणक्यनीतिदर्पण, आदि में भी श्लोक ही प्रमुखतया विद्यमान हैं । – योगेन्द्र जोशी

रामायण में राम-जाबालि संवाद

बाल्मीकिकृत रामायण में ऋषि जाबालि एवं श्रीराम के बीच एक संवाद का जिक्र है जो मुझे रोचक लगा । प्रसंग है वनवास के लिए जा चुके श्रीराम को मनाने श्रीभरत का उनके पास नागरिकों के साथ जाना । श्रीभरत चाहते हैं कि वे अयोध्या लौटें और राजकाज सम्हालें । वे चाहते हैं कि उनकी अनुपस्थिति में राज्य को लेकर जो अवांछित घटा उसे श्रीराम भूल जायें ।

राम-भरत के उस मिलाप के समय वहां ऋषि जाबालि भी मौजूद रहते हैं । श्रीराम इस बात पर जोर देते हैं कि वे अपने स्वर्गीय पिता को दिये गये वचन को तोड़कर उनकी आत्मा को कष्ट नहीं दे सकते । ऋषि जाबालि श्रीराम को समझाते हैं कि उन वचनों की अब कोई सार्थकता नहीं रह गयी और उन्हें व्यावहारिक उपयोगिता तथा जनसमुदाय की भावना को महत्त्व देना चाहिए । दोनों के बीच चल रहे तर्क-वितर्कों के दौरान एक समय ऋषि जाबालि कहते हैं कि मनुष्य दिवंगत आत्माओं के प्रति भ्रमित रहता है । वह भूल जाता है कि मृत्यु पर जीवधारी अपने समस्त बंधनों को तोड़ देता है । उसकी मृत्यु के साथ ही सबके संबंध समाप्त हो जाते हैं । न कोई किसी का पिता रह जाता है और न ही कोई किसी का पुत्र । संसार में छूट चुके व्यक्ति के कर्म दिवंगत आत्मा के लिए अर्थहीन हो जाते हैं । उन कर्मों से न उसे सुख हो सकता है और न ही दुःख । पर आम मानुष फिर भी भ्रम में जीता है । संवाद के दौरान वे कहते हैं, देखो क्या विडंबना है कि:

अष्टकापितृदेवत्यमित्ययं प्रसृतो जनः।
अन्नस्योपद्रवं पश्य मृतो हि किमशिष्यति ।।14।।

(बाल्मीकिविरचित रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 108)

अष्टकादि श्राद्ध पितर-देवों के प्रति समर्पित हैं यह धारणा व्यक्ति के मन में व्याप्त रहती है, इस विचार के साथ कि यहां समर्पित भोग उन्हें उस लोक में मिलेंगे । यह तो सरासर अन्न की बरबादी है । भला देखो यहां किसी का भोगा अन्नादि उनको कैसे मिल सकता है वे पूछते हैं, और आगे तर्क देते हैं:

यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति ।
दद्यात् प्रवसतां श्राद्धं तत्पथ्यमशनं भवेत् ।।15।।

(पूर्वोक्त संदर्भ स्थल)

वास्तव में यदि यहां भक्षित अन्न अन्यत्र किसी दूसरे के देह को मिल सकता तो अवश्य ही परदेस में प्रवास में गये व्यक्ति की वहां भोजन की व्यवस्था आसान हो जाती – यहां उसका श्राद्ध कर दो और वहां उसकी भूख शांत हो जाये !

मुझे लगता है कि प्राचीन भारत में दर्शन एवं अध्यात्म के विषय में मनीषियों-चिंतकों का अपना स्वतंत्र मत होता था । उनके मतों में विविधता रहती थी, कदाचित् फिर भी उनके बीच गंभीर संघर्ष की स्थिति पैदा नहीं होती थी । जिसको जो मत भा जाये वह उसी को स्वीकार लेता था । यही कारण है कि इस देश में ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी एक साथ देखने को मिल जाते थे और हैं । वैमत्य तब तक घातक नहीं होता जब तक कि व्यक्ति असहमत व्यक्ति को कष्ट देना आरंभ न कर दे । संघर्ष की शुरुआत वस्तुतः तब होती है जब हम दूसरों पर अपने विचार थोपने लगते हैं, जैसा कि आज समाज में हो रहा है । मैं समझता हूं कि ऋषि जाबालि की आस्तिकता आम लोगों की आस्तिकता से भिन्न थी । – योगेन्द्र

(अष्टकादि श्राद्ध – कृष्णपक्ष की सप्तमी, अष्टमी, एवं नवमी की सम्मिलित संज्ञा अष्टक है । इन तीन दिनों के पितर-तर्पण आदि अष्टकादि श्राद्ध कहे जाते हैं ।)