महाभारत महाकाव्य में मूषक एवं विडाल की अल्पकालिक मित्रता की कथा

निकट भविष्य में देश में लोकसभा चुनाव होने हैं। अपने-अपने हित साधने या अस्तित्व बचाने के लिए राजनैतिक दल मेल-बेमेल गठबंधन बनाने में जुटे हैं। बेमेल गठबंधनों को देखने पर मुझे महाकाव्य महाभारत (शान्ति पर्व, अध्याय १३८) में वर्णित विडाल (बिलाव) एवं मूषक (मूस) की अल्पकालिक मित्रता की एक कथा याद आ रही है। उसी कथा से संबंधित कुछएक नीतिवचनों का उल्लेख यहां पर कर रहा हूं।

 

संक्षेप में कथा कुछ इस प्रकार है — किसी वन में एक विशाल पेड़ था, जिसके जड़ के पास एक मूस (बड़े आकार का चूहा) बिल बनाकर रहता था। उसी पेड़ पर एक बिलाव (बिल्ला) भी रहा करता था। बिल्ले से बचते हुए मूस बिल के बाहर भोजन की तलाश में निकला करता था।

एक बार एक बहेलिये ने पेड़ के पास जाल बिछा दिया, जंगली जानवरों एवं पक्षियों को फंसाकर कब्जे में लेने के लिए। उसका इरादा दूसरे दिन प्रातः आकर उन पशु-पक्षियों को ले जाने का था जो जाल में फंसे हों। दुर्भाग्य से वह बिलाव जाल में फंस गया। उसे जाल में फंसा देख चूहा आश्वस्त हो गया और निर्भय होकर इधर-उधर भोजन तलाशने लगा। कुछ देर में उसे एक नेवला दिखाई दिया जो उस मूस की गंध पाकर उस स्थान के आसपास पहुंचा और उसे मारने के लिए मौके का इंतिजार करने लगा। मूस को पेड़ की एक डाल पर बैठा हुआ एक और दुश्मन उल्लू भी नजर आया। मूस को तीन-तीन शत्रु आसपास नजर आए।

वस्तुस्थिति को देख उसने सोचा, “अपने बिल की ओर जाना अभी मेरे लिए सुरक्षित नहीं है। तीनों शत्रुओं में मेरा सबसे बड़ा शत्रु, जिससे शेष दो भी दूरी बनाए रखते हैं, जाल में फंसा असहाय है। अपनी खुद की विवशता देख मुझे मारने का प्रयास नहीं करेगा। अतः उसी के सान्निध्य में पहुंचकर अपने को सुरक्षित रखना बुद्धिमत्ता होगी। उसकी सुरक्षा का आश्वासन देकर मैं स्वयं उसका विश्वास पा सकता हूं।”

उसने बिल्ले के पास जाकर कहा, “मित्र बिडाल, आप इस समय आपत्ति में फंसे हैं। जाल काटकर मैं आपकी सहायता कर सकता हूं, बशर्ते आप मेरी सुरक्षा के लिए बचनबद्ध होवें।”

बिल्ले ने कहा, “ठीक है मुझे मंजूर है। परन्तु मुझे करना क्या है?”

“आप मुझे अपने संरक्षण में ले लें ताकि मैं सुरक्षित रात बिता सकूं। मैं आपको वचन देता हूं कि प्रातः बहेलिये के आने तक मैं आपको पाश-मुक्त कर दूंगा।” मूस ने कहा।

बिल्ले ने उसकी बात मान ली। उसने समझ लिया था कि उस परिस्थिति में कोई उसे बचाने नहीं आने वाला। मूस ही उसका हित साध सकता था, इसलिए उसकी बात मानना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। इसके बाद वह बीच-बीच में मूस को उसके वचन की याद दिलाता और पूछता कि वह कब उसके बंधन काटेगा। प्रातःकाल होते-होते मूस ने जाल के कई तंतुओं को काट लिए, लेकिन कुछ बंधन जानबूझकर छोड़े रखा।

बिल्ला उसको याद दिला रहा था कि जब उन दोनों ने परस्पर मित्रता कर ली है तो वह जाल के बंधन काटकर उसे मुक्त क्यों नहीं कर रहा है। तब मूस ने बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए बिल्ले को ये नीतिवचन सुनाए:

न कश्चित्कस्यचिन्मित्रं न कश्चित्‍कस्यचिद्‍ रिपु: ।

अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥११०॥

(महाभारत, शान्तिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व, अध्याय १३८)

(कश्चित् कस्यचित् मित्रम् न, कश्चित् कस्यचित् रिपु: न, मित्राणि तथा रिपवः अर्थत: तु निबध्यन्ते ।)

अर्थ – न कोई किसी का मित्र होता है और न ही शत्रु। अपने-अपने स्वार्थवश ही मित्र तथा शत्रु परस्पर जुड़ते हैं। [वैकल्पिक अर्थ – मनुष्य से जुड़ते हैं।]

और

शत्रुरूपा हि सुहृदो मित्ररूपाश्च शत्रवः ।

संधितास्ते न बुध्यन्ते कामक्रोधवशं गताः ॥१३८॥

(यथा उपर्युक्त)

(सुहृदः शत्रुरूपाः हि शत्रवः च मित्ररूपाः, संधिताः ते काम-क्रोध-वशं गताः न बुध्यन्ते ।)

अर्थ – परिस्थिति के अनुरूप सुहृज्जन भी शत्रुरूप धारण कर लेते हैं (शत्रु बन जाते हैं) और शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। परस्पर संधि (समझौते) से जुड़े होने पर भी काम (प्रबल इच्छा) एवं क्रोध के वशीभूत होने पर (उनके व्यवहार से) समझ में नहीं आता कि वे शत्रु हैं या मित्र?

उक्त दो छंदों के माध्यम से चूहे ने यह स्पष्ट किया कि मित्रता एवं शत्रुता का आधार स्वार्थ होता है। फलतः परिस्थितियां बदल जाने पर मित्रता-शत्रुता के भाव भी बदल जाते हैं। परस्पर मित्रता से बंधे होने पर भी जब व्यक्ति के मन में प्रबल इच्छा-भाव जगता है या उसे आक्रोश घेर लेता है मित्रता का विचार बदल जाता है।

मूस के कहने का मंतव्य यह है कि जब दो जने मित्रता में बंधे होते हैं तब भी विपरीत परिस्थिति पैदा हो जाने पर अपनी प्रबल इच्छा अथवा गुस्सा के वशीभूत होने पर वे मित्रता का भी ध्यान खो बैठते हैं। उसने स्पष्ट संकेत बिल्ले को दिया कि यदि वह जाल से मुक्त हो गया तो वह मित्रता का वचन भुला सकता है और उसी (मूस) पर हमला कर सकता है। इसलिए वह उसे (बिल्ले को) को मुक्त करने को उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करेगा।

आगे मूस इस तथ्य की ओर ध्यान खींचता है कि

नास्ति मैत्री स्थिरा नाम न च ध्रुवमसौहृदम् ।

अर्थयुक्त्यानुजायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥१४१॥

(यथा उपर्युक्त)

(मैत्री नाम स्थिरा न अस्ति, असौहृदम् च न ध्रुवम्, मित्राणि तथा रिपवः अर्थ-युक्त्या अनुजायन्ते ।)

अर्थ – अवश्य ही मित्रता स्थायी नहीं होती और विद्वेष भी स्थायी नहीं होता। स्वार्थ से(अर्थात् अपने-अपने हित साधने के लिए) ही लोग मित्र एवं शत्रु बनते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि मित्रता एवं शत्रुता मौके-मौके की बातें है। जब व्यक्ति को किसी से अपने स्वार्थ सिद्ध करने हों तो वह मित्रता कर लेता है। किन्तु जब उनके हित टकराने लगते हैं तो वह व्यक्ति शत्रुता पर उतर आता है। उसने बिलाव को याद दिलाया कि उन दोनों की मित्रता अस्थायी है और कभी भी टूट सकती है।

मूस के अनुसार हमारे सामाजिक रिश्ते दरअसल स्थार्थ्यजनित ही होते हैं जैसा अगले छंद में कहा गया है:

अर्थयुक्त्या हि जायन्ते पिता माता सुतस्तथा ।

मातुला भागिनेयाश्च तथासम्बन्धिबान्धवाः ॥१४५॥

(यथा उपर्युक्त)

(पिता माता सुत: तथा च मातुलाः भागिनेया: तथा सम्बन्धि-बान्धवाः अर्थ-युक्त्या हि जायन्ते ।)

अर्थ – माता, पिता, पुत्र, मामा, भांजा इत्यादि संबंधी एवं बंधुबान्धव आदि के परस्पर संबंध स्वार्थ के कारण बनते हैं।

स्वार्थ में कितनी शक्ति है यह अगले नीति-छंद से स्पष्ट होता है:

पुत्रं हि मातापितरौ त्यजतः पतितं प्रियम् ।

लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम् ॥१४६॥
(यथा उपर्युक्त)

(पतितम् प्रियम् पुत्रं हि माता-पितरौ त्यजतः, लोक: रक्षति च आत्मानम् स्वार्थस्य सारताम् पश्य ।)

अर्थ –मार्गभ्रष्ट (चारित्रिक तौर से गिरे) पुत्र (संतान) को माता-पिता भी त्याग देते हैं। निश्चय ही मनुष्य पहले अपनी रक्षा करता है। देखो स्वार्थ का सार इसी तथ्य में निहित है।

अर्थात् यदि संतान के कारण अपनी प्रतिष्ठा गिरने का डर हो तब माता-पिता भी उसका बहिष्कार कर डालते हैं। ऐसा कुछ आज के समाज में देखने को कम ही मिलता है। इस युग में बहिष्कार-योग्य व्यक्ति का बचाव करने माता-पिता ही नहीं अपितु संबंधी, परिचित, मित्र आदि भी मैदान में कूद पड़ते हैं। शायद प्राचीन काल में कभी स्थिति भिन्न रही होगी।

इन नीति-वचनों के द्वारा मूस स्पष्ट कर देता है कि वह बिलाव की मित्रता के प्रति पूर्णतः आश्वस्त नहीं हो सकता है।

इस कथा का अंत इस प्रकार है — प्रातःकाल मूस एवं बिलाव बहेलिये को निकट आता हुए दिखते हैं। तब सही क्षण पर मूस अपना वचन निभाते हुए जाल के शेष बंधन काटकर बिलाव को बंधन-मुक्त कर देता है और तेजी से अपने बिल की ओर भाग जाता है। बिलाव भी बहेलिए को पास आ चुका देखकर पेड़ की ओर भागकर उसमें चढ़ जाता है। इसके साथ ही उन दोनों के बीच की अल्पकालिक मित्रता समाप्त हो जाती है।

इस स्थल पर एक टिप्पणी करना समीचीन होगा। प्राचीन संस्कृत साहित्य में शिक्षाप्रद संदेश देने के ऐसे दृष्टांत देखने को मिल जाते हैं जिनमें पशु-पक्षियों को पात्रों के तौर पर प्रयोग में लिया गया हो। पंचतंत्र एवं हितोपदेश ऐसी शैली या परंपरा के सुविख्यात उदाहरण हैं। महाभारत महाकाव्य ग्रंथ में भी किसी-किसी स्थल पर पशु-पक्षियों के माध्यम से दिए गए नीति संदेश पढ़ने को मिल जाते हैं। इस विधि से दिए गए नीति-संदेश मनोरंजक होते हैं न कि शुष्क एवं उबाऊ। – योगेन्द्र जोशी

लक्ष्मण रेखा …, किंतु रामचरितमानस, महाभारत एवं रामायण में इसका उल्लेख ही नहीं! (द्वितीय भाग – रामचरितमानस)

पिछली पोस्ट (12 मई 2010) में मैंने अपने मन में उठे इस प्रश्न का जिक्र किया था कि ‘लक्ष्मण रेखा’ का रामकथा के अंतर्गत घटित किसी घटना से क्या वाकई कोई संबंध है । जिन तीन ग्रंथों में मैंने उत्तर खोजने की चेष्टा की उनमें ऐसा कुछ भी नहीं मिला । उनमें से एक गोस्वामी तुलसीदासकृत रामचरितमानस में सीताहरण का जो वर्णन मुझे पढ़ने को मिला उसका सार्थक अंश मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं । यह पाठ मेरे पास उपलब्ध उक्त ग्रंथ की गीताप्रेस, गोरखपुर, द्वारा प्रकाशित प्रति पर आधारित है ।
(संदर्भः रामचरितमानस, अरण्यकाण्ड, दोहा सं. 27 के बाद के दोहे-चौपाइयां)

प्रसंग के अनुसार जब श्रीराम द्वारा स्वर्णमृग बने मारीच का वन में वध होता है तब उसके मुख से निकले‘हा लक्ष्मण’ का आर्तनाद सुनकर सीता विचलित हो उठती हैं और श्रीराम की सहायता करने लक्ष्मण से वन में जाने का आग्रह करती हैं । संबंधित वर्णन यों हैः

जाहु बेगि संकट अति भ्राता । लछिमन बिहसि कहा सुनु माता ।।

भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई । सपनेहु संकट परइ कि सोई ।।

मरम बचन जब सीता बोला । हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ।।

बन दिसि सौंपि सब काहू । चले जहां रावन ससि राहू ।।

सून बीच दसकंधर देखा । आवा निकट जती कें बेषा ।।

(हे लक्ष्मण, जल्दी से जाओ, तुम्हारे भाई पर संकट आ पड़ा है । उत्तरस्वरूप लक्ष्मण ने हंसते हुए कहा, “हे माता, जिसके भौं के इशारे भर से सृष्टि का ही विलय हो जाए, ऐसे राम पर सपने में भी संकट आ सकता है भला?” तत्पश्चात् जब सीता के मुख से मर्मस्पर्शी या दिल को चुभने वाले लांछनात्मक शब्द निकले तो भगवत्प्रेरणा से लक्ष्मण का मन विचलित हो गया । फलतः वे सीता को वन-देवता तथा दिक्पालों को सौंपकर वहां चल दिए, जहां रावण रूपी चंद्र के लिए राहु रूपी राम गये हुए थे । तब पर्णकुटी के स्थल को सूना पाने पर रावण यती/सन्यासी के वेष में सीता के निकट आ पहुंचा ।)

दो-चार चौपाइयों के बाद आगे तुलसी का वर्णन यों हैः

नाना बिधि करि कथा सुहाई । राजनीति भय प्रीति दिखाई ।।

कह सीता सुनु जती गोसाईं । बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं ।।

तब रावन निज रूप दिखावा । भई सभय जब नाम सुनावा ।।

(रावण ने विविध प्रकार की लुभावनी बातें सुनाकर उन्हें प्रभावित करने की चेष्टा की और राजनीति, भय तथा प्रेम के मिश्रित दांव उन पर चलाए । उसकी बातें सुनकर सीता ने कहा, “अरे यति गोसाईं, आप तो दुष्टों की तरह बात कर रहे हैं, उनके जैसा बरताव कर रहे हैं ।” तब रावण ने अपना असली रूप दिखाया, अपना परिचय उनके सामने रखा । उसका नाम सुनने पर वे भयभीत हो गईं ।)

फिर आगे की घटना यों दर्शाई हैः

कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा । आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाड़ा ।।

जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा । भएसि कालबस निसिचर नाहा ।।

सुनत बचन दससीस रिसाना । मन महुं चरन बंदि सुख माना ।।

क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाई ।

चला गगनपथ आतुर भयं रथ हांकि न जाई ।।

(भयाकुल होने के बावजूद सीता ने धैर्य से काम लिया और बोलीं, “अरे दुष्ट, जरा ठहर तो, अभी प्रभु राम लौटने ही वाले हैं । जैसे हरिबधू अर्थात् सिंहनी, (हरि माने सिंह) की कामना कोई खरगोश करे, वैसे ही, अरे निशाचर, तुम मुझे चाहकर ख्वाहमख्वाह काल के वश में हो रहे हो ।” यानी मर्यादा भूलकर अपनी मृत्यु बुला रहे हो । इन वचनों को सुनकर रावण कुपित तो हो गया, लेकिन मन ही मन सीता के चरणों की वंदना में वह सुख का भी अनुभव करने लगा । क्रोध के वशीभूत होकर उसने सीता को बलात् रथ पर बिठाया और आकाश मार्ग से उतावली के साथ चल दिया, किंतु भय के मारे उससे रथ हांका नहीं जा रहा था ।)

गोस्वामी तुलसीदास के वर्णन के अनुसार सीता द्वारा लांछन लगाए जाने पर लक्ष्मण ने उनकी सुरक्षा के बाबत वनदेवताओं से प्रार्थना की, और राम की सहायता के लिए चल पड़े । यह उल्लेख कहीं नहीं है कि वे कुटिया के बाहर किसी प्रकार का घेरा खींचकर गये, जिसका अतिक्रमण करने पर रावण भस्म हो जाता । कथा के अनुसार तो आरंभ में सीता ने रावण का आतिथ्य-सत्कार ही किया । दोनों के बीच बातें भी हुई, और जब साथ चलने के रावण के आग्रह को सीता ने ठुकराया, तब रावण ने कुपित हो उनका अपहरण किया ।

कुल मिलाकर ‘लक्ष्मण रेखा’ की बात कहीं पर नहीं कही गई है । महाभारत में भी मिलता-जुलता वर्णन पढ़ने को मिलता है, और लक्ष्मण रेखा की बात वहां भी नहीं कही गयी है । इस प्रकरण की महाभारत पर आधारित चर्चा आगामी आलेख का विषय रहेगा । – योगेन्द्र जोशी

 

इस पोस्ट में कालांतर में यह जोड़ा गया:

रामचरितमानस के लंकाकांड में चौपाइयों की ये दो पंक्तियां पढ़ने को मिलती हैं:

कंत समुझि मन तजहु कुमतिही । सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥

रामानुज लघु रेख खचाई । सोउ  नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥

(श्रीरामचरितमानस सटीक, मझला साइज़, गीताप्रेस, गोरखपुर, १९वां पुनर्मुद्रण, सं. २०६३, लंकाकांड, पृष्ठ ७३९)

अर्थ: (प्रसंग के अनुसार महारानी मंदोदरी लंकानरेश रावण को समझाती हैं कि) हे कांत, अपने मन में किंचित विचार करो, श्रीराम और तुम्हारे मध्य यह युद्ध शोभा नहीं देता । राम के छोटे भाई (लक्ष्मण) ने छोटी-सी रेखा खींची थी, उसी को तुम लांघ नहीं पाये ऐसा तो तुम्हारा पुरुषार्थ है।

मंदोदरी के कथन के अनुसार रावण में इतना पुरुषार्थ नहीं था कि वह सीता की सुरक्षा के लिए लक्ष्मण द्वारा खींचा गया घेरा लांघ सकता । यहां यह सवाल उठता है कि मंदोदरी को कैसे पता चला कि सीता की सुरक्षा के लिए लक्ष्मण ने क्या प्रबंध किया था । वह स्वयं चस्मदीद गवाह तो हो नहीं सकती थी, क्योंकि वह सीताहरण के लिए रावण के साथ गई नही थी । ऐसे अवसर पर तो एक ही व्याख्या समीचीन हो सकती है कि उसे ऐसा किसी न किसी से सुनने को मिला होगा । मंदोदरी के सुने वचन – आंखों देखी घटना नहीं – को अधिक विश्वसनीय माना जाना चाहिए या ग्रंथकार ने रावण-सीता की भेंट, वार्तालाप, आदि का जो वर्णन किया है उस पर भरोसा किया जाए ? उस प्रकरण के अनुसार तो आरंभ में सभी कुछ सामान्य एवं सौहार्दपूर्ण था । मैं उसी वर्णन को मान्य समझता हूं और मंदोदरी के वक्तव्य को सुनी-सुनाई बात कहूंगा । इसलिए मेरे मत में लक्ष्मण रेखा की बात कथा के अनुसार काल्पनिक ही कही जायेगी । – योगेन्द्र जोशी

‘लक्ष्मण रेखा’! किंतु रामचरितमानस, महाभारत एवं रामायण में इसका उल्लेख ही नहीं!

पिछले कुछ समय से मैं वाल्मीकीय रामायण का अध्ययन कर रहा हूं । मेरे पास इस ग्रंथ की गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा दो खंडों में प्रकाशित प्रति है, जिसमें मूल संस्कृत श्लोकों से साथ-साथ हिंदी में भी उनका अनुवाद दिया गया है । इन संस्कृत श्लोकों के अर्थ समझने में मुझे सामान्यतः कोई खास कठिनाई अनुभव नहीं होती है; फिर भी कभी-कभी गाड़ी अटकने लगती है तो संबंधित हिंदी अनुवाद से मुझे पर्याप्त सहायता मिल जाती है । संप्रति मैं राम-कथा के उस प्रसंग पर पहुंच चुका हूं जिसमें हनुमान् समुद्र लांघकर रावण की लंका जाने की तैयारी कर रहे हैं । इसके पूर्व सीताहरण के प्रसंग के बारे में मैं पढ़ चुका था ।

सीताहरण के संदर्भ में मुझे एक रोचक तथ्य इस ग्रंथ में देखने को मिला । वह यह है कि उसमें ऐसा कहीं उल्लिखित नहीं है कि लक्ष्मण ने मारीच-वध के बाद श्रीराम की मिथ्या पुकार (वस्तुतः मारीच द्वारा ‘हा लक्ष्मण’ की कृत्रिम पुकार) सुनने और सीता की उलाहना झेलने के बाद वन की ओर जाने के पहले कुटिया के परितः कोई सुरक्षा घेरा खींचा हो । अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए मैंने महर्षि व्यास द्वारा रचित महाकाव्य महाभारत (उसमें भी रामकथा की चर्चा है) के पन्ने पलटे । और फिर गोस्वामी तुलसीकृत रामचरितमानस के पृष्ठों पर भी दृष्टि दौड़ाई । ‘लक्ष्मण रेखा‘ की बात वहां भी पढ़ने को नहीं मिली । तब मेरे मन में प्रश्न उठा कि लक्ष्मण रेखा की बात कब ओर कहां से आई ?

लक्ष्मण रेखा की बातें मैं बचपन से सुनता आ रहा हूं । कदाचित् कभी कहीं श्रीराम से जुड़ी किसी कथा में इसे पढ़ा हो, अथवा अपने बुजुर्गों के मुख से तत्संबंधित कथा सुनी हो । इस विषय मैं मुझे कुछ भी ठीक से याद नहीं है । हां, रोजमर्रा की जिंदगी में लोगों के मुख से मौके-बेमौके इस शब्दयुग्म को सुनता आ रहा हूं । क्या है यह लक्ष्मण रेखा ? कहा यही जाता है कि जीवन के विभिन्न कार्य-व्यापारों में मनुष्य को कुछेक मर्यादाओं का पालन करना चाहिए, उन सीमाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए जो नैतिकता, वैधानिकता, अथवा स्थापित परंपरा के आधार पर समाज में स्वीकारी गयी हैं । जब भी कोई ऐसे प्रतिबंधों का उल्लंघन कर बैठता है तो उस पर ‘लक्ष्मण रेखा पार कर दी’ का आरोप लगा दिया जाता है । आजकल अपने देश की राजनीति के संदर्भ में भी इस ‘रेखा’ का उल्लेख बहुधा देखा जाता है । यह बात अलग है कि उसका उल्लंघन करना राजनेताओं का शगल या विशिष्टाधिकार बन चुका है । अस्तु ।

मतलब यह कि ‘लक्ष्मण रेखा’ प्रायः सभी के लिए एक सुपरिचित पदबंध अथवा सामासिक शब्द है । मेरा अनुमान है कि प्रायः सभी इसका संबंध उस कथा से जोड़ते हैं, जिसमें रावण द्वारा सीता का अपहरण न होने पाए इस उद्येश्य से सीता की पर्णकुटी के चारों ओर लक्ष्मण ने ‘कथित तौर पर’ अभिमंत्रित सुरक्षा घेरा खींचा था । प्रचलित कथा के अनुसार रावण उस खतरे को भांप गया; परंतु उसके झांसे में आकर स्वयं सीता उस घेरे को पार कर गयीं और रावण द्वारा हरी गईं । सीता ने उस ‘मर्यादा’ का अतिक्रमण कर डाला । और यहीं से ‘लक्ष्मण रेखा’ स्थापित मर्यादा-सीमा का द्योतक हो गयी । मेरा खयाल है कि लोगों की इस ‘रेखा’ के बारे में कुछ ऐसी ही समझ है ।

मुझे जिज्ञासा हुई कि क्या आधुनिक इंटरनेट खजाने में भी इस बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध है । ‘विकीपीडिया’ (अंग्रेजी) पर (अथवा विकी-हिंदी पर) जो जानकारी मुझे मिली वह यों हैः

“रामायण के एक प्रसिद्ध प्रसंग के अनुसार वनवास के समय सीता के आग्रह के कारण राम मायावी स्वर्ण म्रग के आखेट हेतु उसके पीछे गये। थोड़ी देर मे सहायता के लिए राम की पुकार सुनाई दी, तो सीता ने लक्ष्मण से जाने को कहा। लक्ष्मण ने बहुत समझाया कि यह सब किसी की माया है,पर सीता न मानी। तब विवश होकर जाते हुए लक्ष्मण ने कुटी के चारों ओर अपने धनुष से एक रेखा खींच दी कि किसी भी दशा मे इस रेखा से बाहर न आना। तपस्वी के वेश मे आए रावण के झाँसे मे आकर सीता ने लक्ष्मण की खींची हुई रेखा से बाहर पैर रखा ही था कि रावण उसका अपहरण कर ले गया। उस रेखा से भीतर रावण सीता का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। तभी से आज तक [[लक्ष्मण रेखा]] नामक उक्ति इस आशय से प्रयुक्त होती है कि, किसी भी मामले मे निश्चित हद को पार नही करना है, वरना बहुत हानि उठानी होगी। “

श्रीराम की कथा पर विभिन्न भाषाओं में शायद एकाधिक ग्रंथ रचे गये हैं, जैसे तमिल में तमिल कवि ‘कंबन’ द्वारा रचित ‘रामावतारम्’ (कंब रामायण) । मैंने कभी यह ग्रंथ नहीं देखा है, लेकिन सुना है कि कंबन तमिल एवं संस्कृत के ज्ञाता थे और उन्होंने वाल्मीकीय रामायण पर आधारित रामकथा लिखी थी । अधिक जानकारी के लिए यहां अथवा यहां देखें । विख्यात भारतीय अंग्रेजी साहित्यकार आर. के. नारायण की ‘दि रामायण’ का भी नाम मैंने सुना है । रामकथा पर फिल्में तथा टेलिविजन भी आधुनिक काल में बन चुकी हैं । ये सब जनश्रुतियों पर आधारित हैं अथवा महर्षि वाल्मीकि की रामायण तथा अन्य ग्रंथों पर । अगर इनमें कहीं ‘लक्ष्मण रेखा’ की बात कही गयी हो तो उसकी वाल्मीकीय रामायण से संगति नहीं बैठेगी । ‘लक्ष्मण रेखा’ का जिक्र तो महाभारत तथा रामचरितमानस में भी देखने को नहीं मिलता है । इस संदर्भ में इन ग्रंथों में मुझे पढ़ने-समझने को क्या मिला इसका उल्लेख आगामी आलेखों में करने का मेरा विचार है । – योगेन्द्र जोशी

श्वः कार्यमद्य…यानी काल करै सो आज… (महाभारत)

महाकाव्य महाभारत के शान्तिपर्व में पितामह भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को विविध उपदेश दिये जाने का विस्तृत वर्णन है । उन्हीं उपदेशों में अधोलिखित नीतिश्लोक का भी उल्लेख है:

श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम् ।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वास्य न वा कृतम् ।।१३।।

(महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २७७)

जिसका अर्थ यूं दिया जा सकता है: “जो कार्य कल किया जाना है उसे पुरुष आज ही संपन्न कर ले, और जो अपराह्न में किया जाना हो उसे पूर्वाह्न में पूरा कर ले, क्योंकि मृत्यु किसी के लिए प्रतीक्षा नहीं करती है, भले ही कार्य संपन्न कर लिया गया हो या नहीं ।” अर्थात् मृत्यु कब आ जायेगी इसका पूर्वानुमान कोई नहीं कर सकता है । कार्य संपन्न हो चुका कि नहीं इस बात का इंतजार वह नहीं करने वाली । अतः अविलंब अपने कर्तव्य पूरे कर लेने चाहिये ।

यहां उपदेष्टा का इशारा सत्कर्मों से रहा है । भारतीय मान्यता रही है कि जीवात्मा अमर है और अपने इहलोक के कर्मों के फल अन्य लोकों अथवा अन्य जन्मों में भोगने को विवश है । अतः सत्कर्मों के निष्पादन में विलंब न करने की सलाह नीतिवचन देते हैं । अन्य समाजों में भी स्वर्ग-नरक की अवधारणा तथा कर्मफलों की महत्ता किंचित् भेद के साथ स्वीकारी गयी है । क्या इसे समाज का दुर्भाग्य कहा जाये कि आधुनिक जीवन में कर्मों की गुणवत्ता के अर्थ शनैः-शनैः बेमानी होते जा रहे हैं ?

उपर्युक्त नीतिवचन ने कबीर के एक दोहे की ओर मेरा ध्यान खींचा, जिसे मैंने अपनी प्राथमिक स्तर की हिन्दी पाठ्यपुस्तकों में कभी पढ़ा था । दोहा सुविख्यात है और मेरे अनुमान से अधिकांश हिन्दीभाषियों को ज्ञात होगा । दोहा यह है:

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब ।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब ।।

(जो कल करना है वह आज ही कर ले और जिसे आज किया जाना है उसे अविलंब अभी पूरा कर ले । कभी भी प्रलय का पल आ जायेगा, तब फिर वह कार्य कब कर पाओगे ?)

यह दोहा मुझे ‘कबीरवाणी – सत्य ज्ञानामृत’ (मनोज पब्लिकेशन्स, दिल्ली, २००३, पृ. १४१) में भी देखने को मिला है । इसी दोहे के साथ नीतिकथन का एक और दोहा लगभग समान अर्थ वाला भी पढ़ने को मिला जिसके शब्द यूं हैं:

काल करै सो आज कर, सबहि साथ तुव साथ ।
काल काल तू क्या करै, काल काल के हाथ ।।

(जो कल किया जाना है उसे आज कर ले, क्योंकि अभी संसाधन या कार्य के अवसर तुम्हारे साथ हैं । अभी नहीं, कल-कल की बात तू क्यों करता है, कल तो काल के हाथ में है । अर्थात् समय तुम्हारे हाथ से अवसर छीन सकता है ।)

मुझे लगता है कि यह दूसरा दोहा कदाचित् कम चर्चित है । – योगेन्द्र