संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध ग्रंथ “शतकत्रयम्” के रचयिता भर्तृहरि के बारे में दो-चार शब्द इसी चिटठे में मैंने पहले कभी लिखे हैं । (देखें 25 जनवरी 2009 की प्रविष्टि ।)
उक्त ग्रंथ का एक खंड है नीतिशतकम् जिसमें नीति संबंधी लगभग 100 छंद हैं । इन्हीं में से दो चुने हुए श्लोक मैं आगे प्रस्तुत कर रहा हूं । इन श्लोकों में रचनाकार ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि साहित्य, संगीत आदि से वंचित मनुष्य किसी पशु से भिन्न नहीं रह जाता है । उसका जीवन किसी चौपाये के जीवन से बहुत अलग नहीं दिखाई देता है ।
भर्तृहरिरचित नीतिशतकम् से उद्धृत उक्त श्लोक ये हैं:
साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥12॥
(साहित्य-संगीत-कला-विहीनः पुच्छ-विषाण-हीनः साक्षात् पशुः तृणम् न खादन् अपि जीवमानः, तद् पशूनाम् परमम् भाग-धेयं ।)
अर्थ – जो मनुष्य साहित्य, संगीत, कला, से वंचित होता है वह बिना पूंछ तथा बिना सींगों वाले साक्षात् पशु के समान है । वह बिना घास खाए जीवित रहता है यह पशुओं के लिए निःसंदेह सौभाग्य की बात है ।
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥13॥
(येषाम् न विद्या न तपः न दानम् न ज्ञानम् न शीलम् न गुणः न धर्मः ते मृत्यु-लोके भुवि भार-भूता मनुष्यरूपेण मृगाः चरन्ति ।)
अर्थ – जिन मनुष्यों के पास विद्या, तप, दान की भावना, ज्ञान, शील (सत्स्वभाव), मानवीय गुण, धर्म में संलग्नता का अभाव हो वे इस मरणशील संसार में धरती पर बोझ बने हुए मनुष्य रूप में विचरण करने वाले पशु हैं ।
इन नीतिश्लोकों के रचयिता राजा भर्तृहरि यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि मनुष्य की दैनिक चर्या यदि पेट पालने अथवा उससे कुछ कदम आगे सुखभोग के साधन जुटाने तक सीमित रहे तो उसमें और जानवरों में कोई खास फर्क नहीं रह जाता है । वह बस मनुष्य रूप धारण किए होता है, अन्यथा उसके प्रयास पशुओं की तरह महज जीवित बने रहने तक ही सीमित रहते हैं । खाओ-पिओ और सुखःभोग करो यही उसके जीवन का उद्येश्य रह जाता है । पशुवृंद भी यही तो करते हैं, अंतर केवल यह रहता कि उनका सुखभोग खाने-पीने के बाद आराम करने तक सीमित रहता है, जब कि बौद्धिकता के कारण मनुष्य के लिए सुखभोग में बहुत कुछ और भी शामिल रहता है । कवि इस बात पर जोर डालना चाहते हैं कि मनुष्य की पशुओं से भिन्नता शारीरिक संरचना तक सीमित न रह कर उसके आगे बढ़कर विविध कलाओं में दिलचस्पी लेना, चिंतन-मनन की सामर्थ्य हासिल करना, विद्या का अर्जन करना, परोपकारादि कार्य में संलग्न होना, आध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखना, आदि में केंद्रित होनी चाहिए । जो इस प्रकार के उन्नत दर्जे के कर्मों में नहीं लगता मनुष्य रूप में उसके जीवन की सार्थकता वस्तुतः संदिग्ध हो जाती है । वे धरती के लिए एक प्रकार से बोझ ही कहे जा सकते हैं । – योगेन्द्र जोशी
Madan Gopal Goyal
नवम्बर 18, 2018 @ 22:46:54
कृपया पूरे नीति शतक को.ही प्रकाशित कर दें।
योगेन्द्र जोशी
नवम्बर 26, 2018 @ 21:27:03
मुझे खेद है कि मैं आपकी सलाह के अनुसार पूरे नीति शतक को अपने चिट्ठे पर प्रस्तुत नहीं कर सकता। क्षमा चाहूंगा।
कारण यह है कि मैं एकाधिक ब्लॉग लिखा करता हूं और मेरा प्रयास होता है कि मेरे आलेख यथसंभव तथ्यात्मक हों और जितना संभव हो सके भाषायी दृष्टि से भी त्रुटिहीन हों।
मैं विविध विषयों का अध्ययन करता रहता हूं और जब कभी मुझे कहीं कुछ रोचक अथवा उपयोगी पाठ्य सामग्री मिलती है तो उसे अपने आलेख का आधार चुनता हूं।
इसीलिए नीतिशतक जैसे ग्रंथ – भले ही यह काफी छोटा करीब १०० छंदों (नाम के अनुरूप) का है – को प्रस्तुत करने पर स्वाध्याय तथा अन्य चिट्ठों के लेखन को प्रभावित करेगा।
आशा है कि आप मेरी विवशता समझ रहे होंगे।
pjoshi23
नवम्बर 19, 2018 @ 12:53:37
आप अपने ब्लॉग में ज्यादा बड़े अक्षरों का इस्तेमाल करें, तो पढ़ने में आसानी होगी