अपने भारत देश की सभ्यता-संस्कृति की प्रशंसा में अनेक जनों को तरह-तरह के नीति-वाक्यों के दृष्टांतों के साथ बोलते हुए मैंने सुना हैं। “वसुधैव कुटुम्बकम्”, “परोपकाराय सतां विभूतयः”, “अतिथिदेवो भव”, “सत्यमेव जयते” इत्यादि नीति-वाक्यों का उल्लेख करते हुए वे देखे जा सकते हैं। इन कथनों के माध्यम से वे यह जताने की कोशिश करते हैं कि हमारे समाज की मान्यताएं तो सर्वश्रेष्ठ रही हैं। इस संदर्भ में मैं अपने वर्तमान गृह मंत्री को शीर्ष पर रखता हूं। वे हर मौके पर ऐसी उक्तियों से भारतीय समाज की प्रशंसा करते हैं।
इन नीति वचनों को कहने वाले उन प्रसंगों को नजरअंदाज करते हैं जो प्राचीन संस्कृत साहित्य में इनसे संबंधित रहे हैं। उदाहरणार्थ “सत्यमेव जयते” (शुद्ध ‘जयति’ है) को ही ले लीजिए। इस पर मैंने एक आलेख बहुत पहले लिखा था (देखें मेरी ब्लॉग-पोस्ट 4/10/2008)। यह उक्ति मुण्डक उपनिषद् के एक मंत्र का वाक्यांश है। मंत्र में यह संदेश है कि मोक्ष (वैदिक मान्यतानुसार परमात्मतत्त्व में एकाकार हो जाना) का पात्र वही ज्ञानी हो सकता है जो सत्य के मार्ग पर चलता है। इस व्यवहारिक संसार से इस मंत्र का कोई संबंध नहीं है। संसार में तो सत्य-असत्य दोनों ही साथ-साथ चलते हैं। लेकिन आम धारणा है कि संसार में सत्य की विजय होती है।
इसी प्रकार “वसुधैव कुटुम्बकम्” श्रीविष्णुशर्मा-रचित “पञ्चचतन्त्रम्” की एक कथा से संबंधित है। इस कथन से यह निष्कर्ष निकालना भूल होगी कि भारतीय समाज में ऐसी कोई भावना व्याप्त रही थी और है। यह कथन एक विशेष अवसर पर किसी व्यक्ति के अपने मित्रों को बोले गये उद्गार का एक अंश है।
“वसुधैव कुटुम्बकम्” उक्ति के मूल को समझने के लिए उस कथा का उल्लेख करना समीचीन होगा जो पंचतंत्र में वर्णित है। संक्षेप में वह कथा इस प्रकार है:
एक ग्राम में परस्पर मित्र चार युवा रहते थे। उनकी मित्रता बहुत गहरी थी और वे यथासंभव एक-दूसरे के साथ बने रहते थे। उनमें से एक बुद्धिमान था किन्तु संयोग से अन्य तीन की भांति विद्याध्ययन नहीं कर सका। अन्य तीनों ने विभिन्न कलाओं में दक्षता अर्जित कर ली। किन्तु अपने ज्ञान का उपयोग कब एवं किस प्रयोजन के लिए यह समझने की सहज बुद्धि उनमें नहीं थी।
एक बार उन मित्रों के मन में विचार आया कि अर्जित विद्या का उपयोग तो गांव में हो नहीं सकता, इसलिए क्यों न देश-परदेश जाकर उसके माध्यम से धनोपार्जन किया जाए। चूंकि चौथे मित्र ने विद्या अर्जित नहीं की थी इसलिए उनमें से एक बोला, “हम तीन चलते हैं; इस विद्याहीन को साथ ले जाना बेकार है। हम धन कमाएं और उसका एक हिस्सा इसे भी दें यह ठीक नहीं होगा।”
दूसरे ने सहमति जताते हुए चौथे से कहा, “मित्र, तुम विद्याबल से धन कमा नहीं सकते इसलिए तुम साथ मत चलो और यहीं रहो।”
तीसरा उदार विचारों वाला था। उसने कहा, “हम चारों बाल्यावस्था से घनिष्ठ मित्र रहे हैं। संयोग से यह विद्याध्ययन नहीं कर सका तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम इसे छोड़ दें। धन-संपदा की सार्थक उपयोगिता इसी में है कि उसका उपभोग औरों के साथ मिल-बांटकर किया जाये। अतः हमारा यह मित्र भी साथ चलेगा।”
पंचतंत्र के रचयिता ने उदारता की उक्त नीति को इस तीसरे मित्र के मुख से इस प्रकार से कहलवाया है:
किं तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव केवला ।
या न वैश्येव सामान्या पथिकैरुपभुज्यते ॥३६॥
(पञ्चतन्त्रम्, पंचम तंत्र, “अपरीक्षितकारकम्)
(किम् तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूः इव केवला, या न वैश्या इव सामान्या पथिकैः उपभुज्यते ।)
अर्थ – उस लक्ष्मी (धन) का क्या करना जो केवल (घर की) वधू की तरह हो, जो वैश्या की तरह आम यात्रियों के लिए उपभोग्य न हो।
यहां लक्ष्मी से तात्पर्य है धन से न कि विष्णुपत्नी देवी लक्ष्मी से। धन की उपयोगिता दो प्रकार से हो सकती है: प्रथम है कि वह केवल अपने मालिक के ही सुखभोग के काम आवे। द्वितीय है कि वह दूसरों के हित साधने में प्रयोग में लिया जाये। अर्थात् व्यक्ति उसे या तो केवल अपने स्वार्थ पूरा करने में प्रयोग में ले अथवा उसे परमार्थ के कार्य में भी लगावे। इन दो संभावनों की उपमा कथाकार ने वधू (जो किसी एक की पत्नी भर होती है) एवं वैश्या (जो हर किसीको उपलब्ध होती है) से की है।
औदार्य की इस भावना के बारे में कथाकार अपने पात्र से यह कहलवाता है:
अयं निजः परो वैति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(पञ्चतन्त्रम्, पंचम तंत्र, “अपरीक्षितकारकम्)
(अयम् निजः परः वा इति गणना लघु-चेतसाम् उदार-चरितानाम् तु वसुधा एव कुटुम्बकम् ।)
अर्थ – यह अपना है या पराया है ऐसा आकलन छोटे दिल वालों का होता है। उदार चरित्र वालों के लिए तो पूरी पृथ्वी ही उनका कुटुम्ब होती है।
आम तौर पर कुटुम्ब (कुटुम्बक) का अर्थ परिवार से लिया जाता है, जिसमें पति-पत्नी एवं संतानें और कदाचित् बुजुर्ग माता-पिता। मनुष्य इन्हीं के लिए धन-संपदा अर्जित करता है। कुछ विशेष अवसरों पर वह निकट संबंधियों और मित्रों पर भी धन का एक अंश खर्च कर लेता है। किंतु अधिक व्यापक स्तर पर समाज के सभी सदस्यों के हितों के लिए धन खर्च करने का विचार केवल विरले लोगों में देखने को मिल सकता है।
इस श्लोक का निहितार्थ यह है: अमुक तो अपना व्यक्ति है इसलिए उसकी सहायता करनी चाहिए यह धारणा संकीर्ण मानसिकता वालों की होती है। उदात्त वृत्ति वाले तो समाज के सभी सदस्यों के प्रति परोपकार भावना रखते हैं और सामर्थ्य होने पर सभी की मदद करते हैं।
ध्यान दें कि कथा में एक उदार मित्र अपने दो अपेक्षया अनुदार मित्रों के प्रति “वसुधैव कुटुम्बकम्” की बात कहता है। यह कथन किसी लेखक ने यह बताने के लिए नहीं कहा है कि भारतीय समाज में उदात्त वृत्ति व्यापक रही है। कथा में जो कहा है उसे कथा तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। उससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि भारतीय समाज उदार रहा है।
अंत में कथा का शेष भाग भी संक्षेप में बता दूं: वे चारों मित्र परदेश के लिए चल पड़े। रास्ते में एक स्थान पर उन्हें हड्डियों का ढेर दिखा। उन मित्रों में से एक ने कहा, “अहो, लगता है किसी जीवधारी की मृत्यु यहां हुई। क्यों न उस बेचारे को हम अपनी विद्या के बल पर पुनः जीवन दे दें।”´
ऐसा कहते हुए उसने हड्डियां जोड़कर मृत जीव का अस्थिपंजर खड़ा कर दिया। उसके बाद दूसरे ने त्वचा-मांस आदि प्रदान करके उस जीव का पूरा शरीर तैयार कर दिया। तत्पश्चात् तीसरे ने उसमें प्राणसंचार करने का विचार किया। तब चौथा उन तीन जनों से बोला, “अरे-अरे, ऐसा मत करो। यह तो शेर का शरीर है। इसमें प्राण-संचार हो गया तो जीवित होकर हम सबको मार डालेगा।”
मित्रों ने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया। बात मानने से उनकी विद्या का अपमान जो हो जाता। तब उस चौथे मित्र ने कहा, “तनिक ठहरो, मैं पास के पेड़ पर चढ़ता हूं, उसके बाद प्राणसंचार करना।”
उसके पेड़ पर चढ़ने के बाद उन विद्याधारियों की मूर्खता से शेर जीवित हो गया। वे तीनों शेर द्वारा मारे गये और चौथा विद्याहीन किंतु बुद्धिमान बच गया। – योगेन्द्र जोशी
योगेन्द्र जोशी
मई 28, 2017 @ 15:49:14
Reblogged this on जिंदगी बस यही है.
रवि यदुवंशी
अगस्त 12, 2021 @ 11:03:58
बात समझदारी से विचार करें कि है…
अगर वो तीनों लोग अकेले जाते तब भी शायद यही घटना उनके साथ होती… अपनी अपनी विद्या को प्रदर्शित करने के अभिमान में…वहीं अगर ध्यान दिया जाए तो चौथे अशिक्षित व्यक्ति के विचार का भी सम्मान करके वे सभी लोग पेड़ पर चढ़ने के बाद मृत शेर के शरीर में प्राण भूंकते तो शेर के साथ साथ तीन अन्य मित्रों को भी जीवन दान व जीने की सीख मिल जाती….।।
जय हिंद जय भारत…जय भारतीय संस्कृति…🙏🙏