अथर्ववेद में गर्भिणी नारी के प्रति शुभाशीर्वचन – “ते ध्रियतां गर्भो …”

“अथर्ववेद” चार वेदों में चौथा वेद है। वेदों का उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के क्रम में ही किया जाता है। इनकी रचना शायद इसी क्रम में की गयी होगी। रचना कहना कदचित उचित नहीं होगा, क्योंकि कोई भी वेद किसी एक ऋषि की रचना नहीं। मान्यता यह है कि वैदिक मंत्रों के अलग-अलग अनेक “मंत्रद्रष्टा” रहे हैं, जिन्हें विभिन्न मंत्रों का दैवी ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्हीं मंत्रों का कालांतर में इन चार वेदों के रूप में संकलन किया गया; संकलनकर्ता संभवतः महर्षि व्यास (वेदव्यास) थे। व्यास कोई एक व्यक्ति थे ऐसा मुझे नहीं लगता है। कदाचित व्यास गुरु-शिष्य की आश्रमिक व्यवस्था में पद अथवा उपाधि रही होगी।

अथर्ववेद पहले के तीन वेदों से कुछ हटकर है। इसमें व्यावहारिक जीवन की बातें भी शामिल हैं। यह वेद काण्डों में विभाजित है; हर कांड में सूक्त हैं और सूक्तों में मंत्र। इस वेद के 6ठे कांड में चार मंत्र मुझे देखने को मिले हैं जिनमें गर्भिणी नारी के प्रति शुभाशीर्वाद के वचन व्यक्त हैं। उन्हीं का उल्लेख यहां पर किया जा रहा है:

(अथर्ववेद, काण्ड 6, सूक्त 18)

यथेयं पृथिवी मही भूतानां गर्भमादधे ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥1॥

(यथा इयं पृथिवी मही भूतानां गर्भम्‍ आदधे एवा ते ध्रियतां गर्भः अनु सूतुं सवितवे।)

जिस प्रकार यह महान् पृथिवी सभी प्राणियों को अपने में धारण किये रहती है, उसी प्रकार (हे नारि) समुचित अवधि पर प्रसव हेतु तुम्हारा गर्भ धारण रहे (अस्थिर न होने पावे)।

यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान् वनस्पतीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥2॥

(यथा इयं पृथिवी मही दाधार इमान् वनस्पतीन् एवा ते ध्रियतां गर्भः अनु सूतुं सवितवे।)

जिस प्रकार यह महान्‍ पृथिवी इन वनस्पतियों को अपने में धारण किये रहती है, उसी प्रकार (हे नारि) समुचित अवधि पर प्रसव हेतु तुम्हारा गर्भ धारण रहे (अस्थिर न होने पावे)।

यथेयं पृथिवी मही दाधार पर्वतान् गिरीन् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥3॥

(यथा इयं पृथिवी मही दाधार पर्वतान् गिरीन् एवा ते ध्रियतां गर्भः अनु सूतुं सवितवे।)

जिस प्रकार यह महान्‍ पृथिवी पर्वतों-चट्टानों को अपने में धारण किये रहती है, उसी प्रकार (हे नारि) समुचित अवधि पर प्रसव हेतु तुम्हारा गर्भ धारण रहे (अस्थिर न होने पावे)।

यथेयं पृथिवी मही दाधार विष्ठितं जगत् ।

एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥4॥

(यथा इयं पृथिवी मही दाधार वि-स्थितम्‍ जगत् एवा ते ध्रियतां गर्भः अनु सूतुं सवितवे।)

जिस प्रकार यह महान्‍ पृथिवी विविध चर-अचर जीवों एवं निर्जीव वस्तुओं का जगत्‍ अपने में धारण किये रहती है, उसी प्रकार (हे नारि) समुचित अवधि पर प्रसव हेतु तुम्हारा गर्भ धारण रहे (अस्थिर न होने पावे)।

पहले मंत्र में भूत शब्द चर यानी जंगम प्राणियों के लिए किया गया है। अचर (स्थावर) वनस्पतियों का उल्लेख दूसरे मंत्र में है। दोनों प्रकार के प्राणी इस धरती पर जन्म लेते हैं और पनपते हैं। नारी के गर्भ की तुलना इसी धरती से की गयी है, क्योंकि नारी गर्भ में भी मानव शिशु के जीवन का आरंभ होता है और दसवें मास की अवधि तक उसे गर्भ में ही वृद्धि पाने का अवसर और सुरक्षित रहने का ठौर मिलता है। इतना ही नहीं, इसी धरती पर तमाम निर्जीव वस्तुएं यथा पर्वत और शिलाखंड भी टिके रहते हैं। जिस प्रकार धरती समस्त चराचर प्राणियों एवं वस्तुओं को आधार एवं सुरक्षा प्रदान करने में समर्थ होती है, उसी प्रकार नारी के गर्भ को भी वह सामर्थ्य प्राप्त हो जिससे  अजन्मा प्राणी विकसित हो सके और समुचित अंतराल पर जन्म लेने तक सुरक्षित रह सके। यही भावना इन मंत्रों में व्यक्त की गई है। – योगेन्द्र जोशी

1 टिप्पणी (+add yours?)

  1. Alok
    अगस्त 25, 2020 @ 05:18:51

    Sir bahut bahut naman aapko pahle.ved jaise sagar me se ek anmolratn nikalkar de diya aapne ishan param brahm paraatma aapko subh aashirvad de .

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