“कलियुगे जना: अघासुरायन्ते” – श्रीमद्भागवत्पुराण के अनुसार कलियुग का मूल स्वरूप

श्रीमद्भागवत्पुराण १८ प्रमुख पुराणों में से एक है जिसमें भगवान् विष्णु एवं उनके अवतारों, विशेषतः कृष्णावतार, का विस्तृत वर्णन है। भक्ति की महत्ता को दर्शाने वाले इस ग्रंथ के आरंभ के द्वितीय अध्याय में एक प्रकरण है जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि कैसे कलियुग में योग एवं ज्ञान मार्गों को छोड़ भक्ति ही परमात्मा की प्राप्ति का साधन रह जाता है।

इस प्रकरण में बताया गया है कि एक बार देवर्षि नारद घुमते-फिरते धरती पर पहुंचे। कलि (युग) के प्रभाव में उन्होंने सर्वत्र पापकर्मों का बोलबाला देखा। जब वे वृंदावन के निकट यमुना तीर पर पहुंचे तो उनकी दृष्टि एक युवती पर पड़ी जो असामयिक बुढ़ापे से ग्रस्त अचेतन अवस्था में धरती पर पड़े हुए दो बालकों को उठाने का प्रयास करते हुए रो रही थी। मुनि नारद उसके पास गए और उन्होंने पूछा, “अरे बालिके, तुम कौन हो और ये दो जने कौन हैं।”

उस युवती ने उत्तर दिया, “मैं “भक्ति” हूं और ये दोनों मेरे पुत्र “ज्ञान” एवं “योग” हैं। पता नहीं क्यों ये बालक वृद्धावस्था से ग्रस्त हो चुके हैं और अचेत पड़े हुए हैं।”

देवर्षि नारद ने समस्या का कोई समाधान तो नहीं बताया किंतु इतना कहा कि तुम्हारे पुत्रद्वय की यह गति कलि (कलियुग) के प्रभाव से हुई है। उन्होंने ये बातें कहीं:

शृणुष्वावहिता बाले युगोऽयं दारुणः कलिः।

तेन लुप्तः सदाचारो योगमार्गस्तपांसि च।

जना अघासुरायन्ते शाठ्यदुष्कर्मकारिणः॥५७॥

(श्रीमद्‍भागवत्, अध्याय २, माहात्म्यम्)

(बाले अवहिता शृणुष्व, अयं कलिः युगो दारुणः, तेन सदाचार: योग-मार्ग: तपांसि च लुप्तः, शाठ्य-दुष्कर्म-कारिणः जनाः अघासुरायन्ते ।)

अर्थ – हे बाले (युवती) ध्यान से सुनो। यह निष्ठुर कलियुग है। उसी के प्रभाव से सदाचार, योगमार्ग एवं तपकर्म विलुप्त हो गये हैं और ठग-धूर्त तथा दुष्कर्म में लिप्त लोग पापी राक्षसों की भांति व्यवहार करते हैं। (अघासुर एक राक्षक का नाम भी था। अतः उक्त अर्थ में “अघासुर की भांति” भी विकल्पतः कह सकते हैं। कुल मिलाकर अर्थ वही निकलता है।)

इह सन्तो विषीदन्ति प्रहृश्यन्ति ह्यसाधव:

धत्ते धैर्यं तु यो धीमान् स धीरः पण्डितोऽथवा॥५८॥

(यथा पूर्वोक्त)

(इह सन्तः विषीदन्ति, असाधव: हि प्रहृश्यन्ति, यो तु धीमान् धैर्यं धत्ते सः धीरः अथवा पण्डितः।)

अर्थ – यहां (इस युग में) सज्जन-महात्मा-जन दुःखी रहते हैं और अधर्म में लिप्त लोग आनंदित रह्ते हैं। जो बुद्धिमान् व्यक्ति धैर्य रख लेता है वही धीरज वाला एवं ज्ञानी होता है।

मेरा मत है कि इस प्रकार की कथाओं में अमूर्त भावों को मानव-शरीरी पात्र बनाकर उनके मुख से बहुत कुछ कहलवाने की पद्धति अक्सर प्रयोग में ली जाती है। ये सब वस्तुस्थिति के निरूपण की प्रतीकात्मक शैली है। इन कथाओं को शब्दशः व्याख्यायित करना अधिक माने नहीं रखता, बल्कि असल संदेश क्या दिया जा रहा है इसका महत्व है। महाभारत महाकाव्य, पंचतंत्र एवं हितोपदेश जैसे ग्रंथों में कई नीतिवचन पशु पात्रों के मुख से कहलवाए गये हैं। “कालीदास के मेघदूतम्” में बादलों को संबोधित करते हुए प्रेमी प्रेमिका को संदेश भेजता है। काव्यों-कथाओं में इस प्रकार के प्रयास रोचक बनाने के लिए किए जाते होंगे ऐसा मेरा मानना हैं।

दरअसल कथाकार इस तथ्य को जनसमूह के सम्मुख रखना चाहता है कि कलियुग में मनुष्य स्वार्थी, धनलोलुप एवं अहंकारी हो गए हैं। परोपकार एवं दूसरे हितों की चिंता करना वह छोड़ चुके हैं। वह राक्षसों की भांति व्यवहार करने लगे हैं। अर्थात् ठगी करना, लूटपाट मचाना, दूसरे के कार्यों में विघ्न डालना, बात-बात पर क्रोधित होकर मारपीट पर उतर जाना, आदि आम बातें हो चुकी हैं।

इस युग में परमात्मा को पाने के ज्ञानमार्ग एवं योगमार्ग भुला दिए गए हैं क्योंकि ये समयसाध्य एवं श्रमसाध्य हैं, अतः लोगों में इन्हें अपनाने का उत्साह नहीं रहता। कथा में उल्लिखित बालकों की असामयिक वृद्धावस्था कलियुग में इन दो मार्गों की दुर्दशा का प्रतीकात्मक वर्णन है। दूसरी तरफ भक्तिमार्ग सरल है और किसी के लिए भी उसको अपनाना अपेक्षया आसान है। श्रद्धावान व्यक्ति रोचक तरीके से प्रस्तुत भगवत्कथाओं को ध्यान से सुनने का इच्छुक होता है। इसलिए भक्तिमार्ग अभी बचा है।

मैं विश्व के अन्य समाजों की बात नहीं करता। लेकिन भारतीय समाज में जो देख रहा हूं वह निराशाप्रद है। लगता है जैसे एक प्रकार की अराजकता फैली हुई है। जिसे जो मन होता है बोल देता है, वाणी पर संयम नहीं किसी का, छोटी-छोटी बातों पर वाग्युद्ध से आरंभ करते हुए मल्लयुद्ध और हत्या तक पर उतर आते हैं, अवैधानिक तरीकों से धन कमाने की अदम्य लालसा लोगों में दिखती हैं, लूटपाट एवं धोखाधड़ी लोगों का शौक बन रहा है, कमजोर व्यक्ति का शोषण और उपकार के नाम पर अनाथों का दुष्कर्म देखने को मिल रहा है, और सबसे घृणास्पद तो यह है कि गेरुआवस्त्रधारी जन धर्म के नाम पर पापकृत्य में संलग्न हो रहे हैं। यह सब कलियुग की पहचान है। – योगेन्द्र जोशी

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