अथर्ववेद में सुख-संपदा, स्वास्थ, शत्रुविनाश आदि से संबंधित अनेकों मंत्रों का संग्रह है । सामान्यतः ये मंत्र किसी न किसी प्रकार के कर्मकांड से जुड़े देखे जा सकते हैं । इस वेद के दूसरे कांड में मुझे आत्मप्रेरणा के मंत्र पढ़ने को मिले हैं । ग्रंथ के सायणभाष्य से मैं जो समझ पाया उसके अनुसार ये भोजन आरंभ करते समय उच्चारित किए जाने चाहिए । आगे इनका उल्लेख कर रहा हूं:
यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥1॥
(द्यौश्च = द्यौः च, बिभीतो = बिभीतः, एवा = एवं)
यथाहश्च रात्रीं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥2॥
(यथाहश्च = यथा अहः च )
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥3॥
(सूर्यश्च = सूर्यः च, चन्द्रश्च = चन्द्रः च)
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥4॥
यथा सत्यं चानृतं न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥5॥
(चानृतं = च अनृतं)
यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥6॥
(अथर्ववेद, काण्ड 2, सूक्त 15)
अर्थ:
(1) जिस प्रकार आकाश एवं पृथिवी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण तुम भी भयमुक्त रहो ।
(2) जिस प्रकार दिन एवं रात को भय नहीं होता और इनका नाश नहीं होता, उसी प्रकार हे मेरे प्राण तुम्हें भी भय नहीं होवे ।
(3) जिस प्रकार सूर्य एवं चंद्र को भय नहीं सताता और इनका विनाश नहीं होता, उसी भांति हे मेरे प्राण तुम भी भय अनुभव न करो ।
(4) जैसे ब्रह्म एवं उसकी शक्ति को कोई भय नहीं होता और उनका विनाश नहीं होता, वैसे ही हे मेरे प्राण तुम भय से मुक्त रहो ।
(5) जैसे सत्य तथा असत्य किसी से भय नहीं खाते और इनका नाश नहीं होता, वैसे ही हे मेरे प्राण तुम्हें भी भय नहीं होना चाहिए ।
(6) जिस भांति भूतकाल तथा भविष्यत्काल को किसी का भय नहीं होता और जिनका विनाश नहीं होता, उसी भांति हे मेरे प्राण तुम भी भय से मुक्त रहो ।
इन मंत्रों में प्रकृति की विविध मूर्तिमान वस्तुओं और अमूर्त भावों का उल्लेख है वे मनुष्य की भांति व्यवहार नहीं करते हैं । उनके लिए भय और विनष्ट होने के भाव का कोई अर्थ नहीं है । मेरी समझ में उनका उल्लेख यह दर्शाने के लिए है कि वे सब अपने-अपने प्रकृति-निर्धारित कार्य में संलग्न रहते हैं । वह किसी भी संभावना से अपने धर्म से विचलित नहीं होते । (प्रकृति में जिससे जिस व्यवहार अथवा कर्म की अपेक्षा की जाती है वह उसका धर्म कहलाता है, जैसे जल का धर्म है गीला करना, अग्नि का धर्म है जलाना, आदि ।)
मैं इन मंत्रों की व्याख्या कुछ यों करता हूं: वैदिक ऋषि इन मंत्रों के माध्यम से स्वयं को यह बताता है कि प्रकृति की सभी वस्तुएं अपने-अपने कार्य-संपादन में अविचलित रूप से निरंतर लगी रहती हैं । वह अपने मन को समझाता है कि वह इन सब से प्रेरणा ले और निर्भय होकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करे ।
उपर्युक्त चौथे मंत्र में “ब्रह्म”एवं “क्षत्र”का उल्लेख है । संबंधित मंत्र के सायणभाष्य में इन शब्दों के अर्थ वर्ण व्यवस्था के “ब्राह्मण”तथा “क्षत्रिय”क्रमशः लिए गए हैं । मुझे इन शब्दों के अर्थ क्रमशः सृष्टि के मूल ब्रह्म एवं उसकी शक्ति लेना अधिक सार्थक लगते हैं । इन संस्कृत शब्दों के ये अर्थ भी होते हैं । ध्यान दें कि इन मंत्रों में जोड़े में वस्तुओं/भावों का उल्लेख हुआ है । केवल दो ही वर्णों (वर्ण व्यवस्था के ब्राह्मण आदि) का उल्लेख मुझे इस तथ्य के अनुरूप नहीं लगा । अतः ब्रह्म एवं उसकी सामर्थ्य-क्षमता मुझे अधिक सार्थक लगते है ।
पांचवें मंत्र में सत्य एवं असत्य विद्यमान हैं । सत्य और असत्य भी कभी बदलते नहीं हैं । जो सत्य है वह सदैव के लिए सत्य है और असत्य सदा के लिए असत्य रहता है । इसी प्रकार अंतिम मंत्र में भूत एवं भविष्य का उल्लेख है । जो हो चुका (भूत) वह “न हुआ”नहीं किया जा सकता है, ओर जो होने वाला है (भविष्य) वह भी नियत बना रहना है । – योगेन्द्र जोशी