“… सनिं मेधामयासिषं …” – यजुर्वेद में अग्नि देवता से बुद्धि एवं धन की प्रार्थना

वेदों में देवताओं की प्रार्थना से संबंधित अनेक मंत्र पढ़ने को मिलते हैं। ये देवता कौन हैं, क्या हैं, यह मैं नहीं समझ पाया हूं। प्रकृति की विभिन्न शक्तियों के अमूर्त नियंता ही ये देवता हैं ऐसा मेरी समझ में आता है। प्राचीन पौराणिक साहित्य में भी देवताओं से जुड़ी कथाओं का वर्णन मिलता है। लेकिन उन कथाओं से यह नहीं लगता कि देवतागण प्रकृति की शक्तियों के प्रतीक हैं। बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि वे पुण्यकर्मों के फलस्वरूप देवत्व-प्राप्त एवं विशिष्ट सामर्थ्य से संपन्न स्वर्गस्थ आत्माएं होती हैं जो पुण्यकर्मों के भोग के बाद पुनः धरती पर जन्म लेती हैं जैसा कि विष्णुपुराण में पढ़ने को मिलता है (गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदहेतुभूते भवन्ति भूयः मनुजाः सुरत्वात् ॥)। बहरहाल मैं वेदों एवं पुराणों में चर्चित देवताओं में क्या अंतर है – यदि है तो – इसकी विवेचना नहीं कर रहा हूं, बल्कि अग्नि देवता से जुड़े चार मंत्रों का जिक्र कर रहा हूं।

वेदों में देवताओं की स्तुतिपरक मंत्र ही अधिकांशतः देखने को मिलते हैं। इन देवताओं में इन्द्र एवं अग्नि की स्तुतियां बहुतायत में प्राप्य हैं। अग्नि देवता को अन्य सभी देवताओं के प्रतिनिधि के तौर पर देखा गया है, क्योंकि यज्ञ-संपादन में दी जाने वाली आहुतियों का वाहक अग्नि ही है। यज्ञकुंड की प्रज्वलित अग्नि में गोघृत, तिल, जौ आदि से बने सुगंधित हवन सामग्री की जब आहुति दी जाती है तो “स्वाहा” का उच्चारण किया जाता है; उसका अर्थ है कि अग्नि देवता के माध्यम से सभी देवताओं को वह आहुति प्राप्त हो। इसलिए वैदिक अनुष्ठानों में अग्नि देवता और उसके भौतिक प्रतीक प्रज्वलित अग्नि का विशेष महत्व है।

शुक्लयजुर्वेद संहिता में अग्नि देवता को संबोधित चार ऐसे मंत्र मुझे पढ़ने को मिले जिनमें मेधा (उत्कृष्ट श्रेणी की बौद्धिक क्षमता) और धनधान्य की याचना की गई है। उन्ही का उल्लेख मैं यहां पर कर रहा हूं, जिनके अर्थ के लिए मैंने श्रीमद्‍-उवटाचार्य एवं श्रीमद्‍महीधर के भाष्यों का सहारा लिया है। (शुक्लयजुर्वेदसंहिता, अध्याय ३२, कंडिका/मंत्र १३-१६)

सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । सनिं मेधामयासिषं स्वाहा ॥१३॥

(सदसः पतिम् अद्भुतंम् प्रियम् इन्द्रस्य काम्यम् सनिम् मेधाम् अयासिषम् स्वाहा।)

यज्ञशाला के पति/स्वामी, इन्द्र के प्रिय, कामना के योग्य, (अग्नि से) धन (सनि) एवं मेधा की याचना करते हैं; स्वाहा अर्थात्‍ सभी देवताओं के प्रति आहुति।

यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते । तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा ॥१४॥

(याम् मेधाम् देवगणाः पितरः च उपासते तया माम् अद्य मेधया अग्ने मेधाविनम् कुरु स्वाहा।)

जिस मेधा की उपसना देवगण और पितृवृन्द करते हैं, हे अग्नि आज मुझे उस मेधा से मेधावी (मेधावान्‍) बनावें; स्वाहा।

मेधां मे वरुणो ददातु मेधामग्निः प्रजापतिः । मेधामिन्द्रश्च वायुश्च मेधां धाता ददातु मे स्वाहा ॥१५॥

(मेधाम् मे वरुणः ददातु मेधाम् अग्निः प्रजापतिः मेधाम् इन्द्रः च वायुः च मेधाम् धाता ददातु मे स्वाहा।)

वरुण देवता मुझे मेधा प्रदान करें, अग्नि मेधा दें, प्रजापति (ब्रह्मा), इन्द्र एवं वायु मेधा दें, विधाता मुझे मेधा प्रदान करें; स्वाहा।

इदं मे ब्रह्म क्षत्रं चोभे श्रियमस्नुताम् मयि देवा दधतु श्रियमुत्तरां तस्यै ते स्वाहा ॥१६॥

(इदम् मे ब्रह्म क्षत्रम् च उभे श्रियम् अस्नुताम्मयि देवा दधतु श्रियम् उत्तराम् तस्यै ते स्वाहा।)

मेरी श्री (धन-संपदा) का भोग ब्राह्मण और क्षत्रिय, दोनों, करें। देवगण मुझे धन-ऐश्वर्य प्रदान करें; उसके लिए (अग्नि!) आपके प्रति आहुति; स्वाहा।

मेरी जानकारी के अनुसार वैदिक काल में यज्ञ-संपादन दैनिक जीवन का अंग हुआ करता था, और उसके लिए यज्ञशाला (सदस्) में अग्नि प्रज्वलित रहती थी। अग्नि को इस यज्ञगृह का स्वामी या पालनकर्ता कहा गया है। प्रथम मंत्र में अग्नि को इन्द्र के प्रिय साथी के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। मेधा बुद्धि का पर्याय है; किंतु मेरी समझ में यह विवेक से परिपूर्ण बुद्धि है। आम तौर पर मनुष्य को बुद्धि सन्मार्ग पर ले चले यह आवश्यक नहीं। मेधा उत्कृष्ट स्तर की बुद्धि है जो उचितानुचित में भेद करने की प्रेरणा देती है।

पितरों से तात्पर्य पूर्वजों से होना चाहिए जो मेधा की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते रहे हों। देवगणों द्वारा उपासना का अर्थ कुछ भिन्न होना चाहिए, क्योंकि वे तो मेधा का वरदान स्वयं ही देते हैं। उनकी उपासना से अर्थ यही होगा की मेधा की श्रेष्ठता/महत्ता को वे भी स्वीकारते हैं और उसे उपास्य के तौर पर देखते हैं।

तीसरी कंडिका में वरुण (जल के देवता) आदि अन्य प्रमुख देवताओं का संबोधन स्पष्टतः करते हुए सभी से मेधा की याचना की गई है।

अंतिम मंत्र में यह यज्ञकर्ता कहता है उसका धन, जिसकी याचना प्रारंभ में की गई है, ब्राह्मणों और क्षत्रियों के भोग के लिए भी उपलब्ध होवे न कि अकेले उसके भोग के लिए। यहां पर केवल दो वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय) का नाम शामिल किया गया है। वैदिक काल में कार्य (पेशा) विभाजन के अनुरूप समाज चार वर्णों में विभक्त था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। मेरा सोचना है कि इस कथन का आशय होना चाहिए कि मेरा धन समाज के उपयोग में आवे। तब केवल ब्राह्मण एवं क्षत्रिय का उल्लेख क्यों किया है? कदाचित् यह मंत्र के छंद-स्वरूप को सुसंगत बनाये रखने के लिए किया गया होगा। इसलिए केवल दो वर्णों का उल्लेख पूरे समाज को इंगित करने हेतु किया गया होगा ऐसा मेरा सोचना है। इस प्रकार इस मंत्र में ‘मेरा धन समाज-हित में प्रयुक्त होवे’ यह भावना निहित है। – योगेन्द्र जोशी

2 टिप्पणियां (+add yours?)

  1. SHUSHANTO
    जनवरी 25, 2018 @ 14:59:16

    ‘स्वाहा’ शब्द का अर्थ यह है कि जैसा ज्ञान आत्मा में हो वैसा ही जीभ से बोले, विपरीत नहीं। (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास)

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    • योगेन्द्र जोशी
      जनवरी 28, 2018 @ 17:11:39

      जानकारी के लिए धन्यवाद।
      आपके द्वारा बताए गये स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा की गई स्वाहा शब्द की
      व्याख्या से मैं अनभिज्ञ हूं। यह जिज्ञासा मुझे अवश्य हो रही है कि यह अर्थ
      उन्होंने कैसे निकाला होगा।
      अभी मैं अपने शहर से बाहर हूं। लौटने पर इस विषय पर जानकारी जुटाऊंगा।
      शुभेच्छा।

      25 जनवरी 2018 को 2:59 pm को, ने लिखा:

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